साँई इतना दीजिये, जामें कुटुम्ब समाय।
मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु न भूखा जाय॥
कागो काको धन हरे, कोयल किसको देत।
लसी मीठे वचन से। जग अपनों कर लेत॥
तरुवर, सरबर, सन्तजन, चौथौ वरसे मेह।
परमारथ के कारणों, चारों धारी देह॥
तुलसी आय संसार मे, कर लीजे दो काम।
दिन का टुकड़ा भली, लेन को हरि नाम॥
तुलसी इस संसार में, भाँति-भाँति के लाग।
सबसे हिलमिल चलिये, नदी-नाव संयोग॥
लघुता से प्रभुता मिले, प्रभुता से प्रभु दूर।
लघुता बिन प्रभुता नहीं, लघुता घट में पूर॥
हारा उसको हरि मिला, जीता उसको यम।
कहत कबीर सुणो भाईसाधो, सबसे बड़ी है गम
चिड़ी चोंच भर लेगई, नदी न घटियो नीर।
दान दिये धन ना घटे, कह गये भक्त कबीर॥
दया धर्म हिरदे बसै, बोले अमृत बैन।
हो ऊंचे जानिये, जिनके नीचे नैन॥
हरि सा हीरा छाड़ि के, करे और की आस।
जो नर यमपुर जाइ हैं, सत्भाषे रैदास॥
जाकी जैसी बुद्धि है, वैसा कही बताय।
उसका बुरा न मानिये, अधिक कहाँ से लाय॥
आत्म समर्पण होत जहाँ, जहाँ विशुभ्र बलिदान।
पर मिटवे की साध जहाँ, तहाँ है श्री भगवान॥
मन, बड़ाई, प्रेमरस, गरुआपन और निहुँ।
पाँवौ तब ही गये, जब कहा-कछ देहुँ॥
सहज मिले से दुग्ध सम, माँगे मिले से पानी।
कहे कबीर वह रक्त सम, जिसमें खींचा तानी॥
तिय माता सम गिने, पर धन धूरि समान।
अपने सम सबको गिने, यही ज्ञान विज्ञान॥
रहिमन विपदा हूँ भली, जो थोड़े दिन होय।
हित अहित या जगत में, जानि परे सब कोय॥
अस्थि, चर्ममय, देह मम, तामें जैसी प्रीत।
वैसी जो श्री राम में, हो तो क्यों भवभीति॥
उद्यम कबहुँ न छोड़िये, पर आशा के मोद।
गगरी कैसे फोड़िये, उनयो देखि पयोद॥
पर नारी पैनी छुरी, कोई मत लागो अंग।
रावण के दस शिर गये, पर नारी के संग॥
पर नारी पैनी छुरी, नीन ठौर ते खाय।
धन हरे, योवन हरे, मरे नरक ले जाय॥
माला मन से लड़ पडी, क्या फेरे तू मोहि।
तेरे हृदय में साँच हैं, तो राम मिलादू तोहि॥
मनका फेरत जुग गया, गया न मन का फेर।
करका मन का छोड़िके, मन का मन का फेर॥
तीर्थ गये जो तीन जन, मन चंचल चित चोर।
एका पाप न काटिया, सौ मन लादा और॥
निरवल युगल मिलाय करि, काम कठिन बनजात।
अंध कंध पर बैठि के, पंगु यथा फल खात॥
अति परिचय ते होत हैं, अरुचि, अनादर, भाय।
मलिया गिरि की भीलनी, चन्दन देत जराय॥
अति अनीति लहिये न धन, जो प्यारो मन होय।
पाये सोने की छुरी, पेट न मारत कोय॥
अपनी पहुँच विचार के, करतब करिये दौर।
तेते पाँव पसारिये, जेती लाँबी सौर॥
अर्ध नाश गृहणी चरित, औ मन को संतोप।
नीच वचन अपमान को, बुध जन कहत न आप॥
अतिहिं काप कटु वचन हू, दारिद नीच मिलान।
सुजन बैर अकुलिन टहल, यह पर नर्कनिशान॥
अस्परधा बलवन्त सों, परनारी परतीत।
स्वजन बैर, अकुलिन टहल, यही मृत्यु की रीति॥
आवत ही हर्षे नहीं, नैनन नहीं सनेह।
तुलसी तहाँ न जाइये, कंचन बरसे मेह॥
(श्री हरखचन्द्र जैन, गुन्तूर)
(देश देशान्तरों से प्रचारित, उच्च कोटि की आध्यात्मिक मासिक पत्रिका)
वार्षिक मूल्य 2॥) सम्पादक - श्रीराम शर्मा आचार्य एक अंक का।)