ईश्वरीय सत्ता का तत्व ज्ञान।

February 1951

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ओमित्येव सुनामध्येय मनघं विश्वात्मनो ब्रह्मणः सर्वेष्वेव हितस्य नामसु वसोरेतत्प्रधानं मतम्।

यं वेदा निगदन्ति न्याय निरत श्री सच्चिदानंदकम्॥ लोकेशं समदर्शिनं नियमिनं चाकार हीनं प्रभुम्॥

अर्थ- जिसको वेद न्यायकारी, सच्चिदानंद संसार का स्वामी, समदर्शी, नियामक, और निराकार कहते हैं। जो विश्व की आत्मा हैं। उस ब्रह्म के समस्त नामों से श्रेष्ठ नाम, ध्यान करने योग्य “ॐ” यह मुख्य नाम माना हैं।

गायत्री मंत्र के प्रारम्भ में ‘ॐ’ लगाया जाता है। ‘ॐ’ परमात्मा का प्रधान नाम है। ईश्वर को अनेक नामों से पुकारा जाता है। “एकं सद्विप्रा बहुधा वद्न्ति” उस एक ही परमात्मा की ब्रह्मवेत्ता विविध प्रकार से कहते हैं। विभिन्न भाषाओं और सम्प्रदाओं में उसके अनेक नाम हैं। एक-एक भाषा में ईश्वर के पर्यायवाची अनेक नाम हैं फिर भी वह एक ही है। इन नामों में ‘ॐ’ को प्रधान इसलिए माना हैं कि प्रकृति की संचालक सूक्ष्म गतिविधियों को अपने योग बल से देखने वाले ऋषियों ने समाधी लगाकर देखा है कि प्रकृति के अन्तराल में प्रतिक्षण एक ध्वनि उत्पन्न होती है जो “ॐ” शब्द से मिलती जुलती हैं। सूक्ष्म प्रकृति इस ईश्वरीय नाम का प्रतिक्षण जप और उद्घोष करती है इसलिए यह अकृत्रिम, दैवी, स्वयं घोषित, ईश्वरीय नाम सर्वश्रेष्ठ कहा गया है।

ईश्वर का सर्वश्रेष्ठ, परम स्वाभाविक, स्वयं घोषित नाम ‘ॐ’ गायत्री के आरम्भ में इसलिए लगा है कि इस महामन्त्र की उपासना करने वाले, इस महा शक्ति की आराधना करने वाले साधक ईश्वरीय महाशक्ति को आगे रखकर, अग्रसर हों, परमात्मा को साक्षी लेकर जो कार्य किये जाते हैं वही कल्याण कारक होते हैं।

आस्तिकता का अर्थ है-- सतोगुणी, दैवी, ईश्वरी, परमार्थिक भावनाओं को हृदयंगम करना। नास्तिकता का अर्थ है- तामसी, आसुरी, शैतानी, भोगवादी, स्वार्थपूर्ण वासनाओं में लिप्त रहना। यों तो ईश्वर भले बुरे दोनों तत्वों में हैं पर जिस ईश्वर की हम पूजा करते हैं, भजते हैं, ध्यान करते हैं यह ईश्वर सतोगुण का प्रतीक है। जैसे किसी सुविस्तृत राष्ट्र ध्वज (झंडा) होता हैं। कोई विदेशी, किसी देश के झंडे का मान या अपमान करे तो यह उस राष्ट्र का मान या अपमान समझ जायगा जिसका कि वह झन्डा हैं। इसी प्रकार मानव प्राणियों के अन्तःकरण में निवास करने वाली व्यापक सात्विकता का प्रतीक वह ईश्वर है जिसकी हम पूजा करते हैं।

ईश्वर की प्रतिष्ठा, पूजा, उपासना, प्रशंसा, उत्सव, समारोह, कथा, यात्रा, लीला आदि करने का तात्पर्य है--सतोगुण के प्रति अपना अनुराग प्रकट करना, उसको हृदयंगम करना, उसमें तन्मय होना। इस कृपा से हमारी मनोभूमि पवित्र होती हैं और हमारे विचार तथा कार्य ऐसे हो जाते हैं जो हमारे व्यक्तिगत तथा सामूहिक जीवन में स्थायी सुख शान्ति की सृष्टि करते हैं। ईश्वर उपासना का महा प्रसाद साधक की अन्तरात्मा में सतोगुण की वृद्धि के रूप में, तत्क्षण मिलना आरम्भ हो जाता हैं।

गायत्री गीता के उपरोक्त प्रथम श्लोक में ईश्वर की अन्य अनेक विशेषताएं बताई गई हैं। वह न्यायकारी, समदर्शी, नियामक तथा निराकार हैं। विश्व की आत्मा है। विश्व के समस्त प्राणियों में आत्मा रूप से वह निवास करता है। मन बुद्धि चित अहंकार का अन्तःकरण चतुष्टय विकृत हो जाने से अज्ञान और माया का, स्वार्थ और भोग का, मैल चढ़ जाने से अनेकों मनुष्य कुविचारों और कुकर्मों में ग्रस्त देखे जाते हैं, फिर भी उनका अन्तरात्मा ईश्वर का अंश होने के कारण भीतर से उन्हें सत्मार्ग पर चलने का आदेश देता रहता हैं। यदि उस अन्तरात्मा की पुकार को सुना जाय, उसके संकेतों पर चला जाय तो बुरे से बुरा मनुष्य भी थोड़े ही समय में श्रेष्ठतम महात्मा बन सकता है। गीता में भगवान ने कहा है कि- “सब छोड़कर मेरी शरण में आ, मैं तुझे सब पापों से मुक्त कर दूँगा।” अन्तरात्मा, की परमात्मा की शरण में जाने से, आत्म समर्पण करने से, दैवी प्रेरणाओं को हृदयंगम करने से, मनुष्य ईश्वर का सच्चा भक्त बनता है। भक्त तो भगवान का प्रत्यक्ष रूप है।

चूँकि भगवान हर एक की आत्मा में निवास करता है। इसलिए किसी भी व्यक्ति को मूलतः दुष्ट नहीं मानना चाहिए, न उससे द्वेष ही करना चाहिए। दुष्ट विचारों और कार्यों से ही हमारा द्वेष होना चाहिए। दुष्टता एक रोग है, रोग को मार भगाने और रोगी को जीवित रखने के लिए काफी प्रयत्न किया जाता है। ऐसा ही प्रयत्न दुष्टता को मिटा कर दुष्ट मनुष्य का सज्जन बनाने के लिए होना चाहिए। प्रयत्न करने पर बुराइयाँ दूर हो सकती हैं क्योंकि आत्मा का मूल स्वरूप देवी है। उसमें ईश्वर का निवास है। फोड़ा चिरवाने की तरह दंड द्वारा भी सुधार किया जा सकता है पर घृणा एवं द्वेष को किसी के लिए भी मन में स्थान नहीं देना चाहिए। ईश्वर सर्वव्यापी है। इसलिए वह एक देशीय नहीं हो सकता। वह आत्म रूप हैं इसलिए निराकार हैं। फिर भी यह सब पसारा उसी का होने से, सब में समाया होने से साकार हैं। किन्हीं महापुरुषों में उसकी विशेष शक्तियाँ, विशेष कलाएं होती हैं तो उन्हें उतनी कलाओं का अवतार कहते हैं। परशुराम जी में तीन कलाएं, राम में बारह कलाएं, कृष्ण में सोलह कलाएं बताई गई हैं। एक ही समय में कई अवतार, कई महापुरुष, हो सकते हैं। रामचन्द्र जी और परशुराम जी एक ही समय में दो अवतार थे। गीता के अनुसार “जब अधर्म की वृद्धि हो जाती है तब धर्म की स्थापना के लिए अवतार होते हैं।” वे अवतारी महापुरुष अकेले ही सब कुछ नहीं कर लेते वरन् जनता को नवीन विचार एवं उत्साह देकर जागृत करते हैं और अनेक सहयोगियों की सहायता से उस ईश्वरीय उद्देश्य की पूर्ति करते हैं। कृष्ण द्वारा कौरवों का नाश, राम द्वारा राक्षसों का नाश, अकेले ही नहीं किया था वरन् उनके विरुद्ध अपार जन समूह खड़ा करके ही सफलता प्राप्त की गई थी। बुराइयों के निवारण एवं अच्छाइयों के स्थापन के लिए जहाँ भी कार्य होता हैं, ईश्वरीय प्रेरणा से ही होता हैं। अवतारी सत्पुरुष उसे पूरा करने में जुट जाते हैं और अन्त में जन सहयोग से वह उद्देश्य पूरा होता है। ऐसी अवतारी प्रक्रिया छोटे मोटे रूप में सदा होती रहती है और बड़े रूप में कभी कभी विशेष आवश्यकता के समय होती है। अवतारी कार्यों में सहायता करना, हनुमान अर्जुन की तरह अपने को यश तथा प्रतिष्ठा का भागी बना लेना है।

परमात्मा खुशामद पसंद नहीं। किसी की निन्दा स्तुति की उसे आवश्यकता नहीं। वह किसी पर प्रसन्न अप्रसन्न नहीं होता। पूजा उपासना एक प्रकार का आध्यात्मिक व्यायाम है जिसके करने से हमारा आत्मबल बढ़ता है। सतोगुण की मात्रा में वृद्धि होती है ईश्वर को सर्व व्यापक समझने वाला पापों से डरेगा। कोतवाल सामने खड़ा हो तो चोर प्रकृति का मनुष्य भी उस समय साधु सा आचरण करता है। सबसे बड़े कोतवाल ईश्वर को जो अपने अन्दर बाहर चारों ओर व्यापक देखता हैं वह उसके दंड से डरेगा और पाप न कर सकेगा। प्राणिमात्र में ईश्वर को व्यापक देखने वाला व्यक्ति सब के साथ सद्व्यवहार ही कर सकता है। यह ईश्वरीय दृष्टि प्राप्त करना, ईश्वराधना का प्रधान उद्देश्य है। ध्यान, प्रार्थना, पूजा, कीर्तन, जप आदि ऐसी मनोवैज्ञानिक क्रियाएं हैं जिनके द्वारा मनोभूमि में चिपके हुए अनेकों कुसंस्कार छूटते हैं और उनके स्थान पर सुसंस्कारों की स्थापना होती है। ईश्वर के नाम पर लोक हितकारी कामों के लिए दान देना अपनी ही व्यक्तिगत और सामूहिक सतोगुणी उन्नति करना हैं।

वह समदर्शी और न्यायकारी है। सभी पुत्र उसे परम प्रिय हैं और सभी समान हैं। निष्पक्ष न्यायाधीश की तरह वह सबको उनके कर्मों के आधार पर फल देता हैं। अपने भले बुरे कर्मों का परिपाक ही कालान्तर में प्रारब्ध, भाग्य, कर्म रेखा ईश्वर की कृपा, देवी वरदान, ग्रहदशा, आदि के रूप में प्रकट होता है। कर्म चाहे आज का हो चाहे पुराना, उस का फल हमें मिलेगा। ईश्वर अपनी ओर से किसी के साथ विशेष क्रोध या प्रेम प्रकट नहीं करता। उसने सब को अत्यन्त बहुमूल्य तथा शरीर, अत्यन्त विलक्षण वस्त्र मस्तिष्क, संसार से उपस्थित अत्यंत सुखदायिनी वस्तुएं देकर अपनी दयालुता का परिचय दिया है। यह हमारा काम हैं कि अपने भले बुरे कर्मों द्वारा अपने जीवन को सुखी या दुखी चाहे जैसा बनायें। वह किसी की क्रियाशीलता में हस्तक्षेप नहीं करता, अपनी इच्छानुसार काम करने के लिए सबको पूर्ण स्वतन्त्र छोड़ दिया है, पर कर्म फल से कोई बच नहीं सकता। वह हर एक को अवश्य भुगतना पड़ता है। न्यायाधीश ईश्वर के न्याय से कोई भी बच नहीं सकता।

वह नियामक हैं। स्वयं नियम रूप हैं, उसका हर काम नियमपूर्वक हो रहा है। ग्रह नक्षत्र क्षण भर आगे पीछे उदय अस्त नहीं हो सकते। गेहूँ से गेहूँ ही उत्पन्न होता हैं, वस्तुएं अपने-अपने गुण धारण किये रहती हैं। कभी कभी जो अनियमितता दिखाई देती है वह भी किन्हीं सूक्ष्म नियमों आधार पर ही होती हैं। जो व्यक्ति ईश्वरीय नियमों पर चलते हैं, प्राकृतिक जीवन बिताते हैं, कर्तव्य धर्म में स्थिर रहते हैं वे ईश्वर की आनन्द की सृष्टि का आनन्द आस्वादन करते हैं जो उन नियमों को उल्लंघन करते हैं वे हानि उठाते हैं। अग्नि बंडी दयालु हैं वह हमारा शीत निवारण करती हैं। भोजन पकाती हैं, वाष्प यंत्र चलाती हैं अन्य अनेक प्रकार लाभ पहुँचाती हैं पर यदि अग्नि से नियम विरुद्ध हुआ जाय तो हाथ जला देगी। बिजली से हमें अनेकों लाभ होते हैं पर उसे गलत तरह छुएं तो प्राण लेने में कोई रिआयत नहीं करेगी। उसी प्रकार ईश्वर हमें अनेक सुख देता हैं पर यदि उसके नियमों का उल्लंघन करें तो वह नरक की भयंकर अग्नि में तपा डालने वाला क्रूर यमराज भी बन जाता है। उसके नियमों पर चलना ही ईश्वर की सर्वोत्तम पूजा है।

साधारण मनुष्यों का अन्तःकरण आत्मा कहलाता है। अविकसित होने के कारण उसकी जीव संज्ञा है। जब उसका विकास होता है तो अहंभाव विस्तृत होकर बसुधैव कटुम्बकम् के रूप में परिणत हो जाता है। सब अपने आत्मीय दिखाई पड़ने लगते हैं, सबमें आत्मा और आत्मा में सब, समाये हुए दिखाई पड़ते हैं तो वह लघु आत्मा परम आत्मा (परमात्मा) महान आत्मा (महात्मा) बन जाता है। विश्व की दृष्टि में आत्मा ही विश्वात्मा या परम आत्मा हैं। इसे ही समाज पुरुष, विराट भगवान, जनता जनार्दन, आदि नामों से भी पुकारते हैं। विश्व मानव की उपासना, समाज पुरुष की सेवा, भगवान ‘ॐ’ की ही आराधना है। गीता के 10 वे अध्याय में भगवान ने बताया है कि- वृक्षों में पीपल, पशुओं में गौ, मनुष्यों में ब्राह्मण, नक्षत्रों में चन्द्रमा, ग्रहों से सूर्य, इंद्रियों में मन, पर्वतों में हिमालय, पक्षियों में गरुड़, नदियों में गंगा, मन्त्रों में गायत्री मंत्र, ऋतुओं में बसन्त मैं हूँ। अर्थात् जो जो श्रेष्ठ, सात्विक, सुदृढ़ एवं उपयोगी विभूतियाँ हैं उनमें मेरे ही अंश की अधिकता हैं। जिन विचार धाराओं में, व्यक्तियों में, वस्तुओं में इस प्रकार के तत्व अधिक हैं उनमें ईश्वरीय कलाओं की विशेषता अनुभव की जा सकती हैं। जहाँ प्रभु का निवास होगा वहाँ निर्णय पूर्वक श्रेष्ठता, सात्विकता, दृढ़ता एवं परोपकार की प्रधानता होगी। तलाश करने पर अनेक स्थानों पर हम प्रभु का ऐसा निवास ढूँढ़ सकते हैं और उसकी झाँकी करके अपने को तृप्त कर सकते हैं। इसीलिए कहा गया हैं कि सत्संग में भगवान का निवास होता हैं। प्राचीन काल में सत्पुरुषों का निवास अधिक रहने के कारण तीर्थों की महिमा हुई भी और तीर्थयात्रा को पुण्य फल माना जाता था। आज भी जहाँ महापुरुषों का निवास है वह स्थान प्रत्यक्ष तीर्थ ही हैं।

राम, कृष्ण आदि की सुन्दर छवियाँ एवं उनकी गुणावली का ध्यान करना अपनी, अन्तिम उन्नति का आदर्श एवं लक्ष्य स्थापित करना हैं। बड़े बड़े भवन बनाने होते हैं तो पहले उनका छोटा मॉडल बना लिया जाता हैं, उस के आधार पर विशाल भवन बनता हैं। हमें स्वास्थ्य, सौंदर्य, बल, गुण, विशेषता आदि की दृष्टि से आत्म निर्माण के जिस लक्ष्य तक पहुँचना हैं उस मॉडल से अनन्य प्रेम एवं प्राप्ति की उत्कट अभिलाषा उत्पन्न करने के लिए भगवान की कल्पित मूर्तियों का ध्यान किया जाता है। मंदिर मठ आदि आत्मिक ज्ञान के प्रचार केन्द्र हैं। उस केन्द्र के कार्यकर्ताओं की सम्मानपूर्वक आजीविका चलाने के लिए मंदिरों में भोग, चढ़ावा, पूजा आदि की विधि व्यवस्था बनाई गई थी। आज वह सब पद्धतियाँ बड़ी गड़बड़ हो गई हैं। अनाचार धूर्तता और मूर्खता का बोल बाला हैं पर प्रयत्न करने पर आदर्शों को पुनः सजीव किया जा सकता है, और भगवत् पूजा के आधार पर धर्म, समाज, राष्ट्र संस्कृति एवं सामाजिक सदाचार के पुनः उद्धार के विशाल आयोजन किये जा सकते हैं। इसके लिए मन्दिरों, मठों एवं पुरोहितों को सुधार कर उनसे केन्द्र बिन्दु का कार्य लिया जा सकता है।

गायत्री का प्रथम अक्षर ‘ॐ’ हमें इन्हीं बातों की शिक्षा देता है। यह ईश्वर का सर्वश्रेष्ठ चेतना के साथ संबंधित होने की साधना अपने आप होती चलती है। यह ईश्वर का स्वयं घोषित सबसे छोटा नाम है। साथ ही गायत्री गीता में बताया हैं कि वह ईश्वर न्यायकारो, प्रभु, समदर्शी, अविनाशी, चैतन्य, आनंदस्वरूप, नियमरुप, निराकार एवं विश्व आत्मा हैं। इन नामों में जो महत्वपूर्ण तत्व ज्ञान छिपा हुआ है उसे जान कर उस को आचरण रूप से लाकर हमें ॐ की उपासना करनी चाहिए।

‘ॐ’ में तीन अक्षर मिले हुए हैं अ, उ,म्। ‘अ’ का अर्थ हैं आत्म परायणता, शरीर के विषयों से मन हटा कर आत्मानंद में रमण करना। ‘उ’ का अर्थ हैं- उन्नति, अपने को शारीरिक मानसिक, सामाजिक, आर्थिक एवं आत्मिक सम्पत्तियों से सम्पन्न करना। ‘म’ का अर्थ हैं- महानता, क्षुद्रता संकीर्णता, स्वार्थ परता, इंद्रिय लोलुपता को छोड़ कर प्रेम, दया, उदारता, सेवा, योग, संयम एवं आदर्श के आधार पर जीवन यापन की व्यवस्था बनाना। इन तीनों अक्षरों में जो शिक्षा है उस अपना कर व्यवहारिक रूप से ‘ॐ’ की, ईश्वर की उपासना करनी चाहिए।


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