(श्री. सत्यभक्त, पूर्व सम्पादक चाँद व सतयुग)
किसी पिछले अंक में जनसंख्या की समस्या लेख में हम यह बतला चुके हैं कि प्राकृतिक नियम के अनुसार देश की जनसंख्या निरन्तर बढ़ती रहती है और उसके नियन्त्रण का यदि कोई उपाय न किया जाय तो उसका परिणाम समाज के लिए कष्टदायक होते हैं। अब प्रश्न यह है कि इस कार्य की पूर्ति किस उपाय से की जाय? इसके लिये एक यही उपाय दिखलाई पड़ता है कि सन्तानोत्पत्ति का परिमाण नियमित रहे। यह एक बड़ा ही पेचीदा विषय है। लोगों से इसके लिये कहना या कानूनी व्यवस्था करना उनके व्यक्तिगत जीवन में घोर हस्तक्षेप समझा जाता है। कुछ लोग इस विषय को ऐसा गुह्य और निजी मानते हैं कि इस पर कुछ भी चर्चा करना सभ्यता के विरुद्ध बतलाते हैं।
इस सम्बन्ध में पाठकों को कदाचित इतना मालूम होगा कि योरोप, अमरीका आदि में बहुत वर्षों से सन्तान निग्रह का आन्दोलन चल रहा है। बहुत से व्यक्तिगत सुविधाओं की दृष्टि से और बहुत से समाज कल्याण की दृष्टि से इस विषय में विचार विमर्श और प्रचार करते रहते हैं। हमारे देश की सरकार ने भी पिछले पाँच-सात वर्षों से इस विषय की आवश्यकता को अनुभव किया है और आजकल अधिकाँश सरकारी अस्पतालों में इस विषय पर सम्मति और आवश्यक सूचना देने की व्यवस्था की गई है।
इसमें सन्देह नहीं कि कुछ भी हो यह विषय विवादास्पद है और अभी तक इसके सम्बन्ध में हमारे देश में तो बहुत बड़ा मतभेद देखने में आता है। कुछ लोग तो इसे व्यक्तिगत कष्टों और राष्ट्रीय आपत्तियों के निवारण का एक आवश्यक उपाय मानते हैं। दूसरे लोग इसे अप्राकृतिक, जघन्य, अश्लील और समाज में भ्रष्टता निग्रह के पक्षपातियों की दलीलों को उपस्थित करते हैं।
1-अंतर्राष्ट्रीय विषयों के ज्ञाताओं का कथन है कि युद्धों का जनसंख्या की वृद्धि से घनिष्ठ सम्बंध है। इसका भय विशेष रूप से उन देशों में होता है, जो उद्योग धन्धों की दृष्टि से बढ़े हुये है और जिनमें राष्ट्रीयता का भाव विशेष रूप से होता है। जनसंख्या की वृद्धि से युद्ध की संभावना किस प्रकार उत्पन्न होती है, इसका प्रत्यक्ष उदाहरण जर्मनी है। सन् 1914 वाले योरोपियन महासमर के पूर्व जर्मनी की माताओं में यह भाव फैलाया गया था कि उनका कर्तव्य अधिक से अधिक लड़के उत्पन्न करना है, जो राष्ट्र के लिए सिपाही बनकर युद्ध कर सकें। इस मनोवृत्ति के कारण उस देश की जनसंख्या निरन्तर बढ़ती जाती थी और किसी को इस बात की चिन्ता न थी कि इतनी जनसंख्या को खिलाने-पिलाने के साधन देश में मौजूद हैं या नहीं। इसलिये अन्त में जर्मन शासकों के सम्मुख भयंकर आर्थिक कठिनाइयाँ उत्पन्न हो गई जिनका परिणाम युद्ध के रूप में प्रकट हुआ।
(2) समाज शास्त्र का अध्ययन करने वाले कहते हैं कि जिस समाज में सन्तानोत्पत्ति पर किसी प्रकार का प्राकृतिक बन्धन नहीं रखा जाता वह ज्यादा समय तक तरक्की की हालत में नहीं रह सकता और न उसमें स्थायी सुख शाँति की संभावना हो सकती है, क्योंकि जब सन्तान निग्रह के अभाव से जनसंख्या सीमा से अधिक बढ़ जायगी तो वहाँ बेकारी अवश्य फैलेगी और इससे समाज में तरह-तरह के नैतिक दोष उत्पन्न होंगे। दूसरी बात यह है कि ऐसे समाज में जब जीवन निर्वाह के उपयुक्त पदार्थों की कमी हो जायगी, तो उसमें क्षीणकाय, निर्बल मस्तिष्क वाले तथा अन्य प्रकार के दोषों और दुर्गुणों से युक्त व्यक्तियों की संख्या बढ़ने लगेगी और योग्य, शक्तिशाली और प्रतिभावान लोगों की कमी हो जायगी। इससे कुछ समय बाद समाज में अयोग्य और निकृष्ट श्रेणी के मनुष्यों की संख्या बढ़ जाती है और वह नीचे की तरफ गिरने लगता है।
(3) अधिक सन्तान होने से गरीब घरों की स्त्रियों को बहुत कष्ट उठाना पड़ता है। पाठक विचार करके देखें कि जो स्त्री प्रायः निर्बल और बीमार रहती है, पौष्टिक भोजन के अभाव से जिसकी देह में रक्त माँस की कमी रहती है, बार-बार सन्तानोत्पत्ति या अन्य मूर्खतापूर्ण कारणों से जिसकी जननेन्द्रिय विकृत हो गई है, जिसे गृहस्थी के पूरे काम के साथ दो-चार छोटे बच्चों का पालन करने के कारण कभी फुर्सत या मनोरंजन के लिए अवकाश नहीं मिलता ऐसी स्त्री को प्रति दूसरे वर्ष बच्चा पैदा होना कितना यंत्रणादायक होता होगा। ऐसे परिवारों में बच्चों के प्रति उपेक्षा या उदासीनता का व्यवहार होना भी स्वाभाविक है। उनमें से अनेक छोटी आयु में ही मर जाते हैं और जो बचते हैं, वे निकृष्ट वातावरण में पलकर नीचे श्रेणी के ही नागरिक बनते हैं।
जब हम सन्तान निग्रह के विरोधियों की दलीलों पर विचार करते है तो उनमें सबसे पहले उन लोगों का नम्बर आता है जो 1- सैनिकवाद में विश्वास रखते हैं और कहते हैं कि अगर किसी देश को दूसरे देशों के मुकाबले में खड़ा रहना है, तो उसके पास सैनिक बनने लायक लोगों की कमी न होनी चाहिये। 2- जिन देशों का क्षेत्रफल अधिक है और जनसंख्या अभी तक कम है, वे सन्तान निग्रह का विरोध इस आधार पर करते हैं कि अगर जनसंख्या न बढ़ेगी, तो देश का आर्थिक और औद्योगिक विकास किस तरह हो सकेगा। आस्ट्रेलिया और कनाडा ऐसे देशों के उदाहरण हैं। 3- जिन देशों में उद्योग धंधों के संचालकों (पूंजीवादियों) की प्रधानता है, वहाँ की सरकार चाहती है कि जनसंख्या इस प्रकार बढ़े कि जिससे कारखानों के लिए मजदूर बिना बाधा के मिलते रहे। इतना ही नहीं, मजदूरों की संख्या इतनी बढ़ी हुई रहे कि उनमें नौकरी पाने के लिये प्रतियोगिता बनी रहे जिससे थोड़ी मजदूरी पर काम कर सकें। 4-कितने ही चिकित्सक सन्तान निग्रह का विरोध इस कारण करते हैं कि इसके कृत्रिम उपायों से स्वास्थ्य को हानि पहुँचती है और तरह-तरह की जननेन्द्रिय सम्बन्धी बीमारियाँ फैलती हैं। 5-जो लोग प्राचीन रूढ़ियों के भक्त होते हैं, वे कहते हैं कि स्त्री पुरुषों के सम्बन्ध में इस प्रकार की चर्चा उठानी ही अश्लील, कुरुचिपूर्ण और घृणायुक्त है। इससे चरित्रहीनता की वृद्धि होती है। 6-कुछ लोग सन्तान निग्रह का विरोध धर्म के नाम पर करते हैं। जैसे जापानियों में पूर्वजों की पूजा धर्म का प्रधान अंग है और वे कहते हैं कि अगर हम काफी संतान पैदा न करेंगे तो वह पूजा कैसे कायम रहेगी। हमारे हिन्दू धर्म के अनुसार तो निस्सन्तान व्यक्ति की सद्गति ही नहीं हो सकती और उसके पूर्वज भी परलोक में बिना तर्पण आदि के घोर कष्ट सहन करते हैं।
इसमें सन्देह नहीं कि उपयुक्त दोनों पक्षों की दलीलों में कुछ सचाई अवश्य है। ठीक है कि अनेक स्त्रियों और पुरुषों में सन्तान निग्रह के कृत्रिम उपायों से विरक्ति का भाव उत्पन्न हो जाता है। यह भी संभव है कि इस प्रकार के भावों का प्रचार होने से कुछ लोगों को चरित्रहीनता के मार्ग पर चलने का प्रोत्साहन मिले। अब भी बड़े घरों की स्त्रियाँ सन्तान निग्रह करती हैं वे इस विचार से नहीं करती कि इससे समाज का कल्याण होगा, वरन् उनका उद्देश्य यह होता है कि सन्तानोत्पत्ति न होने से उनका शरीर सुगठित बना रहेगा और बच्चों की देखभाल के झंझट से बचकर वे अपना सब समय आमोद-प्रमोद में लगा सकेगी।
यह सब होने पर भी हम वस्तु स्थिति की तरफ से आंखें बन्द नहीं कर सकते। खासकर हमारे देश की जनसंख्या जरूरत से ज्यादा बढ़ गई है और उसके कारण लोगों का रहन-सहन गिरता जाता है तथा अनेक प्रकार के नैतिक दोष उत्पन्न होते हैं। मूर्ख लोग इसके विरुद्ध ऊँट-पटाँग दलीलें दे सकते हैं, पर जिनके सिर में आंखें और दिमाग में बुद्धि है, वे इस तथ्य से कभी इनकार नहीं कर सकते। हम यह भी स्वीकार करते हैं कि सन्तान निग्रह के कृत्रिम साधन अनेक अंशों में हानिकारक हैं, इसलिये उनका प्रयोग जहाँ तक संभव हो कम से कम किया जाना चाहिये और इस विषय में संयम तथा इन्द्रिय निग्रह को ही प्रधानता देनी चाहिये। पर कुछ भी हो इस संकट की तरफ से देश और समाज के हितैषियों को अपनी आंखें कदापि बन्द न करनी चाहिये और इसके लिये जो भी उपाय संभव तथा परिस्थिति के अनुकूल सिद्ध हों उनका सरकार और जनता दोनों को अवलम्बन करना चाहिये।