(श्री. सूर्यभानुजी गुप्ता, बी. ए.)
कर्म सिद्धान्त हिन्दू धर्म की एक बहुत बड़ी विशेषता है। अन्य देशों के धर्म प्रचारकों और विद्वानों ने अच्छे और बुरे कर्मों के नैतिक महत्व पर तो विचार किया है, पर परलोक अथवा दूसरे जीवन में उनका क्या प्रभाव पड़ता है, इसका जिक्र किसी ने नहीं किया। सच पूछा जाय तो हिन्दू धर्म के सिवा पारलौकिक जीवन को किसी अन्य धर्म ने समझा ही नहीं। ईसाई, मुसलमान, यहूदी आदि धर्मों में मृत्यु के पश्चात जीवन की गति के सम्बन्ध में जो कुछ कहा गया है। वह बिलकुल अपर्याप्त और नाममात्र का वर्णन है। वे केवल इतना ही कहते हैं कि मरने के बाद प्रत्येक मनुष्य की जीवात्मा एक बन्द जगह में आबद्ध कर दी जाती है। अन्त में प्रलय के समय उन सब आत्माओं को पुनर्जीवित करके उनके भले-बुरे कामों का उचित फल दे दिया जायगा। उसके बाद सदैव के लिए पुण्यात्मा स्वर्ग में सुख भोगते रहेंगे और पापात्मा नर्क में दुख उठाया करेंगे। यदि विचार किया जाय तो वह यह वर्णन अनजानपन प्रकट करने के सिवाय कुछ भी महत्व नहीं रखता।
इसके विपरित हिन्दू शास्त्रों में कर्म सिद्धान्त का बड़ा विस्तृत विवेचन किया जाता है और पुण्य और पाप की सूक्ष्म गतियाँ को इतने विस्तार से समझाया गया है कि उसको हजार पृष्ठों के एक पोथे में भी वर्णन कर सकना कठिन है।
इस कर्म व्यवस्था के अनुसार मनुष्य का जीवन इतना ही नहीं माना जाता जितना कि इस पृथ्वी पर जन्म से मृत्यु तक दिखलाई पड़ता है। हिन्दू शास्त्रों के अनुसार यह जीवन तो बहुत ही छोटा और महत्वहीन है। वास्तविक जीवन तो मृत्यु के बाद परलोक में ही आरम्भ होता है। इस सम्बन्ध में एक अनुभवी महात्मा का कथन है-
वेदान्ती दो प्रकार का जीवन मानते हैं। एक लौकिक और दूसरा पारलौकिक। इसमें किंचित भी संशय नहीं कि पारलौकिक जीवन ही सत्य है। सत्य इसलिए कि लौकिक जीवन तो सदैव बदलता रहता है और उसकी अवधि भी बहुत अल्प है और यह हमारी इन्द्रियों के बुने इन्द्रजाल के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। उच्च लोगों का जीवन ही सत्य मानना चाहिए, क्योंकि इन्हीं लोगों में हमारा अविच्छिन्न, निर्विकार अमर सूत्रात्मा निवास करता है। इसी वास्ते मृत्यु के पीछे की अवस्था को सत्य और लौकिक जीवन और उसके अहम्भाव को असत्य माना जाता है।
इस सिद्धान्त के अनुसार मनुष्य का जीवन चार अवस्थाओं में बँटा है- (1) स्थूल मण्डल अर्थात् दृश्य जगत का जीवन, जो मनुष्य को स्थूल देह द्वारा प्राप्त होता है। (2) जगत् मण्डल अर्थात् सूक्ष्म जगत का जीवन, जो मनुष्य को स्थूल देह त्यागने के पश्चात सूक्ष्म शरीर में प्रवेश करने पर प्राप्त होता है। (3) स्वर्गलोक का जीवन, जो मनुष्य को सूक्ष्म शरीर के त्यागने के पश्चात् कारण शरीर को धारण करने पर प्राप्त होता है। (4) जीवन की वह अवस्था, जो जीवात्मा को स्वर्ग से निकलने के पीछे और भूमण्डल में पुनर्जन्म लेने के पहले भोगनी पड़ती है। प्रत्येक मनुष्य को अपना काल चक्र पूरा करने के लिए इन चारों अवस्थाओं में अवश्य गमन करना पड़ता है। वर्तमान जगत का कोई सामान्य मनुष्य चाहे कितना भी ज्ञान प्राप्त कर ले और उन्नति कर ले, पर इन चारों अवस्थाओं से तब तक बच सकना असम्भव है जब तक वह आध्यात्मिक उन्नति करके एक विशेष पदवी तक नहीं पहुंच जाता। इस बात को भी भली प्रकार जान लेना आवश्यक है कि स्थूल देह को त्यागने के अनन्तर शेष तीनों अवस्थाओं में रहने का समय स्थूल देह के जीवन काल की अपेक्षा बहुत ही अधिक (हजारों या लाखों वर्ष) होता है। इसीलिए अगर हम मृत्यु के अनन्तर की अवस्थाओं में जीवन की गति और उसकी क्रिया को न विचारें तो कर्मों की गहन गति का ज्ञान बहुत ही अधूरा रहेगा।
इस संसार में रहते समय मनुष्य जो भी संकल्प और विचार करता है उनका एक मानसिक चित्र बन जाता है जो अपने उत्पत्ति कर्त्ता की चेतना का अंश बनकर सदैव उसका साथी बना रहता है। साथ ही वह सूक्ष्म प्रकृति अथवा आकाश में स्पन्द रूप सत्ता अर्थात् रूप देवता बन जाता है।
ये मानसिक चित्र दीर्घकाल तक प्रसुप्त अवस्था में भी रहते हैं और अपनी प्रबोधक सामग्री प्राप्त होने पर जागृत हो जाते हैं और निज कार्य करने लगते हैं। इन मानसिक चित्रों का प्रादुर्भाव प्रकृति के नियमानुसार होता है। इन्हीं के संग्रह से मनुष्य का स्वभाव बनता है। जिस प्रकार छोटे-छोटे रन्ध्र (सेल्स) इकट्ठे होकर देह के रग पट्ठे बनाते हैं और बनाते समय बहुत कुछ बदल जाते हैं, इसी प्रकार मानसिक चित्र भी एकत्र होकर मनुष्य स्वभावों को बनाते है और प्रायः इस क्रिया के समय ये भी बदल जाते हैं।
मानसिक चित्रों का स्पन्द (कम्पन) केवल गमन मण्डल के नीचे के भाग में ही गमन नहीं करता वरन् उनका भाव ऊँची लोकों में भी पहुँचता है और जिस प्रकार यह केवल घन प्रकृति में एक स्थूलाकार उत्पन्न करता है, उसी प्रकार उर्ध्व लोकों में आकाश के अन्दर एक ऐसा सूक्ष्म रूप सृजता करना है कि वह हमारी सूक्ष्म इन्द्रियों को भी दिखलाई नहीं पड़ता। आकाश सब चित्रों का भण्डार है, मानो वह सब संकल्पों का निवास स्थान है। ब्रह्माण्ड की रचना के सब संस्कार आकाश में सज्जित रहते हैं। यद्यपि वे अति सूक्ष्म होने के कारण हमारी इन्द्रियों को गोचर नहीं होते, परन्तु योगीजनों को वे ठीक उसी प्रकार देखने में आते हैं, जैसे कि स्थूल पदार्थ मनुष्य मात्र को देखने में आते हैं। ये आकाशिक चित्र कभी नष्ट नहीं होते और सदैव आकाश में गुप्त रीति से स्थित रहते हैं। इसी कारण इन चित्रों का नाम शास्त्रों में चित्रगुप्त कहा गया है। यही धर्मराज अथवा यम के लिपिकारों (मुंशी या क्लर्कों) का बही खाता है। धर्मराज के लिपिकार सब प्राणियों के कार्यों को आकाश रूपी बही में चित्र द्वारा लिखते हैं। जिन पुरुषों का दिव्य नेत्र खुल जाता है, वही इस बही खाते को भली प्रकार पढ़ सकते है। योगीजन संयम द्वारा आकाशिक चित्रों को दिव्य प्रकृति में प्रतिबिम्बित कर सकते हैं और इस उपाय से हमारी भूत भविष्य का हाल बता सकने में समर्थ होते हैं।
संसार के सब वृत्तान्त विस्तारपूर्वक आकाशिक बही खाते में अंकित रहते हैं। योगीजन जब चाहे इस खाते के पन्नों को खोल प्राचीन समय की रचनाओं को अपनी दृष्टि के सामने प्रत्यक्ष कर सकते हैं। ये चित्र दीवार के चित्रों की तरह चेष्टा शून्य नहीं होते, वरन् नाटक या सिनेमा के पात्रों की तरह चेष्टावान होते हैं। यह चेष्टा ठीक प्रकार की देखने में आती है, जैसी पूर्वकाल की घटना हुई थी।
इस संक्षिप्त विवरण से पाठक इस बात का कुछ अनुमान कर सकते हैं कि कर्म मनुष्य से किस तरह नवीन कार्य कराता है। मानसिक चित्र हमारे मन से उत्पन्न होकर उसमें स्थिर रहता है और साथ ही आकाश में भ्रमण करता हुआ अनन्त परिणामों को रचता है। ये सब परिणाम उस मानसिक चित्र के लक्षणों से युक्त होते हैं और इसीलिए यह जाना जा सकता है कि कौन सा परिणाम कौन से दिव्य मानसिक चित्र से उत्पन्न हुआ है और दिव्य मानसिक चित्र, जो हमारे मन में स्थित होता है, ढूँढ़कर निकाला जा सकता है। जिस प्रकार मकड़ी अपना जाला अपनी प्रकृति से ही बनाती है, उसी प्रकार हमारे संकल्प भी इन परिणामों को अपनी ही प्रकृति से निर्माण करते हैं। इसीलिए परिणामों के रंगों का सूक्ष्म भेद देखकर उसका संकल्प रूप पहचाना जा सकता है। ऐसी दशा में हम अपनी क्षुद्र सांसारिक बुद्धि द्वारा इस बात का कुछ अनुमान कर सकते है कि यमराज के दूतों को कैसे प्रत्येक मनुष्य के भिन्न-भिन्न कर्मों का पता किंचितमात्र दृष्टि देने से लग जाता है। उनके प्रत्येक मनुष्य के ऊपर उसके उत्पन्न किए हुए मानसिक चित्रों का पूर्ण भार और उनसे उत्पन्न होने वाले परिणामों का भार तत्काल विदित हो जाता है। यही कारण है कि दैवी न्यायालय में कर्मफल के निर्णय में संकल्प और विचारों को ही प्रधान माना जाता है और उनसे उत्पन्न बाहरी क्रियाओं को अप्रधान समझा जाता है। यह बात हमारे साँसारिक न्यायालयों से बिलकुल उल्टी है जहाँ बाहरी क्रिया या प्रत्यक्ष दुष्कर्म का ही दण्ड दिया जाता है और संकल्प अथवा भीतरी इरादे को बहुत कम महत्व दिया जाता है। संसार में किसी को जन्म से सुखी और किसी को दुखी, पापी को फलते-फलते और धर्मी को निरपराध दण्ड पाते देखकर प्रायः मन में ईश्वर के न्यायकारी होने में सन्देह उठा करता है। यदि कर्म व्यवस्था को उक्त रीति से अच्छी तरह समझ लिया जावे तो यह सन्देह निवृत्त हो जाता है। कौन जानता है कि अमुक पापी अथवा धार्मिक व्यक्ति ने कैसे-कैसे कर्म पूर्व जन्मों में किये हुए हैं और इस जन्म में भी किस प्रकार के कर्म काया, वाणी और मन द्वारा किये हैं। हम तो केवल मनुष्य के थोड़े से कायिक और वाचिक कर्मों को देखकर ही अपनी सम्मति दे दिया करते हैं।