हमारी संकुचित मनोवृत्ति

February 1951

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(श्री बाबा राघवदास जी)

भारतीय समाज के और खासकर हिन्द-समाज की ओर देखा जाय तो यह स्पष्ट दिखायी देगा कि हमारे समाज में धर्म की चर्चा भिन्न-भिन्न ढंग से होने पर भी हम धार्मिक नहीं बन रहे हैं। तीर्थ, स्नान, व्रत, नियम, उद्यापन, पूजा-पाठ आदि बातों में धर्म का नाम तो बड़े जोरों से लिया जाता हैं पर गौर से देखा जाय तो हमारे हृदय के एक कोने में यह सारा धर्म अपने या अपने कुटुम्ब के भौतिक सुख की कल्पना के अतिरिक्त आगे बढ़ना नहीं चाहता है। जो साधु संन्यासी हैं उनका धर्म भी घूम फिर कर अपने या अपने माने हुए परिवार तक ही सीमित रहता है। यही कारण है कि वेदान्त के सुन्दर, गम्भीर प्रवृत्त ज्ञान की थाली हमारे पास होने पर भी हम दोनों मलीन से बने हैं। इतने पूर्वकाल में संत हुए और आज भी हमारी आंखों के सामने ऐसे अनेक महापुरुष हैं फिर भी हमारा राष्ट्र पंगु ही बना बैठा हैं। इसका कारण वेदान्त के उपदेश का दोष नहीं पर वह दोष हमारे मनोवृत्ति में ही है कि हमें न कुटुम्बियों से बल्कि जिनको हम अपना बड़ा गुरु मानते हैं उन से भी यही शिक्षा मिलती है कि हमारा जीवन हमारे अपने लिये या उसके बाद कुटुम्ब के लिये ही बना हुआ हैं। उससे आगे चल कर देखें। मानव-समाज के सेवा की चर्चा तक उन्हें नहीं सुहाती। खासकर हमारे धार्मिक अगुवा बड़े, आचार्य, सन्त, महन्त सार्वजनिक सेवा तथा देश सेवा के काम में बाधा उपस्थित करने में अपना गौरव समझते हैं, अपना बड़प्पन मानते हैं। और हम भी अन्धे की तरह उनके पीछे-पीछे चलने में अपना भला समझते हैं। वे हमारे बड़े, हमारे धर्म के नाम पर हमें कैसी उदण्डता सिखाते हैं और फिर वे ही हमें या हमारे युवकों को नास्तिक कह कर उलाहना देते हैं। ये दोनों दृश्य दयनीय हैं।

मैंने पहले-पहले प्रयागराज में इन बड़े-बड़े साधु संन्यासी, उदासी, गदियों के मालिकों की उदण्डता देखी। कहाँ त्रिवेणी स्नान। और उसके लिए आये हुए लाखों धार्मिक भावना से युक्त स्त्री पुरुष बच्चे यात्री। दूर-दूर से अपने घर के करोड़ों का नुकसान करके गाड़ी या रास्तों में किस्म-किस्म के कष्ट उठा कर आये हुए यात्री। केवल इस भावना से कि प्रयागराज में संतों का दर्शन होगा, त्रिवेणी स्नान होगा और कहाँ वे हमारे ये संत महंत जो त्रिवेणी स्नान करने के लिए भी हाथी घोड़ों या सोने-चाँदी की पालकियों में बैठ कर जा रहे हैं। क्या उनका यह वैभव त्रिवेणी जी को दिखाना जरूरी हैं? क्या वे अपने स्थानों तक ही उसको सीमित नहीं रख सकते हैं? आखिर उनके इस वैभव प्रदर्शन की मंशा क्या है? क्या वे भोली-भाली जनता को अपना वैभव ही दिखलाकर मूढ़ना चाहते हैं? क्या दूसरे प्रभाव डालने वाले साधन, त्याग, तपस्या, भगवद्भाव के ज्ञान की चर्चा, विद्या आदि उनके पास नहीं रहती? दूसरी बात क्या यह वे नहीं अनुभव करते हैं कि चाहे वे थोड़ी देर के लिए इसे अपना ‘धर्म’ समझें। पर उसका अन्तिम परिणाम क्या यह होना सम्भव नहीं हैं कि देश के करोड़ों भुक्खड़ और नंग जिनको दिन भर काम करने पर भी पेट भर अन्न और तन भर कपड़ा नहीं मिलता है उनसे ईर्ष्या करने लग जायँ।

आज हम यह देखते हैं कि आज हमारे युवक समाज में यहाँ क्रान्ति का प्रचार करने में श्री रामकृष्ण परमहंस तथा भी स्वामी रामतीर्थ जैसे त्यागी संन्यासियों ने जहाँ काम किया हैं वहाँ इन हाथी घोड़े वाले महन्तों ने युवकों के हृदय में ईर्ष्या ही पैदा नहीं की बल्कि नास्तिकता का भी बड़े जोरों से प्रवाह प्रत्यक्ष रूप से किया है। हमारा राष्ट्र ध्येय से च्युत करने वाला राष्ट्रीय पाप भी।

इस प्रदर्शन से हम एक बात देखते हैं कि हमारा मौजूदा धर्म अपने में ही किस प्रकार समाया हुआ है। हमारा अखाड़ा, हमारी गद्दी, हमारा पंथ बस इसी में ही हमारा अभिमान, बड़प्पन रह गया। कहाँ हमारे लिए वसुधैव कुटुम्ब का पाठ पढ़ाने साले सन्त साधु संन्यासी और कहाँ ये साँसारिक कुटुम्ब को छोड़ कर उसके स्थान पर दूसरा परमार्थिक कहे जाने वाले कुटुम्ब की स्थापना करने वाले ये साधु संन्यासी उदासी। इस शिक्षा का स्वभाविक परिणाम हमारे समाज पर पड़ा हुआ है श्री भगवान ने श्री गीता में “बड़े जैसा आचरण करते है उसका अनुकरण छोटे भी करते हैं” यह जो कहा है वही हमारे समाज में हो रहा है यह है वेदान्त का प्रचार करने वालों की तरफ से वेदान्त का परिहास, उसकी घोर से घोर अप्रत्यक्ष रूप से निन्दा॥ जिनके सुपुर्द यह थाती की गई थी वे ही उसको बुरी तरह से लुटवा कर हिन्दू-समाज का ही सब खजाना खाली करवा रहे हैं। इसको देख कर कौन न तड़प उठेगा?

आज संसार में चारों ओर जो अशान्ति का उत्पीड़न अभाव अज्ञान एवं दारिद्रय के कारण करोड़ों स्त्री पुरुष उत्पन्न हो रहे हैं और हमारे ब्रह्म को ही सत्य और जगत को मिथ्या मानने वाले या चारों ओर राम ही देखने वाले साधु संन्यासी उदासी चुपचाप बैठ रहे हैं इस राक्षसी कृत्य के विरुद्ध ये आवाज उठाने के लिए भी तत्पर न हो इससे बढ़ कर ‘वसुधैव कुटुम्बकम के’ सिद्धान्त का अपमान और क्या होगा? क्या ये करोड़ों नर नारी वसुधा के अंतर्गत नहीं है? उसके बाहर हैं! फिर इतनी उदासीनता क्यों? क्या समय बीतने पर ही हमारा यह सर्वव्यापी धर्म हमारे काम आयेगा। बात असल में यह है कि हमारे इन आचार्यों का, महन्तों का वेदान्त या सत्संग अपने ‘कुटुम्ब’ तक ही सीमित रह गया है। उसके लिये शरीर में लकवा हो गया हैं। इस कारण उस पर बार-बार आघात होने पर भी उस पर कुछ असर नहीं होता है, वह अंग सुन्न हो गया है।

गृहस्थी में जो कुटुम्ब के भाव हमारे मन में थे वे ही भाव साधु संन्यासी उदासी होने पर भी हमारे अन्दर भरे पड़े हैं उसको छोड़ने में हम समर्थ नहीं हुए हैं और उसका कारण क्या है? उसका कारण थोड़ा ध्यान से, देखने से मालूम हो जायगा कि जैसे श्री स्वामी रामतीर्थ जी महाराज ने हमें हमारे विकास का परिचय कराने के लिए कई छोटे बड़े वर्तुल के बाद भगवान के चारों ओर या ब्रह्म का जो अन्तिम वर्तुल है उसी को लिए हुए बैठे हैं। बीच के बर्तुलों को हमने सर्वथा छोड़ दिया हैं।

जैसे एक आदमी सीढ़ी के पहले डंडे पर पैर रख के अपना दूसरा पैर उसके ऊपर के आखिरी डंडे पर रखे इस अवस्था में उस गरीब की जो दुर्गति होती है वह दुर्गति हमारी हो रही है। हमारा पड़ोसी, हमारा देश, हमारी मानव जाति ये सब सीढ़ियों के डंडे उन्नति के लिए बेकार ही हो जाते हैं।

क्या हमारे वेदांती धर्म का अध्ययन अध्यापन करने वाले महात्मा, पण्डित तथा साधु संन्यासी, उदासी इस वेदान्त के इस अंश पर भी ध्यान देने की कृपा करेंगे?


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