कर्मयोग जीवन की एक कला है।

February 1951

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(डा. रामस्वरूप गुप्त, कासगंज)

निष्क्रियता अथवा अकर्मण्यता, जड़ता का लक्षण है। जितना भाग हम में जड़ है, वही हम में निष्क्रियता उत्पन्न करता है। इसका अर्थ हुआ “आत्मा” में निष्क्रियता अथवा अकर्मण्यता का नाम भी नहीं हैं। जिस प्रकार सूर्य में प्रकाश के अतिरिक्त अन्धकार को लेश मात्र भी स्थान नहीं, उसी प्रकार वरन् उससे भी बढ़कर “आत्मा” में निष्क्रियता के लिए रंच मात्र भी स्थान नहीं, दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि जिस प्रकार सूर्य का स्वभाव ही प्रकाश है उसी प्रकार “आत्मा” का स्वभाव ही कर्म है। क्योंकि स्वभाव से कोई भी थकान की प्राप्त नहीं होता, अतः सत्कर्म करते रहने पर भी आत्मा कभी थकता नहीं अथवा आराम नहीं चाहता।

स्वभाव का मान भी नहीं होता और न उसकी प्रतीति होती है। यदि सूर्य का स्वभाव प्रकाश करना है, तो उसे इस बात की कदापि प्रतीति नहीं हो सकती कि मैं प्रकाश कर रहा हूँ, इसी प्रकार ‘आत्मा’ जो जड़ता से सर्वांश में अछूता है-और जिसके स्वभाव में जड़ता आई ही नहीं है, जिसका स्वभाव ही कर्म करना है, उसे इस बात की प्रतीति हो नहीं सकती कि मैं कर्म कर रहा हूँ। श्रेय, यदि हमें इस बात की प्रतीति होती है कि हम कर्म कर रहे हैं, तो हमें समझ लेना चाहिये कि हम में ‘आत्मा’ (निजी-स्वरूप) के अतिरिक्त कुछ ऐसा अवश्य मिल गया है जो ‘अनात्मा’ हैं और उसी के कारण यह प्रतीति है। जो कुछ ‘अनात्मा’ है वही दोष है। इसलिए कर्म करने की प्रतीति के साथ ही दोष का आरम्भ मानना पड़ेगा।

यदि आपको पीने के लिए गरम जल मिले, तो आप झट पूछेंगे कि जल क्यों गरम हैं। इसी प्रकार जान लीजिए कि जहाँ-जहाँ ‘क्यों’ के लिए स्थान मिलता है वहीं-वहीं स्वभाव से हट कर कुछ न कुछ अस्वाभाविक हुआ करता है। इसीलिये जब हम कर्म करते हैं, तब हम कर्म की शर्त से बाँध देते हैं, और तब ही तब हम स्वभाव के विरुद्ध करते हैं। हम खाने के लिये कमाते हैं। यह कर्म करने की एक शर्त हुई। इसका स्वाभाविक निष्कर्ष हुआ कि खाना रुक जाने के साथ-साथ कमाना भी रुक जायगा। फिर कमाना हमारा और कमाने में अन्योन्याश्रय सम्बन्ध स्थापित हो गया। यदि कमाना हमारा स्वभाव है, तब चाहे हम खायें और चाहे दूसरे ही भले ही खाँय, परन्तु हमारा कमाना सतत् रूप से चलता रहेगा, क्योंकि कमाना हमारा स्वभाव है। इस दशा में कमाते-कमाते न तो कमाने की हमें कभी प्रतीति ही होगी और न कभी थकेंगे ही, ऐसा इसलिये क्योंकि कमाना हमारा स्वभाव है।

इसके प्रतिकूल यदि कमाते-कमाते हम यह प्रतीत करने लगते हैं कि हम कमा रहे हैं, तो समझ लीजिए दोष (अकर्मण्यता) यहीं से आरंभ हो गया। यहीं से थकान भी आरम्भ हो गई। अर्थ यह हुआ कि हम में अहंकार के साथ-साथ दोष घुस आता है, और दोष के आते ही चिन्ता और थकान (निष्क्रियता) आ जाती है।

अब यह स्पष्ट हो गया कि निष्काम कर्म ही ‘आत्मा’ का स्वभाव है, और यही निर्दोष तथा निष्पाप है। अतः आपको किसी फल के लिये कर्म न करना चाहिए। यदि आप किसी ‘क्यों’ के उत्तर के लिए कर्म करते हैं, तो यही सकाम कर्म हुआ, क्योंकि किसी ‘क्यों’ का उत्तर ही किसी कर्म का फल जानने का सरल साधन है।

अब यदि हम अहंकार रूपी दोष को निकालना चाहते हैं, तो हमें चाहिए कि हम अपनी कर्म करने की प्रतीति को कर्म करने की क्रिया के साथ ही साथ निकालते जाएं। हमारी प्रतीति है कि ‘हम कर्म कर रहे हैं।’ इसके निकालने का अर्थ हुआ इसके प्रतिकूल प्रतीति करना अर्थात् यह प्रतीति करना कि ‘हम कर्म नहीं कर रहे हैं’ जब हमारी यह प्रतीति कि ‘हम कर्म नहीं कर रहे हैं’ जम जायगी, तब स्वभावतः कर्म करते हुए हमें कर्म करने की प्रवृत्ति नहीं होगी। यही कर्मों का ईश्वरार्पण करना हुआ। और जब हमारे कर्म बिना प्रतीत के होने लग जायेंगे, तो फिर हम में सतत कर्म करते हुए भी थकान नहीं आयेगी, अर्थात् श्रम नहीं होगा। और इस प्रकार हमारे सब कर्म बिना किसी प्रकार की थकान के और बिना प्रतीति के स्वाभाविक प्रकार से, न कि किसी फल के लिये वरन् सम्पूर्ण जीवन प्रवाह के लिये उसी की ओर बहेंगे जिधर को सतत् रूप से ज्ञान पूर्वक और अज्ञान पूर्वक भी सभी बहे जा रहें है, और जिधर से सत-चित-और आनन्द से परिपूर्ण समीर आ रही है।

सत्कृतियों को ही कर्म संज्ञा में लेना उचित है, अर्थात् जो सत्कर्म हैं उन्हीं को कर्म कहा जा सकता है, अन्य को नहीं। अब प्रश्न होता है कि कौन-कौन से कर्मों को सत्कर्म और कौन-कौन सी को असत्कर्म कहें,? उत्तर हो सकता है कि जिनके करने में आत्म-स्वीकृति हो, वे सब सत्कर्म, शेष असत्कर्म। अब सोचना यह है कि आत्म-स्वीकृति किस प्रकार जानी जाय? तब जिन-जिन कर्मों के करने से आत्मा को संकोच हो, अथवा झिझक हो वे सब अशुभ कर्म कहे जाएंगे। और जिनके करने में प्रफुल्ल चित्तता, आनन्द और निर्भयता प्राप्त हो वे सब सत्कर्म जाना जायेगा और यही आत्म-स्वीकृति समझी जायगी। संकोच का होना ही आत्म-अस्वीकृति का सूचक है। भय और लज्जा संकोच का साथ देने में भिन्न-भिन्न हैं। इस प्रकार हमने जाना कि आत्म स्वीकृति आत्म-अनुकूलता में सन्निद्ध हैं। और अनुकूलता साधारणतः स्वभाव के प्रति होती हैं। अतः स्वभाव सिद्ध कर्म ही स्वभाव सिद्ध कर्म ही स्वधर्माचरण, शुभ तथा अशुभ कर्म कहे जाँयगे। ऐसे ही कर्म हमारा सम्बन्ध सम्पूर्ण जीवन से जोड़ देते हैं, और इन्हीं के करने से आत्म-तृप्ति होती है।

बच्चों को खेलने में बड़ा आनन्द आता है। वे खेलों में इतने तन्मय हो जाते हैं कि खाना-पीना पढ़ना-लिखना सब भूल जाते हैं, यहाँ तक कि संसार में सबसे प्यारी माता को भी भूल जाते हैं। हमारे हृदय में ईश्वर का निवास है, और ईश्वर सृष्टि कर्म अपनी लीला मात्र से किया करता है, अर्थात् लीला-प्रिय है। लीला कहते हैं खेल को, इसलिये हमें भी खेल-प्रिय होना ही चाहिए। मानव मात्र को खेल से अतीव प्रियता है, क्योंकि खेल हमारे हृदयों की निधि है। और खेल में वह सब कुछ हैं जो आत्म-वत प्रिय होने में आवश्यक हैं। खेल सर्वथा फलासक्ति से दूर और अभिमान से अछूता है, क्योंकि तन्मयता जितनी ठसा-ठस भरी होती हैं, अभिमान उतना ही उसमें कम समाता है। खेल जैसी तन्मयता कदाचित ही अन्य कहीं देखने में आती हो, यही कारण है कि खेल आनन्द की चाशनी से लबालब भरा रहता है। इसलिए हमारे आचरण हमारे कार्य यदि खेल मात्र बना लिए जाएं तो उनमें आनन्दमयी स्वाभाविकता बिना आये नहीं रह सकती।

फलासक्ति वह दोष है जो कार्य-शक्ति का बुरी तरह अपहरण करता है। यह दोष कार्य-शक्ति को कार्य से हटा कर अपनी ओर ले आता है। यदि फला शक्ति किसी प्रकार त्यागी जा सके तो हमारी शक्ति का शत-प्रतिशत भाग कार्य के करने में खर्च हो, और हमारा कार्य पूर्णरूपेण सफलता प्राप्त करे। परन्तु होता क्या है? हमारे ध्यान का अधिकाँश भाग फलासक्ति अपनी और खींचे रहती है। यदि किसी प्रकार फल से दृष्टि हट जाय तो कर्म में स्वभावतः तन्मयता बढ़ जायगी।

कर्म में फल त्याग करना जीवन की एक कला है। हमने ऊपर निर्देश किया है कि ‘आत्मा’ से निरन्तर सूर्य प्रकाश की भाँति कर्म निकलता रहता है, और वह कर्म सर्वथा फलासक्ति से विहीन और सर्व दोषों से रहित, समाज, देश तथा लोक सबके लिए सदा कल्याणकारी ही सिद्ध होता है। अतः यह प्रत्यक्ष है कि जब तक आत्म-शुद्धि अर्थात् अन्तःकरण की शुद्धि नहीं हो जाती, तब तक पूर्णतः निष्काम कर्म नहीं बन सकता। निष्काम कर्म के लिए शुद्ध अन्तःकरण अत्यन्त अनिवार्य है इससे निष्कर्ष निकलता है कि यदि किसी प्रकार फल को त्याग करके कर्म करना आरम्भ कर दिया जाय, तो जिन अंशों में हम फलासक्ति त्यागने में सफल होंगे, उन्हीं अंशों में हमारे अन्तःकरण के दोष हट करके अन्तः शुद्धि होना आरम्भ हो जायगी।

अब समस्या फल-त्याग की सम्मुख है। यह किस प्रकार हल हो? इसके एक प्रकार के ऊपर पहले ही प्रकाश डाला जा चुका है कि हम अपनी कर्म करने की प्रतीति के विरुद्ध अपनी इस प्रतीति को दृढ़ करते रहें कि ‘हम कर्म’ नहीं कर रहे।’ कर्म करने वाली शक्ति हमसे इतर और महान् है। जब हम कर्म करते ही नहीं है, हम तो उस महान् शक्ति के हाथों के उपकरण मात्र हैं, तो फिर फलासक्ति होने की बात ही नहीं उठती।

दूसरा प्रकार यह है कि हमारी मान्यता ऐसी हो जाय कि हमें केवल कर्म करने मात्र का अधिकार है, फल में हमारी कोई अधिकार नहीं। फल का मिलना अथवा न मिलना किसी दूसरी अज्ञात, महान् परन्तु हमसे सर्वथा इतर शक्ति के वश में है। इस मान्यता के अनुसार भी फलासक्ति से हमारा ध्यान हटकर केवल कर्म में ही व्यय हो सकने की पूर्ण सम्भावना है।

तीसरा प्रकार यह है कि हम कर्म केवल भगवान की प्रीति उपार्जन करने के लिए ही करें, अन्य हमारा कोई उद्देश्य न रहे। यदि हो सके तो हम उन्हीं कर्मों को करेंगे जिनसे भगवान प्रसन्न हों। शास्त्रोक्त कर्मों के करने की शास्त्रों में भगवान की आज्ञा है। अतः भगवान् की आज्ञानुसार कर्म होने से भगवान स्वभावता प्रसन्न होंगे। और इस प्रकार भी हमारा ध्यान फलासक्ति से हट कर कर्म-सम्पादन में पूर्णतः लग सकता है।

यदि लोक-कल्याण अथवा सबके कल्याण की दृष्टि करने में रक्खी जाय, तब भी अपने कल्याण अर्थात् स्वार्थ से, जो फलासक्ति का दूसरा नाम है, हमारी दृष्टि हट जायगी और व्यग्रता, दुष्चिन्ता तथा संशय जो फलासक्ति अपहरण कर लेती थी, वह अब सुरक्षित रह जायगी।

इस प्रकार के कर्मों के करने वाले को हम गीता की भाषा में कर्मयोगी कह सकते हैं। कर्मयोगी सतत् रूप से कर्म करता हुआ भी, उनसे सर्वथा अलिप्त रहता है। यह बात नहीं है कि उसे उसके कर्मों का फल नहीं मिलता। उसे सकाम करने वाले से अधिक ही नहीं अनन्त-गुना होकर फल मिलता है, क्योंकि उसका कर्म पूरी तन्मयता के साथ हुआ है, इसलिए वह पूर्ण है। जहाँ कर्मयोगी का शरीर संसार की सतत् कर्म में प्रवृत्त दीखता है, वहाँ उसका मन भी शरीर के साथ एकी-भाव किये रहता है। सकाम कर्मों की नीति ऐसा नहीं होता कि शरीर से कर्म हो रहा है, परन्तु मन दूसरी जगह फल के परिणाम की बातों में व्यग्र तथा चिन्तित हो रहा है। जिस प्रकार बच्चा खेलता है, तो उसे व्यायाम का फल तो पूरे का पूरा स्वतः ही मिल जाता है, परन्तु जो आनन्द उसे स्वयं आया, और माता-पिता, कुटुम्बियों और अन्य परिवार वालों को जो अपार आनन्द उसको खेलते हुए देखने से हुआ सो अतिरिक्त हुआ जानो। परन्तु बच्चा व्यायाम के फल लिए नहीं खेलता, वह तो खेल के लिये खेलता है।

इसी प्रकार कर्म-योगी, कर्म समष्टि के कल्याण की दृष्टि से अथवा भगवान् की प्रसन्नता सम्पादन के लिए करता है, परन्तु सबके कल्याण में उसका कल्याण भी निहित होता है, इसलिये उसका निज का स्वार्थ भी सबके स्वार्थ के साथ ही साथ सिद्ध हो जाता है। परन्तु कर्म करने की तन्मयता से जो अपार आनन्द उसे होता है वह उसे लभाव में होता है।


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