मन को उद्विग्न न कीजिए

February 1955

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(प्रो. मोहनलाल वर्मा, बी.ए. एल.एल.बी.)

मानसिक सन्तुलित अवस्था मन की स्थिर बुद्धि सम्पन्न शान्तिमय स्थिति है, जिसमें विवेक पूर्णरूप से जाग्रत रहता है। जैसे तराजू के दोनों पलड़े समान रूप से भारी होने के कारण डण्डी को सन्तुलित रखते हैं, वैसे ही मन की पूर्ण सन्तुलित अवस्था में मानसिक उत्तेजना, वितर्क व्यर्थ की उथल−पुथल चिन्ता वासना आदि से मुक्त रहती है। इस अवस्था में मनुष्य अच्छी तरह विवेक को जाग्रत रख कर सोच विचार कर सकता है।

यह पूर्ण आनन्द की स्थिति है। इस अवस्था में मनुष्य अपने भले बुरे को अच्छी तरह समझता है। वह अपने शुभ संकल्पों का निर्माण करता है, कर्त्तव्य बुद्धि से उसे अपने भले बुरे का ज्ञान रहता है। उसका आत्म विश्वास बढ़ जाता है। स्थिरता एवं शान्ति के कारण उसकी मानसिक शक्ति में भी अभिवृद्धि होती है। व्यर्थ चिन्ताएँ नष्ट हो जाती हैं। मिथ्या दुःखों से मुक्ति प्राप्त होती है। हम अनुचित माया−मोह के विकारों से बचे रहते हैं।

पूर्ण सन्तुलित व्यक्ति मानसिक उद्वेगों से मुक्त रहता है। उद्वेग एक प्रकार का उफान है, मन में उठने वाला विद्रोह है। यह मन की असाधारण अशान्त स्थिति है। उद्वेग में मनुष्य का शरीर एक प्रकार की कम्पनों से परिपूर्ण हो उठता है और वह थरथराहट से भरा रहता है। उद्वेग में धैर्य नष्ट हो जाता है, क्रोध ऊँचा उठ आता है और व्यर्थ की शंकाएँ बुद्धि को भ्रष्ट कर देती हैं। भय, चिन्ता, ईर्ष्या, लोभ, वासना के ताण्डव विवेक को अपना कार्य नहीं करने देते। वही मन सन्तुलित हो जाने पर स्थिर बुद्धि ग्रहण करता है, प्रसन्न और उदार बनता है, सन्तुष्ट और शान्त बनता है। उसे भविष्य से बड़ी बड़ी आशाएँ होती हैं।

सन्तुलित मन में एकाग्रता सबसे बड़ी शक्ति है। सन्तुलित व्यक्ति एक−विचार पर की सम्पूर्ण शक्ति केन्द्रित कर पाता है। उसकी विचार शक्ति विकेन्द्रित होकर व्यर्थ ही नष्ट नहीं होती। अकारण ही वह भय तथा काल्पनिक दुःखों से ग्रसित नहीं होता।

मानसिक सन्तुलन पर स्वास्थ्य का बड़ा प्रभाव पड़ता है। जब स्वास्थ्य अच्छा होता है और शरीर रोग मुक्त होता है, तो मानसिक सन्तुलन ठीक रहता है। रोगी शरीर होने पर प्रायः सन्तुलन बिगड़ जाता है। कभी कभी मानसिक सन्तुलन के भंग होने का कारण बुरा स्वास्थ्य होता है। स्वयं अपने मानसिक सन्तुलन का निरीक्षण कीजिए और उसके नष्ट होने के कारण मालूम कीजिए। यदि आपका मानसिक सन्तुलन भंग है, तो उसका दूषित प्रभाव उसके शरीर पर प्रकट हुए बिना नहीं रह सकता। पाचन विकार से शिथिलता, चिड़चिड़ापन, निराशा उत्पन्न होती है। यदि शरीर में कोई कष्ट हो, तो मनुष्य दुःखी, अतृप्त एवं अशान्त बना रहता है। प्रायः देखने में आता है कि जीर्ण रोगियों को क्रोध एवं आवेश अधिक आता है, उनका स्वभाव नैराश्य पूर्ण होता है दुःख पूर्ण मनःस्थिति अधिक रहती है।

भोजन का मानसिक सन्तुलन पर बड़ा प्रभाव पड़ता है। आप जैसा भोजन लेते हैं, वैसा ही सन्तुलन स्थिर रहता है। खराब, दूषित, बासी, या अभक्ष्य पदार्थों के भोजन से मानसिक सन्तुलन भंग हो जाता है। मद्य, तमाकू , पान, सिगरेट से वासना उद्दीप्त होती है। इनका प्रयोग करने वालों में कामोत्तेजना बनी रहती है। माँस के साथ क्रूरता का अटूट सम्बन्ध है। मांस खाने वाले तुनकमिज़ाज, उत्तेजक स्वभाव, क्रुद्ध होने वाले, क्रूर हिंसामय प्रवृत्ति के होते हैं। मिर्च के साथ उत्तेजना का निकट साहचर्य है। राजसी भोजन, अधिक भोजन और अभक्ष पदार्थों के भोजन सन्तुलन को नष्ट करने वाले हैं। इनके विपरीत शाक भाजी दूध इत्यादि के साथ सात्विक भावनाएँ संयुक्त हैं। शाकाहार करने वाले ऋषि मुनि गण सरलता से मानसिक सन्तुलन स्थिर रख सके हैं। सात्विक भोजन सुख शान्ति की अभिवृद्धि करने वाला है।

संगति और वातावरण मानसिक संतुलन को सुधारते बिगाड़ते रहते हैं। जिसकी संगति सदाचारी विद्वान, त्यागी, निस्पृह, उदार व्यक्तियों की हैं, जो अच्छे विचारों वाले व्यक्तियों के संपर्क में रहते हैं, वे व्यक्ति शान्त रहते हैं। प्राचीन ऋषि मुनि संसार के कोलाहल से दूर प्रकृति के उन्मुक्त प्रशान्त वातावरण में कल कल झरते हुए झरनों के किनारे विचार तथा ब्रह्म चिन्तन किया करते हैं। उस स्थिति में उनका सन्तुलन स्थिर रहता था। यदि हम सन्तुलित मनः अवस्था के इच्छुक हैं, तो हमें भोजन, संगति और वातावरण तीनों ओर से आत्म−सुधार करना चाहिये।

सहिष्णुता की वृद्धि करें। सहिष्णुता का तात्पर्य न केवल कष्ट और विरोध सहन शक्ति है, प्रत्युत आने वाले संकट में शान्त और सन्तुलित रहने का गुण भी है। सहिष्णु व्यक्ति गहन गम्भीर समुद्र की तरह है जिसके अनन्त गहराई पर मामूली तूफानों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वह अनायास ही आए हुए कष्टों से घबराता या पथ−च्युत नहीं होता। शान्ति से कठिनाइयों को अपने ऊपर झेलता है। खतरे में ठण्डे दिमाग से काम करता है। यह शान्त और नित्य साथ करने वाला गुप्त साहस है।

सहिष्णुता निष्क्रिय साहस और वीरत्व है। ऐसा व्यक्ति अन्तःकरण से एक गुप्त सामर्थ्य पाता रहता है, जिसके कारण वह शत्रुओं के सम्मुख अजेय, स्थिर, साहसपूर्ण हृदय से खड़ा रहता है सहिष्णुता कुछ तो शारीरिक होती है, किन्तु मुख्यतः यह मानसिक दृढ़ता पर निर्भर है। सहिष्णु व्यक्ति मान−अपमान, हानि−लाभ, हर्ष−विषाद में विचलित नहीं होता। वह प्रलोभन, क्षुधा, सर्दी, गर्मी, वासना, उत्तेजना पर काबू पा लेता है।

अपने जीवन में सहिष्णुता का अभ्यास करें। कोई तीखे वचन भी कहे, तो भी अपने आपको सम्भालें, क्रोध को, उत्तेजना को शान्ति से शीतल कर दें। वासना की आँधियों को शान्ति से निकल जाने दें। यदि चरित्र में कोई व्यसन−मद्यपान सिगरेट अपव्यय की आदत−आ गई है तो उसे त्यागने में सहिष्णुता प्रदर्शित करें।

यह संसार कष्ट, अभाव, दुःख, खतरों, चोट, पीड़ा और रोग से मिल कर बना है। हममें से प्रत्येक को इन कड़वी चीजों का हिस्सा मिलना है। कायर डर कर इनसे भाग निकलते हैं, जबकि सहिष्णु साहस से इन पर विजय प्राप्त करते हैं। आप निश्चय ही सहिष्णु हैं। वीरता से कष्टों और अभावों से लड़ सकते हैं। मन में ऐसी धारणा शक्ति बढ़ाइए कि आप आसानी से अस्त व्यस्त न हो सकें। मानसिक सन्तुलन बना रहे।

जब आप मन में ठण्डक और चित्त को शान्त रखते हैं, तो विवेक सर्वोत्कृष्ट रूप में कार्य करता है। हमें नए नए उपयोगी विचार प्राप्त हो जाते हैं। जो जरा जरासी बात में उखड़ता या लड़ता झगड़ता रहता है, क्रोधित होकर मन को उत्तेजित करता है, वह एक प्रकार के पागलपन में पड़ा रहता है। ऐसे उत्तेजक स्वभाव पर विश्वास नहीं किया जा सकता।

सन्तोष वृत्ति मन को सन्तुलित रखने में सहायक दैवी वृत्ति है। लोभ के कारण प्रायः मन का सन्तुलन अस्थिर रहता है। लोभ हृदय में सुलगने वाली एक ऐसी अग्नि है जो मनुष्य का क्षय कर डालती है। लोभ को मारने की दवाई सन्तोषवृत्ति है। लोभ की अग्नि से दग्ध व्यक्ति संतोष गंगा में स्नान कर शीतलता का अनुभव करता है। मोक्ष प्राप्ति के चार उपाय हैं—शान्ति, सन्तोष, सत्संग और विचार। इनमें संतोष सबसे शक्तिशाली दैवी सम्पदा है। यदि किसी प्रकार सन्तोष वृत्ति को धारण करलें तो शान्ति, सत्संग और विचार स्वयं आ सकते हैं।

मन बड़ा चंचल होता है। एक इच्छा पूर्ण हुई तो दूसरी पर कूदता है, फिर तीसरी को पकड़ता है। यह चंचलता−अस्थिरता कम्पन संयम और संतोष से काबू में आ जाते हैं। राजयोग के अंतर्गत संतोष एक महत्वपूर्ण नियम है। सुकरात ने इसका वर्णन बड़े ऊंचे रूप में किया है। संतोष से मन की शान्ति एवं संतुलन स्थिर रहता है।

कुछ व्यक्ति संतोषवृत्ति को आलस्य और भाग्यवादी बनाने की वृत्ति मानकर बड़ा अत्याचार करते हैं। संतोष तो एक सात्विक वृत्ति है। यह हमें कर्त्तव्य पथ पर चलाती है और पश्चात् हमें मानसिक शक्ति एवं शान्ति प्रदान करती है। यह हमारी मनोवृत्तियों को अंतर्मुखी बनाती है और हमें स्वार्थ, लोभ और अन्य साँसारिक वृत्तियों से मुक्त करती है। हमारे सन्त महात्मा फकीर भिक्षुगणों ने अल्प में सन्तोष किया है। आत्म ज्ञान प्राप्त किया है। आत्म सन्तोषी व्यक्ति संसार की आकर्षक किन्तु नश्वर वस्तुओं को घृणा से देखना सिखाती हैं। सन्तोष से वैराग्य, विवेक, और सद्विचार की पद्धति आती है। लोभ जड़ मूल से नष्ट हो जाता है।

“मैं सन्तुष्ट हूँ। तनिक से लोभ से विचलित नहीं होता। क्रोध नहीं करता। अपने आप में पूर्ण हूँ। मुझे कोई आवश्यकता नहीं है। मेरे पास यथेष्ट है”—ऐसे संकेतों को लेने से मनुष्य में आन्तरिक संतुलन आता है। आत्म संतोषी जो कुछ उसके पास है उसी से संतुष्ट रहता और अर्थ के अनर्थ से मुक्त रहता है।

क्रोध, ईर्ष्या और द्वेषभाव संतुलन को भंग करने वाले पाशविक विकार हैं। इनसे मुक्ति के लिए क्षमा महौषधि है। जिसने आपका बुरा भी किया है उसके प्रति भी क्षमा भाव रखना, उसकी अज्ञानता पर करुणा दिखाना मन को संतुलित रखता है। क्षमावान दया प्रेम और सहानुभूति से परिपूर्ण रहता है। यदि आप क्षमा का अभ्यास करें तो आध्यात्मिक दृष्टि से अशक्त बन सकते हैं, अपने क्रोध ईर्ष्या द्वेष के आवेशों को कन्ट्रोल कर सकते हैं। जो शक्ति उत्तेजना में नष्ट होती है वह बच सकती है। जिसे आप क्षमा करें उसकी चर्चा किसी से न करें अन्यथा आपका अहंभाव समझा जायगा।

महर्षि पातंजली ने व्यवहारिक जीवन में सफलता की कुञ्जी दे दी है:—

मैत्रीकरुणामुदितो पेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्य विषयाणां भावनातश्चिप्रसादनम्।

(समाधिपाद 33)

अर्थात्—हमें चाहिए कि दूसरों से मैत्री करुणा मुदिता और उपेक्षा वृत्तियों को काम में लाएँ। सुखी मनुष्यों से प्रेम करें, दुखियों एवं सन्तों के प्रति दया भाव दिखाएँ, पुण्यात्माओं के प्रति प्रसन्नता और पापियों की ओर से उदासीन रहें।

शान्ति धारण करने का अभ्यास करें। आपका मन, इन्द्रियाँ, भावनाएँ शान्त रहें। वातावरण यदि कोलाहल पूर्ण भी हो तो भी अंतःवृत्तियों को शान्त रखने की चेष्टा करें।

शाँति हमारी आत्मा का गुण है। हमारी सब वृत्तियाँ शाँति में आकर संतुष्ट हो जाती हैं। मन में संकल्प विकल्पों का नाश होता है। निस्वार्थता, अनिच्छा, वैराग्य, निर्मोह, अहं से मुक्ति ईश्वर की ओर वृत्ति, इच्छाओं का संयम हमें आन्तरिक शाँति और मन का संतुलन प्रदान करते हैं।

यदि हम अपने परिवार, मुहल्ले, शहर, प्राँत और देश भर में शाँति का अभ्यास करायें, और सभी इसके लिए प्रयत्न करने लगें, तो विश्व भर में शाँति स्थापित हो सकती है। प्रार्थना, जप, कीर्तन, चिन्तन और सद्विचारों को फैलाया जाय, उतना ही लाभ हो सकता है।

शाँति से बोलें, शाँति से चलें, शाँति से कार्य करें। परमेश्वर शाँति का अवतार है। ईश्वरीय तत्वों को मन से निकालें पहले मनुष्य मन में शाँति धारण करे फिर बाह्य परिस्थितियों की शिकायत करे। जितना आप बाह्य पदार्थों से अपना सम्बन्ध तोड़ कर आगे बढ़ेंगे, उतनी ही मनः शान्ति प्राप्त होगी।


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