अनेकता में एकता की झाँकी

February 1951

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(स्वर्गीया श्रीमती सरोजिनी नायडू)

उद्गम, मूल और पृथ्वी की गहराई के भीतर से पानी निकलता है, किन्तु वह बहुत सी धाराओं, नदियों और सहायक नदियों में चला जाता है। पृथ्वी के गर्भ से अनेक बीजों को जन्म देने वाला एक बीज छोटे से वृक्ष के रूप में निकलता है और वह वृक्ष बढ़ता जाता है तथा शाखाएँ फैलती जाती हैं। कुछ शाखाएँ नीचे की ओर मुड़ जाती हैं और कुछ ऊपर चली जाती हैं। नीचे की ओर झुकी हुई और कुछ सीधी चली जाती हैं। नीचे की ओर झुकी हुई और थके हुए लोगों को आश्रय देने वाली तथा ऊपर की ओर बढ़ने वाली सभी शाखाओं का पोषण उसी एक जड़ से होता है जो पृथ्वी के भीतर से निकलती है। किन्तु क्या कोई शाखा यह कहेगी कि मैं भिन्न हूँ? बसन्त ऋतु में सभी में एक सी कलियाँ और एक सी कोपलें निकलती हैं किन्तु बसन्त ऋतु भी सीधी शाखा से यह कह कर उनमें भेद नहीं रखती हैं कि “देखो” मैंने अपना सौंदर्य तुम को दिया है, दूसरी शाखाओं को नहीं दिया हैं।” और इसी से हम कहते हैं कि सभी धर्म और मत एक ही उद्गम से निकलते हैं।

मैं यह नहीं कहती कि यह ईश्वर से आती हैं। मैं तो यह कहती हूँ कि यह हमारे लिए ईश्वर की आवश्यकता से आती हैं। मैं यह नहीं कहती हूँ कि ईश्वर ने मनुष्य अत्यधिक आवश्यकता के वशीभूत होकर नित्यप्रति ईश्वर को उत्पन्न करता है। आखिरकार सर्वोच्च तत्व के हमारे अनुभव के अतिरिक्त ईश्वर है ही क्या? सौंदर्य, सत्य, प्रेम, बुद्धिमता और साहस की हमारी आवश्यकताओं के मूर्तरूप के अतिरिक्त ईश्वर और क्या हैं?

सर जगदीशचन्द्र के बगीचे में पत्थर का बना हुआ एक खाली मन्दिर है। जब मैं (कलकत्ता) विश्वविद्यालय में लेक्चर दे रही थी उसी बीच में एक दिन, यह बात अन्तिम दिन की है, मैं उनके साथ घूमती हुई उनके बगीचे में गई। उन्होंने मुझ से कहा, “क्या आप को आज के भाषण का विषय मिल गया है?”

मैंने उत्तर दिया, “नहीं।”

तब उन्होंने कहा कि, “यहाँ पर आप को अपने भाषण का विषय मिल जायगा।”

मैं उनके साथ घूमती रही और चिड़ियों, पेड़ों और प्रतिमाओं को देखती रही। अन्त में मैं उस खाली मन्दिर के सामने जा खड़ी हुई। उस समय उन्होंने कहा- “हे कवि, क्या आपको अपना सन्देश मिल गया है?”

मैंने उत्तर दिया- “हाँ मिल गया हैं।” इस खाली मन्दिर में प्रत्येक पुजारी को ज्ञान हो जायगा कि मैं स्वयं अपनी ही जीवात्मा के प्रतिबिम्ब में ईश्वर को उत्पन्न करता हूँ? संसार के सब बड़े-बड़े सन्तों और धर्मोपदेशकों का विश्व के लिए यही सँदेश है उनके लिए मन्दिर सदैव खाली रहता था, क्योंकि वह सदैव तैयार रहता था। वह उनके देवता को सदैव रखने के लिए तैयार रहता था, क्योंकि वह सदैव तैयार रहता था। इस बात की कोई परवाह न थी कि वे एक क्षण के लिए मुसलमान, ईसाई, कनफ्यूसियन धर्मानुयायी, पारसी, सिक्ख अथवा अन्य किसी धर्मावलम्बी की आत्मा में प्रवेश कर जाते थे। वे कहते थे कि ‘यहाँ मानव-जाति का एक मन्दिर हैं और मानव जाति को एक ईश्वर अवश्य चाहिए। केवल प्रेम ही ईश्वर का एक प्रतिबिम्ब उत्पन्न कर सकता है और उस प्रेम से तुम परिमित नहीं हो जाते, वरन् तुम अनेक नामों से ईश्वर की पूजा करने वाली विशाल मानव जाति के एक अंग बन जाते हो। चाहे तुम ‘अल्लाह अकबर’ कहो या पारसियों के अग्नि मन्दिरों के सामने प्रणाम करो, ईसाइयों के क्रास के सामने झुको या गुरुद्वारा में ग्रन्थ साहब के पास जाओ तुम सब में एकता का अनुभव करोगे। और तुम यह भी अनुभव करोगे कि तुम्हारी सहानुभूति समझ और ग्रहण शक्ति की तत्परता के सीमित हो जाने के अतिरिक्त कोई भी व्यक्ति तुम्हारी मानवता की सीमा नहीं निर्धारित कर सकता है।

केवल यही सँदेश मैं तुम्हें देख सकती हूँ, क्योंकि यही एक सँदेश मेरे पिता ने धर्म के रूप में मुझे सिखाया था। अपने लिए मैंने केवल यही एक धर्म जिसकी पुष्टि लड़कपन की मेरी शिक्षाओं से होती है, पाया है। वह सँदेश है एकता- अनेकता में एकता ढूंढ़ने की ही शिक्षा आदि काल से महापुरुष देते चले आये हैं।


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