(श्री वीरेन्द्रसिंह वर्मा, बी.ए. खातौली)
ज्ञानवृद्धि और आत्मोत्कर्ष के लिए अच्छे साहित्य का अध्ययन करना आवश्यक है पर उनका केवल पढ़ना मात्र काफी नहीं है उस पर मनन तथा विचार भी होना चाहिये। विचार में बड़ी शक्ति है। सद्विचारों का प्रभाव तो मन में सदा ही चलता रहना चाहिए। विचार जब परिपक्व होकर परिपक्वावस्था पर पहुँच जायेगा तभी तो वह आचरण का रूप धारण करेगा। कहा गया है:—
यन्मनसाध्यायति तद्वाचा वदति। यद्वाचा वदति तत्कर्मणा करोति। यत्कर्मणा करोति तद्ऽभिसम्पद्यते।
जैसा यह मनुष्य मन से चिन्तन करता है वैसी ही वाणी बोलता है। जैसी वाणी बोलता है वैसा ही कर्म करता है तथा जैसा कर्म करता है अन्त में वैसा ही फल प्राप्त करता है।
क्या कारण है कि हमारी शक्तियों पर प्रतिबन्ध लगा हुआ है? तनिक विचार कर देखा जाये तो मालूम होगा कि हम ही हैं जिनने अपनी अनन्त शक्तियों को सीमित कर रक्खा है। वास्तव में हमने बुरे विचारों द्वारा अपनी महान शक्तियों का नाश कर दिया है। वास्तव में हम स्वयं अपने वातावरण के निर्माता हैं। प्रत्येक विचार का विश्लेषण करके देखा जाये तो हमें मालूम पड़ेगा कि उसमें गहरी रचनात्मक तथा विनाशात्मक शक्तियाँ मौजूद हैं। यदि तुम दूसरे को दुःखी देखना चाहते हो तो तुम्हारे चिन्तन−मात्र से दुःख पहले तुम्हें ही आकर प्राप्त होगा।
जो मनुष्य जैसा विचार करता है वह ठीक वैसा ही बन जाता है। जिन जिन वस्तुओं का विचार तथा चिन्तन किया जावेगा वे वस्तुएँ निश्चित रूप से हमारे समीप चली आयेंगी। अतः जिसे हम प्राप्त करना चाहते हैं सदा उसी का विचार करें। इन्हीं विचारों में निर्मलता लाने के लिए दो महान गुणों की प्रशंसा हमारे शास्त्रों में भरी पड़ी है। वे हैं दया तथा क्षमा। दया के विचारों से निर्मलता आती है तथा क्षमा से निर्मलता को स्थिरता प्राप्त होती है। बिना दया तथा क्षमा का भाव रक्खे किसी को कभी शान्ति प्राप्त नहीं हो सकती।
सद्विचार तथा सद्भाव ही हमारी सम्पत्ति हैं। जिस दिन तुम्हें विचारों की शक्ति का ठीक ठीक ज्ञान हो जावेगा उसी दिन अनेक शंकाएँ तथा समस्याएँ स्वतः हल हो जावेंगी। अच्छे कार्य करने से भी अच्छे विचारों की संस्कारवर्धक शक्ति अधिक तीव्र होती है। जैसी बातें मनुष्य विचारेगा कुछ समय के पश्चात् वह स्वयं देखेगा कि उसके विचारों के अनुकूल ही उसका वातावरण बनता जा रहा है। जिन जिन परिस्थितियों व वस्तुओं का उसने चिन्तन किया है वे उसके अधिकाधिक समीप आ पहुँचती हैं। मनुष्य अपने विचारों से ही उच्च तथा नीच बनता है। वैसे स्थूल शरीर तो सबका लगभग एक-सा होता ही है। महान पुरुषों की महानता का एक यही कारण है कि वे कठिन से कठिन परिस्थितियों में अपने सद्विचारों का क्षण मात्र के लिए भी परित्याग नहीं करते।
विचार ही कार्य की प्रेरक शक्ति है। मनुष्य जैसा बनना चाहता है वह वैसे विचार करना प्रारम्भ करे। धीरे धीरे वह देखेगा कि उसके विचार ही कार्य रूप धारण करते हुए जा रहे हैं। अध्यात्म शास्त्र तो यह बतलाता ही है कि सूक्ष्म से ही स्थूल बनता है। प्रारम्भ में जो वस्तु सूक्ष्म थी वही आज स्थूल रूप धारण करके स्थूल बनी हुई है। सारा चराचर जगत इसी विचार की शक्ति के आधार पर चल रहा है। घड़े का निर्माण करने से पूर्व उस कुम्हार के मानस−पटल में घड़े का पूरा पूरा स्वरूप आ जाता है। जब उसका विचार दृढ़ हो जाता है तभी वह घड़ा सूक्ष्म से स्थूल रूप धारण करके संसार के समक्ष आ जाता है।
संसार के महान पुरुषों ने अपने अपने जीवन में जिन जिन महान कार्यों को सम्पादन किया है। वे पहले स्वप्न के रूप में ही उनके ध्यान में आये थे। धीरे धीरे वह साधारण सा विचार संकल्प का रूप धारण करता गया तथा एक दिन स्थूल होकर उसने संसार को आश्चर्य में डाल दिया। जिसका जैसा भाव होगा पर संसार उसी भाव के अनुरूप ही उसे दिखलाई देगा। एक अन्त की अमूल्य वाणी मुझे इस समय याद आ रही है।
आपने भाव तें भूलि परयो भ्रम देहस्वरूप भयो अभिमानी। अपने भाव ते चंचलता अति, आपने भाव तें बुद्धि बिरानी। आपने भाव तें आप बिसारत, आपने भाव तें आतम ज्ञानी। “सुन्दर” जैसो ही भाव है आपनो, तैसो ही होइ गयो यह प्राणी।
विचार तथा कर्म का एक दूसरे से घनिष्ठ सम्बन्ध है। जहाँ विचार काम करेगा वहाँ वह बलात् शरीर को भी अवश्य ले आवेगा। अतः विचारों पर संयम रखने का अर्थ है पूर्ण रूप से नियमित आचरण। केवल इन्द्रियों पर संयम करना ही काफी नहीं है। संयमी वह है जो विचारों पर संयम करना जानता है। विचार शक्ति का महत्व समझ लेना और उस शान्ति का समुचित सदुपयोग करने के लिए प्रयत्नशील रहना यही तो मनुष्य जीवन की सफलता का रहस्य है।