चातक का वैराग्य

February 1955

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(श्री सावित्री देवी, फिल्लौर)

रमणीय सलिल वाहिनी नदियाँ किलोलें करती हुई स्वच्छन्द बहें। बड़े बड़े महासागर इस पृथ्वी पर जल से भरपूर पड़े रहें। किन्तु चातक को इनसे कोई प्रयोजन नहीं। इन भूलोक के जलों में अब उसकी तृष्णा नहीं रही है। उसने तो आकाश की तरफ मुँह फेर लिया है, वहीं से आई हुईं दिव्य धाराएँ अब उसके कण्ठ को शान्ति दे सकती हैं। निःसन्देह यह भूतल जल से प्लावित है, सब कहीं सुगमता से पीने के लिये पानी मिल सकता है, परन्तु उसे तो यहाँ के जलों की, यहाँ के मधुर से मधुर जलों की, शीतल से शीतल जलों की अनुपादेयता का पूरा पूरा ज्ञान हो चुका है यहाँ के सभी जल इसी प्रकार के हैं। मृत्युलोक के अन्य प्राणी इन्हें पियें, भर पेट पियें, उनके लिए यह खुले पड़े हैं। किन्तु चातक इनसे दूर रहेगा। वह इन्हें जानता है। इनमें उसका जरा भी राग नहीं है। प्यासा रहना कोई बड़ी बात नहीं है, किन्तु त्यागे हुए का ग्रहण कदापि न होगा। यदि आवश्यकता होगी तो कभी स्वर्ग से सुधासम सलिल स्वयमेव गिरेगा। वस्तुतः व्रत बड़ा कठिन है। कौन है जो जलों को सामने बहता देखकर प्यासा रह सकता है।

इस महाव्रत को धारण किये पर्याप्त समय हो चुका है धीरे धीरे जाकर कहीं वर्षाऋतु आयी है, और कभी मेघमालाएँ भी दिखलाई देकर कुछ आशा बँधाती हैं, किन्तु अभी तक चातक का कण्ठ सूखा का सूखा पड़ा है। दूर से आती हुई ठण्डी पवन कभी कभी शीतल जल पूर्ण मेघों के शुभागमन का सन्देश लाती है और बदन को हर्षित कर देती है, परन्तु यह सब भी आशा ही आशा रह जाती है और कोई भी मेघ दो बूँदें भी नहीं दे जाता। तथापि महाव्रती चातक सब कुछ त्याग कर दृढ़ विश्वास से चुपचाप ऊपर मुख किये बैठा है पूर्व दिशा से काले मेघ जल भार से अवनत−उतर आते हैं।

किन्तु देखते ही देखते सीधे पश्चिम की ओर चले जाते हैं, पर वैरागी अपना मग्न बैठा है। तब क्या चातक प्यासा ही रह जायेगा? क्या अब उसे प्राण त्यागने होंगे या इस अन्त समय की व्यथा में वैराग्य छोड़कर फिर संसारी बनकर अपनी रक्षा करनी होगी? यह सब आशंकाएँ निरर्थक और निर्मूल हैं। घातक चित्त में असंदिग्ध है, कि वह प्यास के मारे यदि धरणीतल पर मूर्छित हो गिर भी पड़ेगा, तो भी उसे चेतना में लाने के लिये यदि कोई आयेगा तो स्वयं इन्द्र स्वर्गीय जलों को लेकर आयेंगे और चैतन्य प्रदान करेंगे।

घबराओ नहीं, सन्तोष रक्खो, परीक्षा में उत्तीर्ण होओ, जो त्याज्य है उसे त्यागे ही रक्खो, तो सब कुछ मिल ही जायगा, मिलने का नियम तो अटल है। केवल कठिन परीक्षा में दृढ़ निकलने की देर है। भला जिसने साँसारिकता बिलकुल दूर करदी है, उसे दिव्यता कैसे न मिलेगी? आज न मिलेगी तो दो दिन बाद मिलेगी पर मिलेगी। और फिर उसे क्या नहीं मिलेगा। पर त्याग तो सही एक बार तृष्णा को त्यागो, व्यास मुनि पर विश्वास करो।

यच्च काम सुखं लोके, यच्च दिव्यं महत्सुखम्। तृष्णा क्षय सुखस्यैते नार्हतः षोडशी कलाम्॥

इन बिजली भरे वाक्यों से अनुप्राणित होकर एक बार त्याग करके देखो तो।

तुम जरा सा त्यागते हुए व्यथा से व्याकुल हो हाय मैं मरा, हाय मैं गया, किन्तु एक बार अपने को जाने तो दो और देखो तो। अरे नादान तू किस घबराहट के चक्कर में पड़ा है किस मोह में फँसा है? तुझे ज्ञान नहीं कि जिसने तृष्णा को जीत लिया है, उसे प्यास कहाँ सताती है, उसे मूर्छा कहाँ अचेतन कर सकती है? उस अमृत को मारने के लिए मौत कहाँ से आयेगी? अरे त्यागने में भय कहाँ है। केवल तृष्णा को छोड़ो, एक बार सब कुछ अपना अर्पण करदो और वैरागी बन कर अटल विश्वास से बैठ जाओ, तो देखो तुम्हें अपनाने के लिए स्वयं प्रभु अपने सिंहासन से उतरते हैं कि नहीं।


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