छात्र जीवन निर्माण करें

February 1955

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(श्री॰ छत्रपाल जोशी, सीकर)

सबसे पहले मानव जीवन प्राप्त करने वाला प्राणी अपने पूर्व जन्म के कर्मानुसार अपनी माँ के गर्भ से संसार में आता है। प्रारम्भ से प्राप्त माँ बाप के सहयोग से बाल्यावस्था का प्रथम चरण व्यतीत करके द्वितीय चरण में शिक्षकों के सहयोग में भेजा जाता है और वहीं से उसका जीवन निर्माण शुरू होता है। शिक्षा के साथ साथ वह वहाँ शासन में रहना तथा शासन करना भी सीखता है और शिक्षकों के अनुकूल आचरणों का समावेश भी उसमें पूर्ण रूप से हो जाता है। यही कारण है कि आज का भारत उत्थान की तरफ न जाकर पतनोन्मुख हो रहा है। क्योंकि प्रायः आज का शिक्षकवर्ग भारतीय संस्कृति के विपरीत है। कुम्भकार अवा में पकाने से पहले घड़े जैसी मीनाकारी करता है वही अन्त तक रहती है। इसी तरह बाल्यावस्था में जैसी शिक्षा दीक्षा में बालक रहता है वैसा ही जीवन का निर्माण होता है।

इसलिये बालकों के अभिभावकों को विशेष तौर से सोचना चाहिये कि आधुनिक शिक्षकों के ऊपर ही सारा भार बालकों को सौंपकर निश्चिन्त न हो जावें—अपितु उनके अलावा रहन सहन सदाचार आदि के विषय में—पूर्ण रूप से सतर्क रहें क्योंकि महापुरुषों की यथार्थ उक्ति है कि जिसका प्रातः नष्ट हो गया, उसका सम्पूर्ण दिन खत्म हो गया और जिसकी बाल्यावस्था बिगड़ गई उसका जीवन समाप्त हो गया। जिसका आचरण चला गया उसका सर्वस्व नष्ट हो गया। यह प्रायः देखा गया है कि जिन लोगों के पूर्व संस्कार कमजोर हैं, उन्हीं पर सहवास और संगति का प्रबल प्रभाव पड़ता है। हमारे प्रातः स्मरणीय स्वामी विवेकानन्द और स्वामी रामतीर्थ ने पाश्चात्य संस्कृति से संतप्त शिक्षणालयों में शिक्षा प्राप्त करके भी अपने वास्तविक अध्यात्म प्रकाश से सारे जगत को प्रकाशित किया।

इस प्रकार अच्छे अभिभावक तथा शिक्षकों के सहवास में रहकर संसार संग्राम में विजयी होने के अनुकूल गुणों को ग्रहण करके गृहस्थ जीवन में प्रविष्ट होने अथवा नैष्ठिक ब्रह्मचारी रहकर सन्त विनोबा की भाँति लोक सेवा में संलग्न हो जावें। समय की प्रति मिनट को अमूल्य समझकर स्वास्थ्य के नियमों का पूर्ण रूप से पालन करते हुए और ईश्वर की उपासना के बल पर विघ्नों को पराजित कर वर्तमान को सुधारते हुए भूत−भविष्यत् का पूरा ध्यान रखते हुए—सच्ची जनसेवा में जुट जावें, अपने संकट कालीन तथा सफल जनक अनुभव संसार को बताते हुए आगे बढ़ें और शास्त्र की मर्यादानुकूल गृहस्थ जीवन में प्रविष्ट होने वाले लोग तो सबसे पहले सात्विक गुरु की खोज करें।

इस समय में वास्तविक सन्तों का अभाव सा है किन्तु सच्ची लगन वालों को अवश्य निधि मिलती है। प्रयत्न करने पर भी यदि सफलता न मिले तो सच्छात्रों के वचनानुसार अपने जीवन को बनावें। ब्रह्मचर्य का पालन करता हुआ लोकोपकार के लिये जीवन निर्मित करे। फैशनपरस्ती की मूर्खता से दूर रहकर वास्तविक सौंदर्य की कुञ्जी ब्रह्मचर्य तथा सदाचार का पालन करे। अपने जीवन से लोगों को शिक्षा देता हुआ, समय के सच्चे रहस्य को समझकर चलना शुरू करे। नवयुवक विद्यार्थी अपना निर्माण इस तरह करके लोगों को सत्प्रेरणा देना शुरू करें तो थोड़े ही समय में भारत का भाग्य चमकने लगे।


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