(ले.-श्री स्वामी शिवानन्द जी)
जीवन क्या है? खाना, पीना, पचाना, साँस लेना आदि शरीर में नित्य होने वाले काम मात्र ही क्या जीवन हैं? अथवा क्या धन सम्पत्ति या नाम यश की प्राप्ति के लिए तरकीबों और उपायों का सोचना मात्र ही जीवन है? अथवा क्या सृष्टि की परम्परा को चलाने के लिये सन्तानोत्पत्ति करना ही जीवन है? वैज्ञानिक लोग कुछ भिन्न ही अर्थ लगाते हैं और श्री शंकराचार्य सरीखे दार्शनिक तो बिल्कुल ही भिन्न अर्थ लगाते हैं।
जीवन दो प्रकार का होता है, एक तो भौतिक तथा दूसरा आध्यात्मिक। वैज्ञानिकों का कथन है कि विचारना, जानना, इच्छा करना, साँस लेना इत्यादि जो कार्य हैं वही जीवन है। परन्तु यह जीवन अमर नहीं होता। ऐसा जीवन दुःख, सुख, चिन्ता, आपत्ति, विपत्ति, पाप, बुढ़ापा, रोग इत्यादि का आखेट बना रहता हैं। अतएव प्राचीन महर्षियों, योगियों और तपस्वियों ने, जिन्होंने अपने वित्त और इन्द्रियों को अपने वश में करके त्याग और तप, आरोग्य और अभ्यास इत्यादि के बल से, अपने आत्मा को पहचान लिया है, निश्चयपूर्वक कहा है कि जो आत्मा में रत है केवल मात्र वही स्थायी और असीम आनन्द एवं अमरत्व प्राप्त कर सकता हैं। उन्होंने मनुष्यों के भिन्न भिन्न स्वभाव, योग्यता और रुचि के अनुसार आत्म-साक्षात्कार के लिए विभिन्न निश्चित मार्ग बतलाया है। जिन लोगों को महात्माओं में, वेदों में और गुरु के वचनों में अटूट श्रद्धा है वे आध्यात्मिक और सत्य के मार्ग पर निर्भीक विचरते हैं और स्वतन्त्रता, पूर्णता या मोक्ष प्राप्त करते हैं, वे लौट कर फिर मृत्युलोक में नहीं आते, वे सच्चिदानन्द ब्रह्म में या अपने ही स्वरूप में स्थिर रहते हैं। यही मानव-जीवन का ध्येय एवं परम उद्देश्य है, यही अन्तिम लक्ष्य है, जिसके अनेक नाम यथा--निर्वाण, परमगति, परमधाम और ब्राह्मी स्थिति। आत्म-साक्षात्कार के लिए प्रयत्न करना ही मनुष्य का परम कर्तव्य है।
परन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं कि हम भौतिक जीवन की उपेक्षा करें! भौतिक जगत भी परमेश्वर या ब्रह्म का ही स्वरूप हैं जिसको कि उसने अपनी लीला के लिए बनाया है। अग्नि और उष्णता, बरफ और शीत, पुष्प और सुगन्धित की भाँति जड़ और चेतन अभिन्न और एक हैं। ब्रह्ममय शाश्वत जीवन प्राप्त करने के लिये भौतिक जीवन एक निश्चित साधन हैं। संसार आपका एक सर्वश्रेष्ठ शिक्षक हैं, पंचतत्व आप के गुरु हैं। प्रकृति आपकी माता और पथ-प्रदर्शिका हैं, वही आपकी ‘मूक-शिक्षिका’ हैं। यह संसार दया, क्षमा, सहिष्णुता, विश्व-प्रेम, उदारता, साहस, धैर्य महत्वाकाँक्षा इत्यादि दिव्य गुणों के विकास के लिये एक सर्वश्रेष्ठ शिक्षालय हैं। यह संसार आसुरी स्वभाव से युद्ध करने के लिए एक अखाड़ा है और अपने भीतर की दैवी-शक्ति को प्रकाश में लाने के लिये एक दिव्य क्षेत्र है। गीता और योग-वाशिष्ठ की मुख्य शिक्षा यही है कि मनुष्य को संसार में रहते हुए आत्म-साक्षात्कार करना चाहिए। जल में कमलपत्र की भाँति संसार में रहते हुए भी उसके बाहर रहिये। स्वार्थ, काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष आदि नीच आसुरी स्वभाव को त्याग कर मानसिक त्याग और आत्म-बलिदान का दिव्य स्वभाव धारण करिये।
क्या जीवन में खाने पीने और सोने से अधिक उत्तम अन्य कोई (उद्देश्य) है ही नहीं? मानव-योनि प्राप्त करना दुष्कर है, अतएव इसी जीवन में आत्मा को प्राप्त करने की भरपूर चेष्टा करिये। राजा महाराजाओं को भी काल कवलित कर लेता है। आज युधिष्ठिर, अशोक, बाल्मीकि, शेक्सपियर, नेपोलियन आदि कहाँ हैं? इसीलिये यौगिक साधनाओं में लग जाइये, तभी आप परमानन्द की प्राप्ति कर सकेंगे। ताश, सिनेमा और धूम्रपान में व्यर्थ समय को बिताने से क्या आपको असली शाँति मिल सकती है? इस साँसारिक जीवन में इन्द्रियलोलुपता और विषय-वासना के क्षणिक सुख में भटकते रहने से क्या, आपस के लड़ाई झगड़े में या व्यर्थ के बकवास में क्या आपको सच्चा आनन्द मिल सकता है?
अपने आदर्श और लक्ष्य तक पहुँचने के लिये संग्राम करते रहना ही जिन्दगी है। इस संग्राम में विजय प्राप्त करना ही जीवन है। अनेक प्रकार की जागृतियों को ही जीवन कहते है। मन और इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करिये, ये ही आपके असली शत्रु हैं। अपनी वाह्य और पुरानी बुरी आदतों तथा कुविचारों को, कुसंस्कारों और कुवासनाओं को अवश्य जीतना होगा, इन पैशाचिक शक्तियों से युद्ध करना होगा और विजय प्राप्त करनी होगी। अधःपतन की ओर ले जाने वाली वासनाओं पर पूर्ण नियंत्रण रखना होगा।
आपका जन्म ही आत्म-साक्षात्कार करने के लिए हुआ है। नियमित रूप से संकीर्तन करिये ओर आत्मिक सुख कर अनुभव करिये। निष्काम कर्म के द्वारा अपने मन और बुद्धि को शुद्ध करिये। इन्द्रिय-निग्रह से अपने ही स्वरूप में स्थिर होइये। जीवन संग्राम में जब आप पर प्रतिदिन चोटें पड़ती हैं, जब आप धक्के खाते हैं। तभी मन आध्यात्मिक पथ की ओर ठीक झुकता है और तब साँसारिक विषयों से अन्यमनस्कता उत्पन्न होती है, और अरुचि होती है, इस प्रपंच से उद्धार पाने की उत्कृष्टता जागृत होती है, विवेक और वैराग्य होता है। अतएव गम्भीर धारणा और ध्यान में लग जाइये।
मनुष्य की आयु अल्प है और समय तीव्र गति से चला जा रहा है। संसार विपदाओं से भरी हैं। अतएव अविद्या ग्रन्थि को काट कर निर्वाणिक आनन्दामृत का छक कर पान करिये।
आध्यात्मिक जीवन निरोगल्प नहीं है, केवल आदेश मात्र नहीं हैं। यही सच्चा आत्म स्वरूप जीवन हैं, यह विशुद्ध आनन्द और सुख का अनुपम अनुभव है। इसी को पूर्णता-प्राप्त जीवन कहते हैं। एक स्थिति ऐसी होती हैं जहाँ सदा शाश्वत शान्ति ओर केवल अनन्त आनन्द ही आनन्द हैं, परमानन्द हैं। वहाँ न तो मृत्यु हैं और न वासनायें ही वहाँ न दुःख हैं न दर्द, भ्रम हैं न शंका। क्या आप इस अक्षय आनन्द और ‘परम सुख’ के अमरत्व की प्राप्ति के लिए लालायित नहीं है? यदि हैं तो आइये अपने मन और इन्द्रियों पर संयम रखिये, सद्गुणों को सीखिये, आत्मा के सच्चे स्वरूप को जानने की चेष्टा करिये तभी आप उस अतीव गम्भीर असीम आनन्द एवं अमरत्व को पा सकेंगे, केवल तभी आप अमर पद तक पहुँच सकेंगे। इस शरीर को ही आत्मा समझ लेना सबसे बड़ा पाप है, इस भ्रमात्मक भाव को त्याग दीजिये।साँसारिक महत्वाकाँक्षाओं की पूर्ति के लिए उपाय करना, तरकीबों का सोचना, विचारना, झूठे मनसूबे बाँधना ख्याली पुलाव बनाना छोड़िये, चिर-पालित मायाविनी आशाओं को तिलाँजली दीजिये, वासनाओं और इच्छाओं का दमन कर उनसे ऊपर उठिये। बुद्धि से काम लीजिए उपनिषदों का मननपूर्वक अध्ययन करिये। नियमित रूप से नित्य निदिध्यासन करिये।
अविद्या और अज्ञान के गहन अन्धकूप से बाहर निकलिए और ज्ञानरूपी सूर्य की जगमगाती ज्योति में स्नान करिए। इस ज्ञान में दूसरों को भी साथी बनाइये। अपवित्र इच्छायें और अविद्या आपको बहका लेती हैं। अतः इसे भी कभी मत भूलिये कि मानव जीवन का मुख्य उद्देश्य और अन्तिम लक्ष्य आत्म-साक्षात्कार करना ही है। झूठे बाह्य आडम्बरों और माया के मिथ्या प्रपंचों में मत फसिये। कल्पना के मिथ्या स्वप्नों से जागिये और थोथे, सारहीन प्रलोभनों के जाल में न फंसकर ठोस और जीती-जागती असलियत को ही पकड़िये। अपने आत्मा से प्रेम करिये क्योंकि आत्मा ही परमात्मा या ब्रह्म हैं, यही सजीव मूर्तिमान सत्य है। आत्मा ही शाश्वत हैं। अतः आत्मा में ही स्थित होइये और तत्वमसि आप ही ब्रह्म हैं इसे पहिचानिये। यही वास्तविक जीवन है।
कर्मयोग का अभ्यास जिज्ञासु के मन को आत्मज्ञान ग्रहण करने के योग्य बनाता है और उसे वेदान्त के अध्ययन का योग्य अधिकारी बना देता है। कर्म योग की प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त करने के पूर्व ही मूढ मानव ‘ज्ञान-योग के अभ्यास में असमय ही कूद पड़ते हैं। यही कारण हैं ऐसे लोग सत्य की प्राप्ति में बुरी तरह फेल होते हैं। उनका मन अपवित्र रह जाता हैं तथा अनुकूल और प्रतिकूल भावनाओं से भरा रहता है। वे ब्रह्म की कोरी बात ही बात करते हैं, तथा व्यर्थ बकवाद शुष्क वाद-विवाद और तत्वहीन तर्क-वितर्क में फँसे रहते हैं। उनका दार्शनिक ज्ञान उनकी जिहृा तक ही सीमित रहता है या कहिये कि वे लोग केवल मौखिक-वेदान्ती हैं आवश्यकता तो ऐसे वेदान्त की है जिसके द्वारा सब में आत्मभाव रखते हुए देश और मानव समाज की, अनवरत निःस्वार्थ सेवा क्रियात्मक रूप से हो सके।
अपने हृदय में प्रेम की ज्योति जगाइये, सबको प्यार करिये, अपनी प्रगाढ़ प्रेम की बाहुओं से प्राणी मात्र को आलंगन करिये। प्रेम एक ऐसा रहस्यमय दिव्य सूत्र है जो सबके हृदय को ‘वसुधैव कुटुम्बकंम्’ समझ कर एक में बाँध लेता है। प्रेम ऐसी पीड़ानाशक स्वर्गीय महौषधि है जिसमें जादू की सी सामर्थ्य है। अपने प्रत्येक काम को विशुद्ध प्रेममय बनाइये। लोभ, धूर्तता, छल, कपट और स्वार्थ-परता का हनन कीजिये। अनवरत दयालुता के कार्यों से ही अमृतत्व की प्राप्ति हो सकती है। प्रेम में सने हुए हृदय-कमल प्रस्फुटित और ऊर्ध्वमुखी होकर ईश्वरीय प्रकाश का ग्रहण करने के योग्य बन जाता है।
ईश्वर करे आप साँसारिक कर्तव्यों को पूरा करते हुए श्रद्धा और भक्ति से ईश्वर का गुण गाते हुए अपने आदर्श दिव्य-जीवन में चिरशान्ति और शाश्वत आनन्द का अनुभव करें।