प्रयाण-गीत

February 1951

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सुलगता पवन है, धधकता गगन है, धरा जल रही, मैं चला जा रहा हूँ।

निरन्तर रहे लक्ष्य ही दृष्टि-पथ में,

लिये मैं अमिट राग, आगे बढूँगा।

चलूँगा विषम कराटाकों को कुचलता,

शयन सान्द्र चिनगारियों पर करूंगा॥

निविड़ हैं तिमिर, पर लिये लौ अचंचल, उसी ओर हँसता चला जा रहा हूँ।

उमड़कर घटायें करें वन्हि वर्षा,

गिरें बिजलियाँ व्योम-तल से तड़पकर।

रहें फूटते पाँव के तप्त छाले,

रहूँगा प्रगतिमान मैं इष्ट पथ पर॥

शिला-भृंगशत्त चुभे जा रहे किन्तु, मैं मुस्कराता चला जा रहा हूँ।

सुधा के कलश की नहीं चाह मुझको,

विषम प्यास मेरी चुभेगी गरल से।

खिली वाटिकाएँ डिगा क्या सकेंगी,

अमय खेलता मैं अनिल से, अनल से॥

मुझे हार भी हार हैं,मै निरन्तर, विजय-गीता गाता चला जा रहा हूँ।

(श्री महाबीर प्रसाद विद्यार्थी, बी. ए. साहित्यरत्न)


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