साहित्य का वास्तविक रूप

February 1951

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(श्री केशव बलवन्त किलेदार, ग्वालियर)

साहित्य का वास्तविक रूप देखते हैं कि साहित्य किसे कहते है। इस कोटि में कौन सा साहित्य माना जा सकता है। वैसे तो लघु कथा, कहानी, उपन्यास, आत्म चरित्र, निबन्ध आदि सभी वाँगमय या साहित्य के अंतर्गत आते हैं, किन्तु वास्तविक साहित्य के विद्वानों ने 3 भेद किये हैं -

1-क्षणिक, 2-अक्षर, 3-प्रासादिक।

अन्य प्रकार का लिखित ब्योरा (धोबी की डायरी, हिसाब की बही) आदि साहित्य नहीं कहलाये जा कहते।

जिस वाँगमय में सत्यं, शिवं, सुन्दरं की मात्रा समान तथा पूर्ण रूप से निहित होती है वही साहित्य साहित्य की कोटि में आ सकता है।

क्षणिक वाँगमय में आकर्षण होता हैं। उसमें सुंदरम् का गुण विशेष रूप से व्याप्त रहता है, इसीलिए उसमें आकर्षण होते हुए उसका अस्तित्व भी क्षणिक रहता है। इस प्रकार का साहित्य समाज में संकल्प-विकल्प की प्रवृत्ति निर्माण करके चंचलत्व उत्पन्न करता है। अतएव साहित्यिक दृष्टि से इस प्रकार के साहित्य का कोई मूल्य नहीं हैं।

वास्तविक साहित्य वही हैं जो समाज को उन्नत अवस्था में ले जावे। इस प्रकार का साहित्य अक्षर वाँगमय हो सकता है। अक्षर वाँगमय आदर्श होता है। आदर्श होने के कारण ही वह अक्षर, अमिट या स्थिर कहलाता है। जिस वाँगमय में सत्यता का गुण अधिकाँश में हो, वही अक्षर या आदर्श साहित्य कहलाता है। जिस साहित्य का प्रभाव पाठक पर एक मार्ग प्रदर्शन के रूप में कार्य करता है, तथा अनेक भ्रमोत्पादक आकर्षक साधनों से पाठक सत्य से दूर हो जाता हैं, ऐसी अवस्था में नायक के सहारे, उसके चरित्र चित्रण के आधार पर वह सत्यता की खोज करके उसके अधिक समकक्ष पहुँचने का प्रयास करता है। इसे हम उच्चतर साहित्य की कोटि में रख सकते हैं।

इस प्रकार के साहित्य के भण्डार से पशुता से मानवता तथा मानवता से देवता के कोटि तक पहुँचने की क्षमता प्रदान करने का समर्थ इसी प्रकार के साहित्य में हो सकती है।

इसके अतिरिक्त एक प्रासादिक वाँगमय होता है जिसमें यह दैवी शक्ति रहती है कि पाठक को सहज ही अपनी ओर आकर्षित करके उसको उन्नत अवस्था में पहुँचाती है। इसे हम उच्चतम साहित्य कहते हैं।

पाठक स्वयं का विकास जिन अनुभव सिद्ध, दैवी स्फूर्ति से सृजित वाँगमय को आधारित करके अपना जीवन लक्ष्य सिद्ध करता है, वही है प्रासादिक वाँगमय। जैसे-मीरा, कबीर, तुकाराम, एकनाथ आदि अशिक्षित किन्तु सिद्ध-सन्तों का साहित्य मानव को बिना प्रयास के ही साधक से सिद्ध बना देता है। इसी प्रकार का आध्यात्मिक साहित्य अन्य, महापुरुषों का प्रासादिक साहित्य कहलाता है।

किन्तु आधुनिक युग में प्रायः देखने में यह आता है कि साहित्यक केवल ऐसे ही साहित्य का सृजन करते हैं जैसी लोगों की अभिरुचि होती है। यह केवल धनोपार्जन की दृष्टि से हितकर हो सकता है, किन्तु वास्तविक सच्चे साहित्यकारों का कर्तव्य यह नहीं कहलाता कि जैसी रुचि हो वैसा साहित्य निर्माण करें। यह तो इसी प्रकार हुआ कि जिस प्रकार रोगी जो चाहे वही दवा डॉक्टर देवें किन्तु प्रायः ऐसा नहीं हुआ करता। डॉक्टर जो चाहता है वही दवा रोगी को दी जाती है।

उसी प्रकार साहित्यकारों को जिस प्रकार का समाज निर्माण करना है उसी प्रकार का साहित्य सृजन उन्हें करना चाहिये।

एक ही बात को कलात्मक पूर्ण ढंग से प्रदर्शित करना यह चतुर साहित्य कलाकार की चतुरता है।

गूढ़ विषय को सरलता से प्रतिपादन करके पाठक के हृदय में बैठने की कला कुछ इने-गिने व्यक्तियों को ही साध्य होती है।

कला पूर्ण तथा रसप्लावन युक्त साहित्य का तर-तम रूप ही मानवीय समाज का भविष्य उज्ज्वल तथा उच्च धरातल पर पहुँचने का रहस्य हो सकता है।

हमें उच्च कोटि के साहित्य से ही प्रेम करना चाहिये, न कि केवल मनोरंजन के लिये लघुकथा व उपन्यास पढ़ कर अपना दिल बहला लिया।

इस प्रकार के साहित्य से अर्थ तथा समय की हानि के अतिरिक्त बहुमोल जीवन का भी नाश होने की पूर्ण संभावना होती है।


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