वस्तुओं का उपयोग कैसे करें?

February 1955

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(श्री अगरचन्दजी, नाहटा)

विश्व−अशान्ति के दो प्रधान कारण हैं—एक तो अभाव दूसरा तृष्णा। हमें अपने जीवनोपयोगी वस्तुओं के प्राप्त न होने या कम प्राप्त होने के कारण चित्त में अशान्ति का अनुभव होता है। विशेषकर जबकि दूसरों के पास उनकी आवश्यकता से अधिक विद्यमानता देखते हैं तो मन में एक संघर्ष−सा छिड़ जाता है कि हमें भी वैसे ही सुविधाएँ और वस्तुएँ मिलनी चाहिये और जहाँ तक उनका अभाव रहेगा अशान्ति मिट नहीं सकती। उसका सच्चा उपाय तो यही है कि हम अपनी आवश्यकताओं को यथासम्भव कम करें, उनकी पूर्ति स्वयं कर सकें वैसा श्रम करते रहें एवं जो साधन सामग्री प्राप्त हैं उनमें सन्तोष की भावना पनपायें। भारतीय प्राचीन संस्कृति इसी पर जोर देती आ रही है। पर मानव स्वभाव की कमजोरी समझें या संस्कार दोष, हमें प्राप्त वस्तुओं में सन्तोष नहीं होता है। अपितु हमारी तृष्णा बढ़ती ही रहती है। एक दूसरे के अनुकरण में भी हमारी आवश्यकताएँ बढ़ती चली जाती हैं। ऐसी परिस्थिति में शान्ति प्राप्त हो कैसे? यही विचारणीय एक समस्या है।

हमारे प्राचीन मनीषियों ने बहुत प्रकार से अशान्ति का विश्लेषण करके मानव को अंतर्मुखी बनने को आकर्षित किया है। उन्होंने देखा कि वस्तुएं सीमित हैं, तथा अपरिमित हैं एवं यह जीवन क्षणभंगुर है, थोड़े से समय में ही इस देह से नाता छूट जाने वाला है। हम जियेंगे तो पचास−साठ वर्ष और सोचते रहते हैं सैकड़ों वर्ष की बातें! हमारा मन अन्त समय तक संग्रह वृत्ति में ही लगा रहता है। जो भी यहाँ से भौतिक शरीर को छोड़कर जाते हैं। सब कुछ यहीं छोड़ जाते हैं। कोई शरीर एवं धनादि पदार्थ साथ नहीं ले जा सकता। तब इनकी इतनी तृष्णा, भ्रम का चक्कर ही प्रतीत होता है। इसीलिये मनीषियों ने भोग को छोड़कर त्याग को स्वीकार कर उसे ही शान्ति का मार्ग बतलाया।

विश्व के सारे पदार्थ परिवर्तनशील हैं। कोई भी पदार्थ सदा एक−सा नहीं रहता। इसीलिये हमें बोध ग्रहण करना चाहिये। हमारे विचारकों ने ऐसा ही किया था, जिसके सैकड़ों दृष्टान्त भारतीय साहित्य में भरे पड़े हैं। हम उस परम सत्य की उपेक्षा कर इधर−उधर, बाहर ही बाहर भूले भटक रहे हैं। इससे शान्ति मिलने की नहीं। यह सही है कि सभी व्यक्ति इस भावना वाले नहीं बन सकते, पर जितने अधिक परिमाण में हमारी आध्यात्मिक संस्कृति का प्रचार होगा शान्ति उतनी ही अधिक सुलभ होगी। तात्पर्य यह है कि शान्ति का सच्चा उपाय सन्तोष है वह जो नहीं रख सकते हैं उनके लिये उपाय है श्रम द्वारा अधिक उत्पादन एवं विद्यमान वस्तुओं का सदुपयोग करना सीखना।

बहुत से व्यक्तियों का कहना है कि वस्तु की कमी है तब संघर्ष कैसे रुक सकता है? पर वास्तव में वस्तुओं की कमी उतनी नहीं, हमने अभी वस्तुओं के उपयोग की कला सीखी नहीं इससे हमें ऐसा लगता है। हम प्रतिदिन देखते हैं घरों में या सड़कों पर कूड़े करकट का ढेर पड़ा रहता है। जीवन में उपयोगी कितनी वस्तुएँ निकम्मी समझकर रद्दी में डाल दी जाती हैं। दफ्तरों में न मालूम नित्य कितने ही कागज रद्दी की टोकरी में डाल दिये जाते हैं, जबकि उन्हीं को संग्रह कर उपयोग किया जाय तो बहुत काम में आ सकते हैं। उन्हें पंसारियों, हलवाइयों, खोमचेवालों आदि को बेचा जाय तो पैसे मिल सकते हैं। महात्मा गाँधी का इन छोटी−छोटी बातों पर बड़ा ध्यान था। जहाँ तक जिस वस्तु का उपयोग हो सकता है वे उसे व्यर्थ नहीं गँवाते थे। ये जो भी लिफाफे आते या जो कागज काम के लायक होते, उन्हें उलटकर लिफाफा बनाकर काम में लेते थे। पर हमें तो वस्तुओं को व्यर्थ बरबाद करने की आदत पड़ गयी है। अतः इस ओर हम तनिक भी ध्यान नहीं देते। कोई चीज हमारे काम की न हो, पर वह हमारे अन्य भाई के काम की हो सकती है तो हमें उसे दे देनी चाहिये, ताकि उसकी आवश्यकता की पूर्ति हो जाय। अपनी उपभोग्य वस्तुओं में से थोड़ी−थोड़ी बचत की जाय तो बहुत वस्तुएं बच जाएंगी।

घरों में देखते हैं, कोई कपड़ा थोड़ा−सा फट गया था मैला हो गया तो उसे व्यवहार में अनुपयुक्त समझ फाड़कर झाड़न आदि में उसको काम में लेकर फेंक देते हैं। यदि हम विवेक रखें जो काम किसी दूसरी साधारण वस्तु से हो जाय, उसके लिए वस्त्र को न गँवाकर उस वस्त्र को किसी गरीब भाई के उपयोग के लिए दिया जा सकता है। वह व्यक्ति उससे अपनी सर्दी−गर्मी और लज्जा का बचाव कर सुखी हो सकता है।

विद्यार्थी ज्यों−ज्यों आगे की कक्षा में जाता है पहिले की पाठ्यपुस्तकें बेकार हो जाती हैं और उन्हें योंही बरबाद किया जाता है। यदि उन्हें उस कक्षा के किसी गरीब विद्यार्थी को दे दिया जाय तो कितना सुन्दर हो। विदेशों में जहाँ अशुचि और कूड़े−करकट को भी खाद बनाने आदि के काम में ले लेते हैं। वहाँ हमारे यहाँ काम में आने योग्य वस्तु को भी व्यर्थ ही बरबाद करते रहते हैं। यह बहुत ही दुःख की बात है। वस्तुओं के उपयोग की कला सीखना आज भारतवासियों के लिए परमावश्यक है।

हमारे यहाँ गाय, भैंस आदि ढोर रहते हैं। उन्हें घास−फूस आदि डालने में असावधानी रखने से इधर−उधर कितना ही घास और दाना जमीन में पड़कर व्यर्थ जाता है। ढोर चरते समय दाना इधर−उधर फैला देते हैं। वह पैरों के नीचे या भीगे स्थानों में योंही नष्ट हो जाता है तथा गन्दगी और बीमारी फैलाता है जबकि ध्यान देकर उसे तत्काल ही उठा दिया जाय तो बेचारे कितने ही भूखे ढोरों का इससे पेट भर सकता है।

हम खाने बैठते हैं तो कोई वस्तु अधिक ले लेते हैं या भाती नहीं है तो योंही जूठन में छोड़ उसकी बरबादी करते हैं। यदि खाद्य−पदार्थ लेते समय ध्यान रक्खा जाय जिससे जूठन न निकले तो रोज कितना ही खाद्य−पदार्थ बचा सकते हैं और भूखों के पेट भर सकते हैं। इसी प्रकार जलादि का प्रयोग भी हम ठीक तरह से नहीं करते और कितना ही जल व्यर्थ इधर−उधर बरबाद होता रहता है, जिसे पौधों में डाला जाय तो सूखते हुए पौधे ताजे हरे हो सकते हैं। ऐसे अनेक दृष्टान्त दिये जा सकते हैं। वास्तव में हम रात−दिन ऐसी अनेक बातें देखते रहते हैं पर इन पर विचार नहीं करते। यदि कोई विचार करते भी हैं तो उसे कार्य रूप में परिणत नहीं करते।

प्राचीन समय की बात जाने दें तो भी कुछ समय पूर्व तक और किसी अंश में अब भी हमारे ग्रामों में निरुपयोगी मानी जाने वाली वस्तुओं का उपयोग होता नजर आता है। गाँव वाले फटे वस्त्रों के बिछौने बना लेते हैं। पुराने जमाने में रद्दी कागजों को कूट कर अनेक उपयोगी वस्तुएँ बना लेते थे। ऐसे कूटे हुये कागज के डब्बे, सिंहासन, कलमदान आदि हमारे कलाभवन हैं जिनकी मजबूती और सुन्दरता देखते ही बनती है। खाताबही के रद्दी कागजों के एक ओर के खाली पृष्ठ पर अनेक कलापूर्ण चित्र बनाये हुए हमारे संग्रह में हैं। इसी प्रकार ठाठे के सिंहासन दर्शनीय हैं।

वस्तुओं की व्यर्थ बरबादी से जितना नुकसान होता है, उससे कहीं अधिक समय की बरबादी से होता है जो समय चला गया है वह पुनः मिलने की सम्भावना नहीं। अतः जीवन के पल पल का सदुपयोग सीखें। क्षण मात्र भी व्यर्थ न खोवें। जीवन की अवनति होने वाले कार्यों से बच उसके उत्कर्ष के कार्यों में लगे रहें।

मन, वचन, काया की शक्ति का अपव्यय करने से हमारा सारा जीवन बरबाद हो रहा है। अतः हमें चारों ओर, जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में होने वाली इस बरबादी से बच कर, विवेक पूर्वक सदुपयोग करने की कला का प्रतिदिन अभ्यास बढ़ाते रहना चाहिए। यही जीवन का सबसे अच्छा सद्व्यवहार है।

मन हमें प्राप्त हुआ है सुविचार के लिये, वाक् शक्ति प्राप्त हुई है सत्य, हित, मित भाषण के लिये, प्रभु भजन व सदुपदेश देने के लिये, शरीर प्राप्त हुआ है आत्मोन्नति की साधना एवं सेवा के लिए, यह ध्यान में रखें भूलें नहीं। इनके द्वारा कोई बुराई नहीं हो भलाई ही हो, इसके विषय में सतर्क रहें धन प्राप्त हुआ है भोग के साथ साथ परोपकार के लिए। इन्द्रियाँ प्राप्त हुई हैं ज्ञान सम्पादन व सदाचरण के लिये, उन्हें अच्छे अच्छे कार्यों में लगाये रखें। प्राप्त सभी साधनों का सदुपयोग करिये, कम से कम दुरुपयोग तो नहीं ही कीजिए।

आवश्यकताओं को कम करना, तृष्णाओं को घटाना, प्राप्त सामग्री का सदुपयोग करना यही मानव जीवन का सार है।


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