मानव (Kavita)

February 1955

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जीवन की घड़ियाँ अनमोल ये, व्यर्थ में क्योंकर खो रहा मानव, धर्म के भार से भाग रहा,

अध−भार को शीश पै ढो रहा मानव। जागने की जब बेला हुई, तब मृत्यु की नींद में सो रहा मानव,

दानव क्योंकर हो रहा मानव, क्यों विष बीज को बो रहा मानव॥

है इस बात को जान चुका, धन धाम न साथ में जायें तेरे, तू जिन पै सर्वस्व लुटाय रहा,

वे भी काम न आयें तेरे। क्यों प्रभु को अपनाता नहीं, वह ही अधपुंज मिटायें तेरे, पाके उन्हें सुख पायेगा तू,

तब देवता भी गुण गायें तेरे॥ प्रिय एक इसी सुखही के लिए, निज जान की बाजी लगानी पड़ेगी।

मन इन्द्रियों की शठता से सदा, करनी अपनी निगरानी पड़ेगी॥

पथ छोड़ स्वतन्त्र हो भागने से, कड़ी ठोकर कालकी खानी पड़ेगी, रहने के लिये फिर से तुझको,

दुनिया ही नवीन बसानी पड़ेगी॥ सुख चाहता है यदि मानव तू, विषयों से तुझे मुँह मोड़ना होगा,

जो फल चाहता प्रेम का तो, बँधे स्वार्थ का बन्धन तोड़ना होगा॥

त्याग की ठोकरों से जग के, सुख वैभव का घट फोड़ना होगा, छोड़ना होगा सभी कुछ ईशसे, नाता स्नेह का जोड़ना होगा।


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