वर्तमान ही सब कुछ नहीं है।

February 1955

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(श्री अमर चन्द, नाहटा)

काल का प्रहार अनन्त है। उसका न ओर है न छोर। काल कभी नहीं था, यह कल्पना ही नहीं की जा सकती और न यह कल्पना ही की जा सकती है कि कभी रहेगा ही नहीं, समाप्त हो जायगा। वर्तमान भूत के गर्भ में विलीन हो रहा है तो भविष्य वर्तमान में आ आकार समा रहा है। यह अरघट माला निरन्तर चल रही है। भूत भविष्यत् व वर्तमान तीनों का अटूट सम्बन्ध है। गहरी विचारणा के अभाव में हम अनेक बार भूत भविष्यत् की उपेक्षा कर वर्तमान को ही सब कुछ मान लेते हैं और तदनुसार आगे पीछे की ओर आँखें मूँद मनमानी प्रवृत्ति करने लगते हैं पर जिस प्रकार बालक आँख मिचौनी के खेल में भले ही अपने को छिपा हुआ मान ले पर आँख पर के दिये हुए हाथ के दूर होते ही छिपा हुआ प्रकट हो जाता है। उसी प्रकार वर्तमान को ही सब कुछ मानकर यथेच्छा प्रवृत्ति करने पर भी भूत भविष्यत् के परिणामों से हम बच नहीं सकते यह निर्विवाद है।

कृतं कर्म क्षयो नास्ति, बलम् कोटि शतैरपि।

विचार करके देखा जाय तो वर्तमान भूत पर आधारित है और भविष्यत् वर्तमान पर। हमने पहले जो कुछ अच्छा बुरा किया उसका परिणाम वर्तमान में अनुभव कर रहे हैं और वर्तमान में जो कुछ कर रहे हैं उसका परिणाम भविष्य में प्राप्त होगा। अच्छे या बुरे किये गये कर्मों का फल तो अवश्य मिलेगा ही, क्रिया निष्फल तो जाती नहीं। यदि भावी परिणाम नहीं सोचें तो वर्तमान तो एक क्षण मात्र ही है। परवर्ती क्षण ही तो भविष्यत् है जो क्षणान्तर में वर्तमान होने वाला है और वर्तमान का क्षण भूत हो जाने वाला है अतः उन दोनों से उदासीन रहा नहीं जा सकता। जैसा भी हम बनना चाहते हैं उसके योग्य प्रवृत्ति इस समय करनी होगी और वर्तमान में जो कुछ कर रहे हैं क्योंकि कार्य के निष्पन्न होने में बहुत सा समय लगता है। अनेक वर्तमान समयों में जो काम करते हैं उसका परिणाम तो भविष्य में ही मिलेगा न। इस तरह समय जो कुछ कर रहे हैं वह तो परवर्ती समय में ही भूतकाल में विलीन हो जायगा और उन भूत कालीन प्रवृत्तियों का फल ही भविष्य में मिलने वाला है।

समय बहुत ही सूक्ष्म है उसकी बात छोड़ भी दें और एक जीवन को ही लें तो उसके लिए भी वही बात लागू होती है। वर्तमान जीवन के निर्माण में बहुत कुछ भूतकालीन कार्यों का− कर्मों का हाथ रहा है और इस जीवन के कर्मों का फल अगले जन्म में मिलने वाला है। इसलिए “यावत जीवेत् सुखी जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत्” यह चर्वाक का सिद्धान्त ठीक नहीं है। साधारणजन जो यह कहा करते हैं—“इह भव मीठा तो परभव केणे दीठा”।

अभी तो मौज मजा कर लो परभव किसने देखा है? पर जब इस जन्म में हम पूर्वकालीन प्रवृत्तियों का परिणाम परवर्ती काल में देखते हैं तो इस जन्म के कार्यों का परिणाम अगले जन्म में नहीं मिलेगा यह कल्पना ही नहीं की जा सकती। जो आत्मा को नित्य मानने वाले हैं उनके लिए तो भावी परिणामों पर विचार करते हुए ही वर्तमान में प्रवृत्ति करना होगा। भविष्य उज्ज्वल चाहते हों तो तद्नुरूप ही वर्तमान में चलना होगा। अभी जो चोरी चारी करता है, उसे क्षणिक सुख मिलता है पर उसका परिणाम जब भी मिलेगा दुखद ही होगा। इस एक जीवन में ही अच्छे बुरे कितने काम करते हैं किसी का फल तत्काल किसी का कुछ देर से मिलता है।

भूत काल को चाहे हम प्रत्यक्ष नहीं देखते हों, पर उसका परिणाम तो वर्तमान में अनुभव कर ही रहे हैं। कई बातें जो हम इस जीवन में अनुभव करते हैं उनका वर्तमान से सम्बन्ध प्रतीत नहीं होता। अचानक अनहोनी घटनाएँ घटित हो जाती हैं। उसका कारण भूतकालीन कर्म ही मानने पड़ते हैं। वैसे थोड़े समय पहले के कार्यों का फल तो वर्तमान में अनुभव करते ही हैं वे भूतकालीन ही हैं। अन्तर इतना ही है एक दीर्घकालीन भूत है दूसरा निकट कालीन। निकट कालीन की स्मृति बनी रहती है, दीर्घकालीन की विस्मृति होने से उसका सीधा सम्बन्ध हम जोड़ नहीं पाते।

लिखने का निष्कर्ष यही है कि हमारी प्रत्येक प्रवृत्ति विचार पूर्ण हो जिससे भविष्य उज्ज्वल हो। वर्तमान में ऐसी प्रवृत्ति नहीं करें जिससे भविष्य बिगड़े, दुःख भोगना पड़े। भविष्य को दूर न समझें वह तो सामने ही खड़ा है। किसी कर्म का थोड़ा जल्दी किसी का कुछ देर से पर उसका फल तो भोगना ही होगा। यह भूलिए नहीं। हाँ भविष्य वर्तमान पर आधारित है अतः वर्तमान में खूब सम्भल के चलें।

मनीषियों ने मानव को चिन्ता से मुक्त करने के लिए यह जरूर कहा है कि गई बातों को न सोचो क्योंकि वे तो जैसी भी होनी थी हो चुकीं अब चिन्ता से लाभ नहीं और भविष्य में क्या होगा इसकी चिन्ता न करो, क्योंकि वर्तमान में शुभ प्रवृत्तियाँ कर रहे हो तो भविष्य अच्छा निश्चित है। अतः भूत भविष्य की चिन्ता में न पड़ वर्तमान को ही अच्छे रूप में बितावें। पर उसका यह आशय कदापि नहीं कि मनमानी प्रवृत्ति कर चित्त बिगड़े। वर्तमान की अशुभ प्रवृत्तियों के प्रति उपेक्षा न करिये यह अवश्य मिलने वाला है, करना सीखो।


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