(प्रो. रामचरण महेन्द्र एम.ए.)
अशिक्षा, अज्ञान और गरीबी अत्यन्त निंद्य हैं, किन्तु सबसे बुरी अवस्था उस मानव की है जिसे अपनी वासना पर संयम नहीं है। आज देश में भिखारी, निर्धनता, व्याधि और असन्तोष की छाया है। इन विपत्तियों की जड़ है- अधिक सन्तानोत्पत्ति। वह व्यक्ति बड़ा मूर्ख है, जो बिना सोचे समझे अविवेक से वशीभूत हो अपनी संतान में वृद्धि करता रहता है।
कपड़ों और मकान की समस्या से पिसने वाले परिवार वे हैं जिसमें प्रति वर्ष एक दो व्यक्ति की वृद्धि हुआ करती है। भारत के रहन-सहन का स्तर नीचा इसीलिए है कि प्रत्येक परिवार में कमाने वालों की संख्या न्यूनतम और उनके आभितों की संख्या बृहत् है।
स्मरण रखिये, प्रत्येक आने वाला बच्चा आप के ऊपर जिम्मेदारी का एक बोझा लाता है। क्षणिक आवेश में आकर आप एक ऐसी मुसीबत मोल ले लेते हैं, जो आयु पर्यन्त पर्वत सदृश आपके ऊपर पड़ी रहती हैं। पुत्र हो या पुत्री, दोनों का भार बराबर है। पुत्र तो पूरी आयु भार बन कर रहता है। खराब पुत्र अनमारना शत्रु है।
श्री रतनलाल साधु ने क्या पते की बात लिखी है- “इस आबादी की बाढ़ को मैं विपत्ति की जड़ समझता हूँ। इस रोग ने इस स्वर्ण भूमि को कंगाल बनाने में सबसे अधिक सहायता दी है। हमने बाल-विवाह, वृद्ध-विवाह आदि चला कर आबादी की वृद्धि पर लगाये प्रतिबन्धों को तोड़ा है। अपनी विपत्ति में और भी निर्दोष प्राणियों को लाकर ठूँसने का हमें क्या अधिकार है? इससे एक ओर हमारी समस्याएँ उलझती हैं, दूसरी ओर एक बड़ी शर्मनाक नसीहत हम आगे की नस्लों के लिये करते हैं। इस बाढ़ को रोके बिना सुख और शान्ति की स्थापना करने के प्रयास को मैं बहते पानी में नींव डालकर मकान खड़ा करने के प्रयत्न जैसा ही समझता हूँ। हमें रोग का मूलोच्छेदन करना हैं। अपने अपने वंशजों के तथा देश के हित के लिये हमें सन्तानोत्पत्ति पर प्रतिबन्ध लगाना है।
जो परिवार गृहस्थी में ब्रह्मचर्य का पालन करते है, उच्चनैतिक स्तर में रहते हैं, स्त्रियों को पवित्र शिक्षा उन्नति, प्रगति के वातावरण में रखते हैं, वे भोग विलास और वासना अन्य सुखों से ऊंचे रहते हैं।
वासना के सुख निकृष्ट पशुओं की कोटि के हैं। उनसे मनुष्य की आयु, स्वास्थ्य, बल तथा पौरुष का क्षय होता है। चतुर व्यक्ति को इस मिथ्या मोह जाल के चक्र से जितनी जल्दी हो मुक्त होने का प्रयत्न करना श्रेयस्कर है। अन्यथा लोग तब चेतते हैं, जब बाल-बच्चों कि संख्या 10-12 हो जाती है तथा उनके उत्तरदायित्व के भार से कमर टूट जाती है। इस विषैले, मोहक, मोदक अनर्थकारी मायाजाल के मोहपाश से मुक्त रहिये।
हृदय की अन्धी संकरी गलियाँ
बड़े शहरों की भाँति मनुष्यों हृदयों में अन्धी संकरी गालियाँ और कुकर्म के अड्डे होते हैं। तनिक से प्रलोभन मात्र से ये कुकर्म के बीज विकसित हो उठते हैं। प्रारम्भ में इनका जोर धीमा होता हैं, किन्तु शनैः शनैः यह विकसित होते जाते हैं। विवेक, ज्ञान, तर्क का नियन्त्रण नहीं मानते। मनुष्य विषय-भोग आलस्य का दास हो जाता है। विपत्ति का प्रारम्भ पहले मन की इन गन्दी गलियों से होता हैं। जो इनको जान लेता है वह बहुत सी तकलीफों और दिक्कतों से बच जाता है।
पतन का प्रारम्भ प्रायः इस प्रकार होता है। 1- सिनेमा के गन्दे और अश्लील चित्रों, कुचेष्टाओं और अभिनेत्रियों के प्रति आकर्षण से, 2- व्यभिचार 3- व्यसन और नशीली वस्तुओं के सेवन द्वारा 4- कुसंगति द्वारा 5- गन्दे साहित्य से। विषय वासना को उद्दीप्त करने वाले साहित्य से बड़े सावधान रहें। गन्दी तसवीरों, अश्लील गानों, दुश्चरित्र व्यक्तियों से विष की तरह बचते रहें।
दूसरों को खुश करने की मूर्खता
आपके पास पैसे नहीं हैं, फिर भी आप बढ़िया सूट पहनते हैं, पान खाते और सिगरेट लेकर पीते हैं, अपना बाहरी लिफाफा ऐसा रखते हैं जैसे 1000 रु मास प्राप्त करते हों, जबकि आमदनी से मुश्किल से सौ रुपये मास हैं। इस आडम्बर तथा मिथ्याचार से क्या तो आप अपना लाभ कर सकते हैं, और क्या पड़ौसी, समाज या नगर का? कोई सत्कार्य के लिए चन्दा माँगने आता है, तो अपनी जेब उलटकर दिखा देते हैं, पर जब चटकीली भड़कीली फिल्म आती है, तो आप न जाने कहाँ से रुपया पा लेते हैं? घी, दूध, मक्खन, दही के लिये आपके पास पैसे नहीं, पर पान, सिगरेट, चाय या मित्रों में खर्च करने के लिये आपके पास रुपयों की कमी नहीं होती? वैसे तो आप टूटी झोपड़ी में रहते हैं, पर रेशमी वस्त्रों के बिना बात नहीं करते? यह कृत्रिमता आपके जीवन की एक बड़ी कमजोरी है। समाज में आप वैसा ही प्रदर्शित कीजिए, जैसे आप वास्तव में हैं। आडम्बर, मिथ्याचार, कृत्रिमता से पूर्ण मुक्त व्यक्ति ही समाज में प्रतिष्ठा पाता है। मनुष्य जन्म से स्वतन्त्र हैं, किन्तु समाज और अपने अहंकार के फैशन रूपी जंजीरों से जकड़ा है।
जैसे सींचा हुआ खेत बीज को अंकुरित कर सकता है, वैसे ही मनुष्यों को सत्कर्म और शील से समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। जैसे घुना बीज सींची हुई जमीन में पड़ने पर भी अंकुरित नहीं हो सकता, वैसे ही विषयों, फैशनों, मायाचार में रहता हुआ ज्ञानी पुरुष भी ज्ञानरूपी बीज को अंकुरित नहीं होने देता।
परीक्षाओं से भयभीत न हों-
समस्याओं को कठिनाइयाँ मानकर न चलिये। यह मानिये कि वे आपकी परीक्षा ले रही हैं। तो क्या आप परीक्षा से डर जायेंगे? परीक्षा में उत्तीर्ण होना आपकी शान के अनुकूल है। परीक्षा से आपको अनुत्साहित, निराश नहीं होना है। परीक्षा आपकी दृढ़ता, दयालुता, निर्भयता, त्याग, बलिदान, उद्योग इत्यादि गुणों की हैं। कठिनाइयाँ आपको उन्नत और परिपुष्ट करने का सुअवसर प्रदान करती हैं।
किसी भी मामले में जब आप अपनी आखिरी कोशिश कर चुके हों, तो उसके पश्चात् परिणाम पर सोच विचार करने की वृत्ति को टालना चाहिए। उसे भूल जाइए तथा उसके आगे की दूसरी समस्या या कार्य को आगे बढ़ाइये।
कार्य, मनोरंजन और आराम-ये तीन महत्वपूर्ण जीवन-कार्य हैं। खूब परिश्रम करें। कम से कम 12 घंटे कठोर काम करने की आदत डालें। संसार में हम सब मौजूद हैं। कोई शारीरिक, कोई मानसिक परिश्रम करता हैं। बिना श्रम के जीने का अधिकार आपको नहीं है। जिस दिन आप 12 घंटे काम नहीं करते, उस दिन आपको क्या हक है कि भोजन कर लें? अपने आपसे सख्ती से काम लीजिये। मन को कठोर स्वामी बना कर पूरा काम लिया कीजिये।
जिन समस्याओं के बारे में आप कुछ नहीं कर सकते, उनकी चिन्ता में न पड़िये। आरामतलब सेनापति युद्धों में नहीं जीता करते। हाँ, वे विषैली चिन्ता से अवश्य जर्जर रहते हैं।
दिवा स्वपन् की वृत्ति का सर्वथा त्याग कर दीजिए। हवाई किले बनाना, अनहोनी बातों को सोचना, सिनेमा के फिल्मों या प्रेम कहानियों में वर्णित प्रेम प्रसंगों को पढ़कर यह कल्पना करना कि हम भी किसी स्त्री से ऐसा ही प्रेम करते, ऐसे ही काल्पनिक लोक में विहार करते, रँगरँगलियाँ मनाते, मस्त तराने गाते, मजेदारियाँ करते फिरते- यह सब मूर्खतापूर्ण कल्पनाएँ हैं। आज पढ़े-लिखे युवक अपने प्राचीन साहित्य में आये हुए प्रेमों या ख्यालों के चरित्रों को पढ़कर, या अश्लील फिल्म देख कर किसी भी स्त्री से प्रेम करने को इच्छुक से प्रतीत होते हैं। वासना लोलुप दृष्टि से स्त्रियों को देखते हैं, गुपचुप यह सोचा करते हैं कि क्या अच्छा होता यदि हम वे होते। किन्तु इस प्रकार कुरुचिपूर्ण कल्पना की प्रचिर स्थानी उड़ान भर कर वे सभ्य समाज में अपना उपहास करते हैं। ऐसे गन्दे और मूर्खतापूर्ण कार्य कर डालते हैं कि उससे उन्हें आत्महत्या तक कर डालनी होती हैं। इन रोमाँटिक वासनाजन्य कल्पनाओं से सावधान रहें। हवाई किले बनाना त्याग दीजिये।
झिझक में न पड़िये। किसी भी अरुचिकर कार्य को कल पर डालना अपनी कल्पना को तिल का ताड़ बनाने का अवसर देना है। अरुचिकर कार्य को पहले समाप्त कीजिए। जब मन ताजा है, तो अरुचिकर कार्य भी अच्छा कर सकेगा। यदि थका हुआ है, तब भी रुचिकर कार्य करने को वह प्रस्तुत रहता है। अरुचिकर कार्य करने के लिए मन को मुस्तैद कीजिए। शक्ति और उत्साह से उसे भरे रखिये। जहाँ वह कुछ शिथिल हो उसे दृढ़ता से अरुचिकर कार्य पर पहले एकाग्र कीजिए। श्री बसंतलाल शर्मा ने इस विषय पर बड़ी सुन्दर बात कही है- “जिन कामों को करना पसंद नहीं करते, पर यह मानते हैं कि उन्हें करना चाहिये, उन्हें करने में प्रवृत्ति हो जाने से इच्छा शक्ति तो दृढ़ होती ही है, मानसिक और कई प्रकार के लाभ होते है। कोई काम पूरा कर लेने पर आपका मन लापरवाही की दोष भावना से मुक्त हो जाता है। अन्तःकरण पर जो भार बना रहता है, वह दूर हो जाता है। यह एक तरह का आत्मानुशासन सिद्ध होता है और आपकी इच्छा शक्ति तथा आत्मविश्वास काफी बढ़ जाता है। क्योंकि ऐसा कार्य कर लेने पर आप निश्चयात्मक रूप से यह जान जाते हैं कि जिन कार्यों को करने से आप हिचकते थे, उनको आप मजे में कर सकते हैं।”
अपनी गुप्त बातें हर किसी से न कहिए
अपनी चिन्ताओं और दुःखों को हर किसी से न कहिये। अपनी गुप्त बातों को अपने तक ही सीमित रखना इसलिए आवश्यक है कि उनमें ऐसी भी चीजें हो सकती हैं, जिनकी दवा किसी के पास नहीं, जिनके प्रति कोई सहानुभूति प्रदर्शित नहीं कर सकता। ये गुप्त बाते दूसरों के पास जाकर आपका सारा आकर्षण, विद्वता, चरित्र की ऊँचाई विनष्ट कर देंगी। यह चीज आपकी खिन्नता और विषाद को घटाने के स्थान पर उनकी अभिवृद्धि ही करेगी। दूसरे आपकी मूर्खताओं, कमजोरियों, न्यूनताओं, गरीबी, भुखमरी पर व्यंग्य करेंगे। आप समाज में अपनी उच्च स्थिति विनष्ट कर देंगे।
छोटी-छोटी योजनाएँ बनाया कीजिए
यदि कोई योजना बहुत बड़ी और पेचीदा प्रतीत हो, तो उसे छोटी-छोटी योजनाओं में विभक्त कर लीजिए, और तब कार्य को धीरे-धीरे अग्रसर कीजिये। जब तक ठीक सामने की सीढ़ी को पार न कर लें, तब तक अगली सीढ़ी की कठिनाइयों की निन्दा को अपने मन पर न आने दें।
दिन भर का कार्य-क्रम पहले ही निश्चित कर लें, ताकि आप जल्दबाजी में न पड़ें जल्दबाजी चिन्ता की सगी बहिन हैं। वह आपकी शक्ति और आत्मविश्वास को भंग करने में मदद पहुँचाती हैं तथा भय और चिन्ता को बढ़ाती है।
जब आपकी निद्रा खुल जाय, तो आप उठ बैठिये। उसके पश्चात् भी यदि बिस्तर पर पड़े रहेंगे, तो सम्पूर्ण दिन के कार्य में जितनी स्नायु शक्ति व्यय होती है, उस समय बिस्तर में पड़े रह कर पहले ही से व्यय कर डालेंगे।
स्मरण रखिये, बिना रगड़ें हीरे पर चमक नहीं आती, और बिना संघर्ष और कसौटियों के मनुष्य को पूर्णता प्राप्त नहीं होती।
सब परिवार को अपनी स्थिति का ज्ञान कराइए।
संसार में सब कार्य जैसा आप समझते हैं, वैसे ही हो जायेंगे, यह न समझ लीजिए। संसार के दुःख-सुख और संघर्ष से अपने कुटुम्ब, बच्चे, स्त्रियां, घर के परिवार के प्रत्येक सदस्य को परिचित रखिये। यदि आप उन्हें काल्पनिक मोह जाल में रखेंगे, तो जीवन संघर्ष-जीवन का कटु अनुभव उन्हें अकस्मात प्रतीत होगा। जीवन के कटु सत्यों का अनुभव उन्हें होना ही चाहिये। अपने आप तथा हैसियत से उन्हें परिचय होना जरूरी है। अमीरों के बच्चे अनावश्यक देखभाल, प्रशंसा बड़प्पन और महत्व की भावना से इतने डीठ हो जाते हैं कि अनाप-शनाप व्यय करते हैं। उनकी प्रत्येक दृष्टता और असभ्यता पर नियन्त्रण होना चाहिये। यदि घर गरीब है, तो प्रत्येक बच्चे का कर्त्तव्य हैं कि कठिनाइयों को अपने सहयोग से न्यूनतम करने का प्रयत्न करे।
श्रीमती सावित्री देवी ने उचित ही निर्देश किया है- “गृहस्थाश्रम ही एक ऐसी शाला है, जहाँ बच्चे, आदर्श पति-पत्नी, कर्तव्यशील माता पिता तथा जिम्मेदार नागरिक बनने का पाठ पढ़ते हैं। उस शाल के शिक्षक हैं माता-पिता। अपने उदाहरणों, त्याग, आदर्शों से ही वे सन्तान का जीवन सफल बनाने में सहायक सिद्ध होंगे। ममतावश यदि वे विफल नियन्त्रक, और नियामक रहे, तो सन्तान बेकाबू हो ही जायगी, साथ ही उनका जीवन भी उपहासास्पद हो जायगा जिसकी कसक उन्हें उम्र भर रहेगी। आपकी हैसियत से विपरीत यदि कोई बच्चा असन्तोषी दिखाई दे और आपकी अवहेलना करता हुआ सहयोग करें, उस समय गृहस्था रूपी मशीन के खटखट करने वाले पुर्जे को कसना ही पड़ेगा। अर्थ के सम्बन्ध में दूसरों को अन्धकार में रखना क्षणिक आवेश में पागल बन जाने के सदृश है। इससे बड़ी मूर्खता और कौन सी हो सकती है। गैर-जरूरी फैशन और विलासिता की वस्तुओं को इस्तीफा दे दीजिए। आप इस प्रकार जिएँ कि आपकी आय में दूसरे भी जीवित रह सकें।
श्रम को ही धर्म मानिये, क्योंकि श्रम ही सत्य है। किसी स्वप्न जगत के काल्पनिक परमेश्वर से श्रम की पूजा अधिक पवित्र और आवश्यक है।