हिन्दू धर्म के लक्षण और तीन विभिन्न स्तर

January 1958

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(पं. लक्ष्मण शास्त्री तर्कतीर्थ)

दूसरे धर्मों की अपेक्षा हिन्दू धर्म में क्या विशेषता है, अर्थात् हिन्दू धर्म का लक्षण क्या है, यह एक बहुत ही विवादग्रस्त प्रश्न है, क्योंकि हिन्दू धर्म में परस्पर विरोध रखने वाले सैकड़ों प्रकार के विभिन्न सिद्धान्त माने जा रहे हैं। हिन्दू धर्म के दो विभाग हैं। खास तरह के सामाजिक रीति रिवाज अथवा समाज रचना के खास नियम और विधियाँ इसका सबसे प्रधान अंग है। दूसरा अंग है परमार्थिक या पारलौकिक जिसके सम्बन्ध में विभिन्न हिन्दू सम्प्रदायों के मत एक दूसरे से बहुत ही भिन्न हैं। इनमें से प्रथम अंग में वर्ण विभाग, जाति विभाग, खास तरह के विवाह संस्कार, देश, जाति, कुल, धर्म, उत्तराधिकार के नियम और सम्मिलित कुटुम्ब प्रथा आदि का समावेश होता है। सत्य कहा जाय तो ये विशेष प्रकार के सामाजिक नियम और रीति-रिवाज ही इस समय हिन्दू धर्म का मुख्य आधार माने जाते हैं। इनमें सबसे खास बात वर्ण व्यवस्था और जाति प्रथा है। पिछले दो हजार वर्षों से जाति भेद ही हिन्दू धर्म का सबसे बड़ा लक्षण बन गया है। जो मनुष्य इस खास तरह के जाति धर्म का पालन करता है तो वह ठीक हिन्दू समझा जाता है। इसमें विशेषता इतनी ही है कि समस्त सामाजिक और लौकिक रीति-रिवाजों का सम्बन्ध धर्म शास्त्रों के पारलौकिक जीवन से जोड़ दिया है हिन्दू धर्म के विभिन्न संप्रदायों के पारलौकिक और आध्यात्मिक सिद्धान्त एक दूसरे से अत्यन्त विरुद्ध दिखाई पड़ते हैं। प्राचीन और अर्वाचीन हिन्दू धर्म के संचालकों ने इस भेद भाव को मिटाने का बड़ा प्रयत्न किया है, पर वह मिटाने के बजाय नये-नये सम्प्रदायों और पंथों की उत्पत्ति का कारण बन रहा है। इसी कारण लोकमान्य तिलक ने हिन्दू धर्म का यह लक्षण किया है-

प्रामाण्य बुद्धिर्वेदेषु साधना नाम नेकता। उपास्या नाम नियमः एतर्द्धमस्य लक्षणम्॥

अर्थात् “वेदों का प्रमाण मानना साधनाओं की अनेकता और उपास्य-देवों का अनियम, यह धर्म के लक्षण हैं।”

इस लक्षण से यह बात तो स्पष्ट हो जाती है कि हिन्दु-धर्म की कोई विधायक (पॉजिटिव) व्यवस्थित, संगठित और सुसंगत, पारमार्थिक नींव नहीं है। यद्यपि तिलकजी ने यह कहा है कि वेद सारे हिन्दुओं का प्रमाण ग्रन्थ है, पर हिन्दु समाज में ऐसे लोगों की संख्या 100 में से 70 है, जिनको वेदाधिकार नहीं है और जिनके रीति-रिवाज वैदिक-धर्म पर आश्रित नहीं हैं। जिन लोगों को वेद सुनने तक का अधिकार नहीं, बल्कि सुनने से महापातकी और नर्क का अधिकारी बनना पड़ता है, उन लोगों की वेदों पर श्रद्धा है या वे वेद के अनुयायी हैं, यह कहना ही निरर्थक है। इसी प्रकार साधनाओं की अनेकता और किसी एक उपास्य का अभाव भी यही बतलाता है कि सारे हिन्दुओं का हिन्दु-धर्म कोई विशिष्ट सर्व-साधारण धर्म नहीं है। हिन्दुओं के धर्म अनेक हैं और उनमें एकसूत्रता नहीं पाई जाती।

हिन्दुओं की समाज-संस्था का अगर कोई विशिष्ट लक्षण बतलाया जा सकता है, तो वह यही है कि वे सब जाति-प्रथा को निश्चित रूप से मानते हैं। प्रार्थना-समाज, आर्य-समाज आदि आधुनिक संस्थाओं को छोड़ दिया जाय तो हिन्दुओं का पूरा समुदाय जाति-प्रथा को मानता है। आर्य-समाज और प्रार्थना-समाज में भी जाति को मानकर चलने वाले बहुत से लोग हैं। जैन-धर्म में जाति नहीं मानी गई है, तो भी जैन लोग जाति मानते हैं। हिन्दुस्तान के मुसलमानों और ईसाइयों तक में जाति मानने वालों की भारी संख्या है। हिन्दु-समाज के इस मुख्य लक्षण का असर उनमें भी बाकी रह गया है।

हिन्दु-धर्म का एक सामान्य लक्षण निश्चित करके उसका संकलित रूप निश्चित करना अत्यन्त कठिन है, क्योंकि हिन्दु-धर्म एक सीमाबद्ध, व्यवस्थित रूप की संस्था नहीं है, किन्तु वह विचित्रता और विरोध से युक्त और उलझन वाली रचना है। वह किसी सुनिश्चित पारलौकिक और आध्यात्मिक सिद्धान्तों पर निर्मित विशिष्ट प्रकार की वस्तु नहीं है, वरन् वह विविध आचार-विचारों का एक संग्रह है और उसमें अनेक परस्पर विरोधी आध्यात्मिक और पारलौकिक कल्पनायें भी मिला दी गई हैं। हिन्दु-धर्म सामाजिक रीति-रिवाजों से साँसारिक लाभ होना ही नहीं बतलाता, वरन् वह प्रत्येक सामाजिक संस्कार से पारलौकिक लाभ होने की भी घोषणा करता है। यह बात संसार के अन्य किसी धर्म या समाज में नहीं पाई जाती। जाति-प्रथा हिन्दु-समाज का मुख्य लक्षण है, पर उसके सम्बन्ध में भी पूर्ण निश्चय के साथ कोई बात कह सकना कठिन है। उदाहरण के लिये अधिकाँश जातियाँ ब्राह्मणों की श्रेष्ठता और उनका पुरोहिताई का अधिकार मानती है, जिनमें पुरोहित स्वजातीय अथवा ब्राह्मणेत्तर होते हैं। अब शूद्र जातियों में से तो अधिकाँश ब्राह्मणों की प्रधानता को अस्वीकार करती जा रही हैं। मुसलमानों और ईसाई धर्म से कोई संपर्क न होने पर भी बहुत से हिन्दु मुसलमानों के पीरों और ईसाइयों के देवताओं की उपासना भी करते हैं। इससे यह जान पड़ता है कि हिन्दु-समाज में देवता की उपासना का उतना अधिक महत्व नहीं है, जितना कि सामाजिक रीति-रिवाजों का। क्योंकि दूसरे के धर्म के देवता की उपासना करने के ऊपर किसी को बुरा-भला नहीं कहा जाता, न कोई दण्ड दिया जाता है, पर सामाजिक रीति-रिवाजों और रूढ़ियों को भंग करने से जाति-बहिष्कार का भयंकर अस्त्र तुरन्त काम में लाया जाता है।

धर्म-विकास के इतिहासों में धार्मिक कल्पनाओं के प्रायः तीन स्तर मिलते हैं और फिर प्रत्येक स्तर में उच्च-नीच उपभेद भी पाये जाते हैं। इन तानों को हम इस प्रकार कह सकते हैं :- (1) जादू, प्रकृति-पूजा, भूत-राक्षस पूजा या पितृ-पूजा, (2) मानव सदृश्य देव-समूह की पूजा और शक्ति पूजा, (3) एकेश्वरवाद, ब्रह्मवाद और तत्ववाद।

(अ) संसार की प्रायः सारी जंगली और सभ्यता में पिछड़ी हुई जातियों में जादू ही धर्म की तरह माना जाता है। जादू दो तरह का होता है, एक देवतावाद के पूर्व का और दूसरा देवता की मान्यता आरम्भ हो जाने के पश्चात् का। हिन्दु-धर्म के प्राचीन रूप में दोनों तरह के जादू का प्रमाण मिलता है। अथर्ववेद और गुह्य-सूत्रों में जादू को भी स्थान दिया गया है कुछ यज्ञ जादू के समान ही हैं और उनको क्रियाओं में प्राचीन जादू का कुछ अंश पाया जाता है। जादू का अर्थ है साधना। अपने किसी खास मनोरथ की पूर्ति के लिये अथवा आने वाली आपत्तियों के निवारण के लिये किसी खास पदार्थ, खास क्रिया या खास मन्त्रों का प्रयोग इस विश्वास से करना कि उनमें कोई खास प्रभाव समाया है, यही साधना का स्वरूप है और यही जादू है। (आ) प्राकृतिक वस्तु पूजा भी हिन्दु-धर्म में पर्याप्त मात्रा में पाई जाती है। गंडकी नदी के काले शालिग्राम, नर्मदा के ताम्र वर्ण गोल पत्थर, गंगा, जमुना, कृष्णा, गोदावरी आदि नदियाँ, पीपल, बड़, बेल, तुलसी, आँवला आदि वनस्पतियाँ, गाय, बन्दर, महिष, मछली, हाथी, नाग, गरुड़, मयूर, हंस आदि पशु-पक्षी, सूर्य, चन्द्रमा, मंगल आदि का आकाशस्थ पिण्ड, अग्नि, वायु, वर्षा आदि प्राकृतिक घटनायें आदि सभी का पूजा करने का विधान हिन्दु-धर्म में मौजूद है। नाग और गाय तो स्वतंत्र देव बने हुये हैं। सूर्य, चन्द्र आदि नवग्रहों की आराधना वर्तमान हिन्दु-धर्म में बड़े महत्व की बात मानी गई है। गाय, गोमूत्र, गोबर, गंगोदक, सुवर्णादि धातु, पीपल, तुलसी आदि के स्पर्श से पवित्रता प्राप्त होती है और शूद्र, अन्त्यज, रजस्वला, गधा, कौआ, प्याज, लहसुन, गाजर आदि के स्पर्श से अपवित्रता। इस प्रकार की बातों को धर्म का अंग मानना अति प्राचीन अवस्था के ही धर्म का अवशेष भाग है। इस श्रेणी की कुछ वस्तुयें ऐसी हैं जो पहले स्वतन्त्र रीति से पूज्य मानी जाती थीं, पर बाद में धर्म का विकास होने पर उनकी अन्य देवताओं के साथ जोड़ दिया गया। इसके उदाहरण हैं-गरुण, बैल, बन्दर। पहले ये सब यहाँ की भिन्न-भिन्न जातियों द्वारा पूजे जाते थे, पर बाद में गरुड़ को विष्णु तथा बैल को शिव का वाहन मानकर और बन्दर को राम का दूत समझ कर पूजा जाने लगा।

(इ) भूत-पूजा या पितृ-पूजा तीसरा धर्म है। संघ या फिर्के के बड़े-बूढ़े मनुष्यों के आधीन छोटों का जीवन निर्वाह होता है। जब ये बूढ़े मुखिया मृत्यु के मुंह में पड़ते हैं, तब संघ की बड़ी हानि होती है। इसे संघ का प्रत्येक मनुष्य बड़ी तीव्रता से अनुभव करता है और इस कारण वे उन मुखियों के हमेशा के लिये सम्पूर्ण नाश की कल्पना करना बहुत खराब समझते हैं। इसलिये स्वप्न में एकान्त में उनके अस्तित्व का भास होता रहता है। संघ पर किसी प्रकार का संकट आने पर ऐसा मालूम होने लगता है कि यह बाधा उक्त बड़े-बूढ़े की असन्तुष्ट वासना ने उत्पन्न की है। तब उन पितरों की वासना तृप्त करने या पूजा करने की इच्छा जीवित रहने वाले लोगों को होती है। अनेक सम्प्रदायों का यह भी विश्वास है कि मनुष्य देह में एक सूक्ष्म देह वाला चेतन पुरुष भी रहता है, जो भौतिक देह का नाश हो जाने पर भी बना रहता है। इसी विचार के आधार पर भूत, प्रेत, पिशाच, बेताल की कल्पनायें की गई हैं। देवता और पुनर्जन्म की कल्पना भी इसी ‘मूर्त-पुरुषवाद’ से उत्पन्न हुई है। पहाड़, नदी, वृक्ष, भूमि, क्षेत्र, गृह आदि में भी एक-एक देवता है, यह कल्पना भी मूर्त-पुरुषवाद का ही एक अंग है। इसी विचार के आधार पर हिन्दु-धर्म में श्राद्ध का बड़ा महत्व है। नित्य तर्पण, दर्श-श्राद्ध, महालय, अन्त्येष्टि, एकोद्दिष्ट, मासिक श्राद्ध, वार्षिक श्राद्ध, तीर्थ श्राद्ध आदि अनेक प्रकार के श्राद्ध बतलाये गये हैं।

इससे आगे चलकर हिन्दू धर्म में जिन स्वर्गस्थ देवताओं की कल्पना की गई है, उनमें अनेक बहुत ऊँचे दर्जे के हैं। वे मूल्य प्राकृतिक शक्तियों के प्रति निधि हैं जैसे इंद्र, सविता, वरुण। दूसरे देवता राम, कृष्ण, हनुमान, शिव, गणपति आदि हैं जिनमें सभी प्रकार के मानव गुण पराकाष्ठा को पहुँचते हैं। देवताओं में ऐसी मनुष्यता या सूक्ष्मता का आरोप करने वाला हिन्दू धर्म श्रुति, स्मृति, पुराणों में मुख्यतः वर्णित है। इन देवताओं में एक या अनेकों की उपासना और भक्ति करने वाले सम्प्रदाय प्राचीनकाल में ही उन्नत दशा को पहुँच चुके थे। उसके साथ-साथ ही गन्ध, माला, वेश आदि खास तरह के सम्प्रदाय व्यवहार के नियम भी अस्तित्व में आये।

(3) हिन्दू-धर्म का सबसे ऊँचा और श्रेष्ठ एक स्तर है। उसमें ब्रह्मवाद, एकेश्वरवाद, तत्ववाद का समावेश होता है। सब देवता एक ही सर्वव्यापी तत्व में समाये हुये हैं, अथवा सब देवता उसी एक तत्व के भाग हैं, पिण्ड और ब्रह्माण्ड एक ही सत-तत्व से उद्भूत होते हैं, इस विचार को ब्रह्मवाद कहते हैं। सर्व जगत् का संचालक और सर्व शक्तिमान अन्तरात्मा ही एक परमेश्वर है, बाकी सब उसके आधीन हैं, इस सिद्धान्त को एकेश्वरवाद कहते हैं। इससे भी आगे बढ़कर महर्षि कपिल आदि ने यहाँ तक माना है कि इस विश्व में तत्वों की ही प्रमुखता है और मनुष्य का आत्मा तत्वों का ज्ञान प्राप्त करके ही मुक्ति प्राप्त कर सकता है।

इस प्रकार हिन्दू-धर्म में जादू और भूत-पूजा से लेकर तत्ववाद तक का समावेश है और सबके अनुयायी अपने को हिन्दू ही कहते हैं। यह हिन्दू-धर्म की एक बड़ी विशेषता है। अनेक लोग इसी को उसकी दुर्बलता मानते हैं।


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