आहार का संयम भी एक उपवास है।

February 1951

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(डा. श्री लक्ष्मी नारायण टण्डन ‘प्रेमी’)

उपवास अनेक प्रकार के होते हैं। जो समय बेसमय अनाप-शनाप सभी करा करते हैं, ऐसे लोग यदि नियमित रूप से बँधे समय चौबीस घंटे में हल्का और सात्विक भोजन करें, तो उनके लिये वही उपवास है। उनके उपवास का श्री गणेश यहीं से होता है। बाद में धीरे-धीरे वह आगे और बढ़ सकते हैं।

जो लोग 12 घंटे के बाद दोपहर को भोजन करते हैं उनका भी नित्य आधा उपवास हो जाता है। यह भी एक प्रकार का उपवास ही है।

जो लोग प्रातःकाल पाखाने तथा कुल्ला-दातौन के बाद चाय-बिस्किट या मठरी-लड्डू मिठाई, पराँठे, पकवान आदि भारी नाश्ता करते हैं और फिर दुकान या दफ्तर जाने के लिए 9-10 बजे फिर ठूँस कर भोजन करके भागते हैं वे लोग यदि इस भारी नाश्ते को छोड़ कर केवल फलों और मेवा आदि का हल्का नाश्ता करें तो वह भी एक प्रकार से उपवास की पहली सीढ़ी पर कदम रखते हैं।

ज्यादा अच्छा हो कि नाश्ता करना बन्द ही कर दिया जाय। केवल नाश्ता बन्द कर देने से ही अनेक रोगी अच्छे हो चुके हैं। बात यह है कि रात को जब हम सोते हैं तो हमारा पाचन अंग भी विश्राम करता है। यदि सोकर उठते ही जब-तक आप में कुछ देर बाद स्फूर्ति न आ जाये आलस्य और खुमारी वाली स्थिति में यकायक आप पर भारी परिश्रम का काम डाल दिया जाय तो आप घबरा जायेंगे। उसी प्रकार इसके पूर्व कि हमारा पाचन-यन्त्र भोजन पचाने के योग्य हो, तैयार हो, यदि आप उस पर अन्न पचाने का भार डाल देंगे और वह भी हल्का-फुल्का नहीं। तो पाचन-यंत्र अपना कर्तव्य ठीक न कर सकेंगे। अस्तु नाश्ता छोड़ देना भी एक प्रकार का उपवास ही है। यदि आप सच्ची आरोग्यता चाहते हैं तो खूब तेज भूख लगने पर ही, सादा भोजन, खूब चबा कर शान्त और प्रसन्न मन से खाइए।

अमरीका तथा इंग्लैंड में अनेक ऐसी संस्थाएं बनी हैं जो जल-पान छुड़ा कर लोगों को स्वस्थ करती हैं। स्वयं महात्मा गाँधी जब अफ्रीका में थे, तब उन्होंने भी जल-पान करना छोड़ कर स्वास्थ्य-लाभ किया था। प्रसिद्ध प्राकृतिक-चिकित्सक डॉक्टर डेबी कहते हैं -

“जिस दिन मैंने पहले पहल जल-पान छोड़ा था उस दिन मेरा शरीर और मन इतना हल्का और प्रसन्न हुआ जितना कभी बाल्य या युवा अवस्था में नहीं हुआ था। दोपहर के समय खूब भूख लगने पर मैंने बहुत अच्छी तरह भोजन किया। उस समय भोजन बहुत स्वादिष्ट जान पड़ता था। रात भर सोने के बाद प्रातःकाल कभी स्वाभाविक भूख नहीं लगती। सोना कोई ऐसी क्रिया नहीं है, जिससे कि उसकी समाप्ति पर ही भूख लग आवें।

अनेक साधारण लोग तो केवल जल-पान छोड़ देने से ही अच्छे हो जाते हैं।

कुछ लोग अन्न छोड़ देते हैं और केवल फलाहार करते हैं। अनेक धार्मिक व्रतों में भी ऐसा होता है। यह भी एक प्रकार का उपवास ही है। प्रोफेसर एरनाल्ड एहरेड ने कहा है- “यदि किसी को बचपन से ही श्वेतसार-विहीन खाद्यों पर पाला जाय और उसे केवल फल खिलाये जाय तो इसमें कोई सन्देह नहीं कि न तो वह कभी बीमार पड़ेगा न कभी बूढ़ा होगा।” शाक-भाजी खाकर रहना भी इसी के अंतर्गत है। पर लम्बा उपवास केवल फल, शाक-भाजी, कन्द-मूल आदि पर, किसी विशेषज्ञ की देख-रेख में रहना चाहिए। कुछ लोग ठोस फल भी नहीं केवल रसाहार पर ही रहते हैं। यह तो फलाहार से भी अच्छा उपवास है। हम जानते हैं कि पृथ्वी (मिट्टी) से सूक्ष्म जल, जल से सूक्ष्म, वायु से सूक्ष्म सूर्य का प्रकाश (अग्नि) और सबसे सूक्ष्म आकाश तत्व है। और जो तत्व जितना ही सूक्ष्म होगा उतना ही अधिक महत्वपूर्ण होगा। फल को हजम करने में तब भी कुछ शक्ति पाचन-यंत्रों को लगानी पड़ती है पर फल के रस तो अपेक्षाकृत न्यूनतम परिश्रम के ही पाचन-यंत्र हजम कर लेते हैं और रक्त की शुद्धि करते हैं।

कुछ लोग निर्जल व्रत करते हैं। निर्जल रहने पर शरीर के विकार बड़ी तेजी से निकलते हैं। हिन्दुओं के यहाँ निर्जला एकादशी का व्रत होता है। जिन लोगों के शरीर में जल अधिक हो उन्हें ऐसा व्रत विशेष लाभदायक है। पर निर्जल उपवास दो-तीन दिन से अधिक नहीं चलाना चाहिये। इसमें कमजोरी तेजी से बढ़ती है और वजन तेजी से घटता है। निर्जल व्रत में एनेमा लेना बहुत जरूरी है क्योंकि संचित मल सूखने भी न पाये और विजातीय मल तथा विष आँतों से निकलता रहे।

जो लोग माँस, मदिरा, अंडे, मछली, तेज, मसाला, मिर्च, खटाई और गरिष्ठ भोजन अर्थात् राजसिक भोजन करते हैं या बासी, सड़ा-भुला, झूँठा तथा दुर्गन्धित आदि तामसिक भोजन करते हैं, वे लोग यदि तामसिक तथा राजसिक भोजन को छोड़ दें तो यह भी एक प्रकार का उपवास ही है। हम जानते हैं कि खान-पान का प्रभाव न केवल हमारे शरीर और स्वास्थ्य पर पड़ता है वरन् हमारे स्वभाव, आचरण, आचार-विचार आदि पर भी पड़ता है। माँस खाने वाले शेर, भेड़िया आदि के स्वभावों की और घास आदि खाने वाले गाय तथा हिरन के स्वभावों की तुलना कीजिए। माँस खाने वाले तथा केवल चावल और दूध पर रहने वाले कुत्तों की भी तुलना कीजिए। पर जिस जीव का जो आहार निश्चित है वह वही खाता है। शेर घास और फल नहीं खायेगा और गाय हिरन माँस नहीं खायेंगे। कुछ बन्दरों को जर्मनी में माँस पर रखा गया। भूख से बाध्य होकर खाया तो उन्होंने, पर वे शीघ्र ही मर गये। केवल मनुष्य ही ऐसा जीव है जो सब कुछ खाता है। कंजड़ लोग तो छिपकली, चूहे, साँप, कुत्ते, बिल्ली सभी खा लेते हैं। माँसाहारी लोग स्वभाव हिंसक, लड़ाकू, उग्र, उदण्ड तथा क्रोधी अवश्य होते हैं पर शारीरिक बल और स्वास्थ्य में शाकाहारियों का मुकाबला नहीं कर सकते। प्रायः माँसाहारी ही भाँति-भाँति के भयंकर रोगों में फँसे रहते हैं। अभी हाल में ही एक सरकारी रिपोर्ट से पता चला है कि क्षय रोग से पीड़ितों में माँसाहारियों की ही संख्या अधिक है। शरीर-शास्त्र के विद्वानों ने यह प्रमाणित कर दिया है कि शरीर-संगठन के विचार से मनुष्य शाकाहारी ही जीव है। लाचारी की दशा में जहाँ अन्न पैदा नहीं होता जैसे ग्रीनलैंड आदि, वहाँ के लोग यदि माँस-मछली पर जियें तो कुछ कारण भी समझ में आता है पर भारत जैसे अन्न प्रधान देश में माँसाहार का जिव्हा स्वाद के अतिरिक्त कोई उद्देश्य ही नहीं है। यदि पशु रोगी हुआ तो उसके माँस के साथ उसका रोग भी हम पेट में उतारते हैं। माँस पचता भी देर में है। अतः माँस, मदिरा आदि का परित्याग करके सात्विक भोजन करना भी एक प्रकार का उपवास ही है।

24 घंटे में केवल एक बार ही मुख्य आहार करना भी एक प्रकार का उपवास है। जो लोग दुकानदार हों या नौकरी पेशा हों, चाहे कुली और मजदूर या दिमागी काम करने वाले, दफ्तर के बाबू या वकील, डॉक्टर, प्रोफेसर आदि, उन्हें अपना मुख्य भोजन दिन भर काम खत्म करने के बाद या साँय काल को या सूर्यास्त के पहले या सूर्यास्त के बाद करना चाहिये। भोजन करने के बाद तुरन्त शरीर या मस्तिष्क संबन्धी परिश्रम करने में पाचन-क्रिया में गड़बड़ी होती है यह अन्यत्र लिखा गया है। इससे दिन भर के परिश्रम के उपरान्त रात्रि के समय खूब तेज भूख लगने पर भोजन करने से बड़ा लाभ होगा। हमें इस बात का प्रमाण मिलता है कि प्राचीन काल में एक बार ही भोजन करते थे। दिन में फल या दूध आदि हल्का भोजन किया जा सकता है। क्योंकि भरे पेट पर परिश्रम नहीं करते बनता, न करना ही चाहिए। अनेक छोटे-मोटे रोग, एक बार भोजन करने से जाते रहते हैं।

यह सारे उपवास आँशिक उपवास कहला सकते हैं। उदासी, हिस्टीरिया, कण्ठशोथ, दुष्ट, पाण्डु, पुरानी गर्मी का यदि असर रीढ़ तक पहुँच गया हो, हृदय की सूजन या कमजोर परालिसिस एजीटेंस, क्षय, खाँसी, गले के कौए का सूजना, नाक के मसने आदि रोगों में आँशिक तथा फलोवयास बहुत लाभप्रद होता है। तब तीन बार 3 संतरे, तीन बार पाव-पाव भर फलों का रस, तीन-चार बार रसभरी, नीबू आदि खट्टे फल, सुबह दोपहर मक्खन निकला एक-एक गिलास दूध, तीन बार एक-एक गिलास मट्ठा तथा खूब पानी पियें। यह आँशिक तथा फलोपवास के अंतर्गत होगा।


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