भगवान बुद्ध का सबसे अधिक नीरोग शिष्य।

February 1955

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(श्री. भरतसिंह उपाध्याय)

कुछ समालोचकों ने बौद्ध धर्म को सदाचार की स्मृति कहा है। उनका यह कहना इस अर्थ में ठीक है कि बौद्ध धर्म प्रधानतया आत्म−शुद्धि का एक मार्ग है और उसके साधनों की खोज वह जीवन की जाग्रत अवस्थाओं से लेकर अन्तः संज्ञा के सूक्ष्म क्षेत्रों तक बड़े साहस के साथ करता है। कामनाओं के लोक से प्रारम्भ कर वह चित्त को लोकोत्तर भूमि में ले डालता है जहाँ राग, द्वेष, मोह से उसका छुटकारा हो जाता है और उस अत्यन्त परिशुद्ध, सर्वमलरहित, विशुद्ध का अनुभव करता है जिसकी संज्ञा निर्वाण है। इस विशुद्ध का मार्ग ही बौद्ध धर्म है। किन्तु यदि उपर्युक्त कथन का यह अर्थ लिया जाय (जिस अर्थ में ईसाई लेखकों ने इसे प्रायः प्रयुक्त किया है) कि बौद्ध धर्म नैतिक नियमों का एक संग्रह और विश्लेषण मात्र है, और उसमें उस रागात्मक तत्व का अभाव है जो कर्म प्रवृत्ति के लिए आवश्यक है, तो यह गलत है। बौद्ध धर्म कोरे उपदेशों का संग्रह नहीं है। उसमें ठोस जीवन है। शास्ता का शासन न केवल धर्म (सत्य) है और न केवल विनय। वह धर्म और विनय दोनों (धर्मविनय) है। भगवान बुद्ध का अनन्त सौंदर्य और अनन्त शील−समन्वित रूप जिसकी तुलना में उषा की निष्पाप कान्ति और पवित्रता भी फीकी है, मनुष्य−हृदय को वह प्रेरणा देता है जिससे मनुष्यत्व की उच्चतम भूमि का आसानी से साक्षात्कार किया जा सकता है। यह साधना कहाँ तक जा सकती है, इसका एक चित्र स्थविर वक्कुल के जीवन में देखिए।

वक्कुल स्थविर भगवान बुद्ध के उन इने-गिने शिष्यों में से थे जिनकी साधना बहुत बढ़ी−चढ़ी थी। उनका कठिन तप और उग्र साधना महाकाश्यप के समान ही थी, किन्तु सारिपुत्र के समान धर्म प्रवचन करने में उनकी रुचि नहीं थी। यही कारण है कि उनके अधिक उपदेश हमें त्रिपिटक में उपलब्ध नहीं होते। वक्कुल एक ऐसे साधक के रूप में चित्रित किये गए हैं जिसका अवधूत व्रतों का पालन बड़ा परिपूर्ण है किन्तु जो दूसरों के लिए उनका उपदेश या अनुशासन नहीं करता। इसीलिए उनके विषय में कहा गया हैं—“तीयदं आयुष्मा वक्कुलो धुतो न धुतवादोति” अर्थात् यह आयुष्मान् वक्कुल स्वयं अवधूत तो है, किन्तु अवधूत−व्रतों के उपदेशक नहीं। इससे मालूम पड़ता है कि इस विचित्र साधक में लोक−संग्रह का भाव कम था। इन्हें हमारे पौराणिक साहित्य के जड़ भरत के साथ भली प्रकार रखा जा सकता है। सारिपुत्र के जीवन की सी वह परिपूर्णता यहाँ दिखाई नहीं देती जिसमें स्वयं आचरण के साथ दूसरों के लिए उसका उपदेश अर्थात् समाज में व्यापक प्रचार भी उतना ही आवश्यक था। फिर भी स्थविर वक्कुल के जीवन का हमारे लिए आकर्षण है।

एक दिन वक्कुल स्थविर राजगृह के समीप निवास कर रहे हैं। वहाँ उनसे अपने एक पुराने मित्र अचेल (नग्न) काश्यप की भेंट हो जाती है। दोनों में एक दूसरे की साधना पर संलाप होने लगता है। वक्कुल से उनके अनुभवों पर बातचीत करते हुए अचेल काश्यप उनसे पूछता है—

“मित्र वक्कुल! आज संन्यासी हुए आपको कितना समय हुआ?”

“मित्र! मुझे अस्सी वर्ष हो गये!”

“इन अस्सी वर्षा में मित्र! आपने कितनी बार मैथुन सेवन किया?”

‘मित्र काश्यप! मुझसे इस तरह प्रश्न नहीं पूछना चाहिये। मुझसे इस तरह पूछना चाहिये—इस अस्सी वर्ष के समय में तुम्हें कितनी बार विषय−वासना सम्बन्धी खयाल उत्पन्न हुआ। मित्र! इन अस्सी वर्षों में मैं एक बार भी अपने अन्दर काम सम्बन्धी विचार का उत्पन्न होना नहीं जानता।”

अचेल काश्यप रोमाञ्चित हो उठा। वक्कुल स्थविर ने आगे अपने अनुभवों को बतलाते हुए कहा—’अस्सी वर्ष के समय में, मैं एक बार भी,

“द्वेप−सम्बन्धी विचार का उत्पन्न होना अपने चित्त में नहीं जानता।”

“हिंसा−सम्बन्धी विचार का उत्पन्न होना नहीं जानता।”

“द्रोह सम्बन्धी विचार का उत्पन्न होना नहीं जानता।”

गृहस्थों का दिया वस्त्र पहनना नहीं जानता।”

कैंची आदि से कतरे वस्त्रों को पहनना नहीं जानता।”

“सुई से सिये वस्त्र को पहनना नहीं जानता।”

सब्रह्मचारियों के वस्त्र बनाना नहीं जानता।”

“निमन्त्रण खाना नहीं जानता।”

“गृहस्थ के घर में बैठना कैसा होता है, नहीं जानता।”

“गृहस्थ के घर में बैठकर भोजन करना नहीं जानता।”

“स्त्रियों के आकार−प्रकार को खयाल में लाना नहीं जानता।”

“स्त्रियों को चार पद की गाथा तक उपदेश करना नहीं जानता।”

“भिक्षुणियों को भी कभी धर्म उपदेश किया हो, यह भी नहीं जानता।”

“किसी को भी कभी प्रव्रज्या दी हो, नहीं जानता।”

“स्नानगृह में नहाना कैसा होता है, नहीं जानता।”

“लेप से नहाना नहीं जानता।”

“सब्रह्मचारियों (गुरुभाइयों) से देह मलबाना नहीं जानता।”

“क्षण भर के लिए भी किसी से देह मलबाई हो, नहीं जानता।”

“क्षण भर के लिए भी कोई बीमारी उत्पन्न हुई हो, नहीं जानता।”

“हर्र के टुकड़े के बराबर भी कभी औषध खाना नहीं जानता।”

“खाट बिछाकर सोना नहीं जानता।”

“शैया पर लेटना नहीं जानता।”

“वर्षा में भी गाँव के भीतर रहना नहीं जानता।”

इस प्रकार की लोकोत्तर साधना स्थविर वक्कुल की थी। बुद्ध−उपदेश सुनने के सातवें दिन ही उन्हें ज्ञान प्राप्त हो गया। जैसा कि उन्होंने कहा भी है—”सप्ताह भर ही मैंने चित्त−मल युक्त हो राष्ट्र का अन्न खाया। आठवें दिन शुद्ध अर्हत्व−ज्ञान उत्पन्न हुआ।” आश्चर्य नहीं कि अपने स्वस्थ, खिलते हुए चेहरे वाले भिक्षुओं को सम्बोधित करते हुए, भगवान ने एक दिन उद्घोषित किया, “भिक्षुओं! मेरे स्वस्थ, निरोग शिष्य भिक्षुओं में यही सबसे आगे है, यही वक्कुल।” 160 वर्ष की आयु में स्थविर वक्कुल ने शरीर छोड़ा।


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