सत्य ही भगवान है।

February 1955

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(श्री लीला देवी, प्रयाग)

किसी भी पदार्थ के मूल का ज्ञान प्राप्त कर लेना अथवा वास्तविकता को जान लेना ही सत्य है। सत्य अखण्ड और अभेद है। प्रत्येक देश में, जाति में, समाज में सत्य अपने अखण्ड रूप में विद्यमान है। हाँ, मनुष्य की गलत धारणाओं से अवश्य उसमें अन्तर आ जाता है तथा सत्य के अनेक टुकड़े हो जाते हैं। धर्म का स्याद्वाद इसी रहस्य को हमारे सामने रखता है।

वर्तमान युग के धर्मोपदेशकों ने सत्य का मूल साम्प्रदायिकता ही आँका है और इसी के सहारे वे मानव को ऐक्य से वञ्चित रखना चाहते हैं। इसी साम्प्रदायिकता की वजह से हम सत्य के वास्तविक रूप को नहीं समझ रहे हैं। फलतः देशों, जातियों और धर्मों में संघर्ष चल रहा है, एक दूसरे के विरोधी बनते जा रहे हैं। इतने पर भी हम इसी खण्ड सत्य का सत्य का अखण्ड रूप समझते हैं। आज के हिन्दू मुस्लिम संघर्ष और प्राचीन काल के जैन बौद्ध वैदिक संघर्ष इसी के दुष्परिणाम हैं। जब तक नेता और विद्वान व्यक्ति इस मनोवृत्ति रूप का परित्याग नहीं करेंगे तब तक वे सत्य के वास्तविक रूप को नहीं पहचानेंगे तथा समाज राजनीति धर्म आदि किसी में भी ऐक्य की स्थापना नहीं हो सकती।

अब हमें यह देखना है कि हम उस नित्य अखण्ड अनादि सत्य का दर्शन किस भाँति करें। सत्य का दर्शन करने के लिए हमें राग द्वेष इत्यादि का त्याग करना पड़ेगा और मध्यस्थ भाव की स्थापना करनी पड़ेगी। यदि राग द्वेष का त्याग किये बिना ही सडडडड डडडड डडडड करना चाहेंगे तो केवल डडडड डडडड डडडडलोकन कर सकेंगे, केवल डडडड डडडड डडडड कुछ मेरा है वही डडडड डडडड डडडड डडडड इस तरह हम यह नहीं डडडड डडडड डडडड डडडड अपने दृष्टिकोण से डडडड डडडड डडडड डडडड के दृष्टिकोण से सत्य है और यदि वास्तव में देखा जाय तो असत्य कुछ नहीं है केवल हम अपने स्वार्थ वश अपने से परे वस्तु को असत्य समझ लेते हैं। अतः किसी भी धार्मिक परम्पराओं, रीति रिवाजों आदि का अध्ययन करने के लिये अपनेपन का राग और परायेपन का द्वेष त्यागना आवश्यक है। हमें यथार्थ दृष्टि से ही उसका अध्ययन करना चाहिए। तभी हम अनेकता में, खण्डता में उस एक और अखण्ड सत्य का दर्शन कर सकते हैं।

विशुद्ध और उदार दृष्टि से देखने पर हमें मालूम होगा कि सभी साम्प्रदायिक सत्यों का मूल एक ही है। उसके आकार प्रकार में भले ही भिन्नता जान पड़े परन्तु वास्तविकता में कोई अन्तर नहीं है। इसलिए हमारा लक्ष्य वह बाहरी आकार प्रकार नहीं वरन् भीतरी वास्तविकता होनी चाहिए और जब हम सत्य के मूल का समझ लेंगे तो मेरा सो सच्चा की भावना नष्ट हो जायगी। उस समय हम इस सिद्धान्त पर पहुँच सकेंगे कि जो कुछ सत्य है वही मेरा है। इसी के द्वारा युगों से चली आने वाली धार्मिक असहिष्णुता, अनुदारता, संकीर्णता दूर होगी।

सत्य के मूल को समझ कर उसकी उपासना करने वाले व्यक्ति किसी भी धर्म या सिद्धान्त का खण्डन न करके उनके विभिन्न दृष्टिकोणों में समन्वय उत्पन्न करते हैं। वे सभी धर्मों में सत्य का एक ही रूप पाते हैं।

मानव जाति अनेक प्रकार के अत्याचार, दम्भ, छल, द्वेष, घृणा, वैर आदि से परिपूर्ण है। इसका कारण मन, वाणी और शरीर की एकता न होना है। चूँकि एकता न होने के कारण मनुष्य मन से कुछ सोचता है वाणी से कुछ कहता है और शरीर से कुछ करता है। यह कैसी विचित्र विडम्बना है। यह मनुष्य के पतन की पराकाष्ठा है। इसका उपाय केवल सत्य है। सत्य का अनुकरण करने से ही इनसे छुटकारा मिल सकता है। सत्य को अपनाने के पश्चात् हम जो कुछ मन में सोचेंगे उसे ही वाणी से कहेंगे तथा शरीर से करेंगे। इस प्रकार तीनों में एकता उत्पन्न हो जायगी। मन वाणी तथा शरीर की एकता के साथ मानव कर्त्तव्य ही सत्य है।

जैन धर्म के सुप्रसिद्ध आचार शास्त्र “प्रश्न व्याकरण” में भगवान महावीर का एक अमर वाक्य आता है “तं सच्चं खु भाखं” अर्थात् सत्य ही भगवान है, क्या ही सुन्दर भावना है। वास्तव में सत्य का स्थान इतना ही ऊँचा है। यदि मनुष्य सत्य को भगवान समझ कर उसकी आराधना करे तो संसार की कठिन से कठिन समस्याएँ सुलझ सकती हैं। देश कल्याण का मार्ग खोज सकता है। सत्य को भगवान समझ कर पूजना, मनुष्य को भगवान समझ कर पूजने से कहीं अधिक लाभदायक है।

अतएव इस युग में, जो कि मानव जाति के सर्व नाश का युग है, जिसमें कि मिथ्या आहार विहार, मिथ्या आचार विचार ने मानवता पर अमानवता का परदा डाल दिया है। सत्य की उपासना के द्वारा ही विश्व का, राष्ट्र का, धर्म का और मानव समाज का कल्याण हो सकता है इस संकट काल से सत्य ही हमारा पीछा छुड़ा सकता है।

अस्तु विश्व कल्याण की दृष्टि से समाज सुधारकों, धर्म उपदेशकों का कर्त्तव्य है कि वे अखण्ड और वास्तविक सत्य को कार्य रूप में अपनाकर जनसाधारण के समझ उपस्थित करें जिससे कि विभिन्न सम्प्रदायों, दृष्टिकोणों और धर्मों में समन्वय उत्पन्न हो तथा मानव एकता की ओर अग्रसित हों।


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