रोटी खाना भी एक कला है।

December 1949

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(लेखक श्री ए. ई. पावेल)

यह तो निश्चित बात है कि, चाहे कोई काम हो उसके करने का ढंग परमावश्यक है। परन्तु यह बात बहुत आश्चर्यजनक है कि खाना चबाने के ढंग के विषय में लोगों ने चिरकाल तक प्रश्न नहीं पूछा। थोड़े काल से इस ओर ध्यान आकर्षित हुआ है। उन लोगों ने भी इस पर दृष्टि नहीं की, जो भोजन के गुण-दोष के विषय में विचार करते हैं। हम फिर इंजन का जिक्र करने को बाध्य हैं, क्योंकि विवाद ग्रस्त विषय का उससे विशेष सम्बंध है। इंजन की भट्टी में कोयला या ईंधन भरना भी एक खास काम है, जिसे हर मनुष्य ठीक रूप से नहीं कर सकता। यदि जलती आग पर होशियार और अनुभवी फायरमैन ईंधन न डाले, तो वह नष्ट हो जाती है, और हरारत (गर्मी) काफी मात्रा में पैदा नहीं होती है और इंजन पूरा काम नहीं कर सकता। इसी प्रकार पेट को भरने के लिए भी समझना चाहिए कि कौन सी खुराक किस मात्रा में और किस ढंग से खानी चाहिए, जिससे शरीर को अधिक से अधिक लाभ पहुँचे।

इस बात को ध्यान में रखो कि मुँह भी पाचन अवयवों का एक आवश्यक अंग है, जैसे आमाशय और अन्तड़ियाँ हैं। मुँह के दो बड़े काम हैं- 1. खुराक को खूब चबाना और बारीक करना। 2. मुखराल द्वारा उसे तर करना। पहली बात इतनी आवश्यक है कि उस पर बल देना व्यर्थ है, क्योंकि जब तक खुराक पिसकर खूब बारीक नहीं हो जाती, वह शरीराँश नहीं बन सकती। यदि दाँत अपना काम भली प्रकार नहीं करते, तो वह आमाशय और अन्तड़ियों को करना पड़ेगा। यदि मोटा भोजन पेट में भीतर जायेगा, तो पाचन क्रिया इतनी धीमी हो जायेगी, कि उसमें बदहजमी और सड़ाँध पैदा हो जायेगी, और मल का एक ढेर पेट के भीतर जमा हो जायेगा। जिससे स्वास्थ्य और शारीरिक शक्ति को बहुत हानि पहुँचती है।

दूसरा काम मुँह का रासायनिक है। जो पहले से भी अधिक आवश्यक है, सर हेनरी टामसन इसके विषय में लिखते हैं, ‘इस बात को कभी नहीं भूलना चाहिए कि पेट वह गड्ढा है जहाँ खुराक खूब चबा कर बारीक और राल से भली भाँति तर करके और इसी प्रकार हजम करके पेट में जानी चाहिए।’ यह बात अत्यन्त आवश्यक है और इस पर बल देना व्यर्थ है। बाज लोग कहते हैं कि मुखराल तैल का काम देता है जिससे खुराक तर होकर हलक के नीचे उतर जाती है। कड़े पदार्थ को भली-भाँति चबाना चाहिए परन्तु नर्म चीजों को यों ही खा लेना चाहिए- यथा दूध, हलुवा और दलिया खीर इत्यादि।

परन्तु यह विचार हमारे ज्ञान से बिल्कुल विपरीत है और वस्तुतः बिल्कुल उसके विरुद्ध होना चाहिए। माँस पेट में जाने से पेट के रसों द्वारा हजम होता है, इसके लिए मुखराल की कोई आवश्यकता नहीं है, परन्तु निज चीजों में चीनी और मैदा का अंश अधिक पाया जाता है, वह मुँह में हजम होती है या मेदे से गुजर कर अन्तड़ियों में जाकर हजम होती हैं, इसलिए मुखराल की आवश्यकता है। आजकल यह बहुत बुरी प्रथा है कि जिन चीजों की सबसे अधिक मुखराल की आवश्यकता है, उनको ऐसा बनाया जाता है कि उनको बहुत राल मिल ही न सके। इसी वास्ते डॉक्टर लोग उन्हें खुश्क चीजें जैसे रोटी के टुकड़े के साथ खाने का अनुरोध करते हैं। यही दशा प्रवाहित वस्तुओं जैसे दूध आदि की है, यह भी खुराक है और उसे मुखराल की आवश्यकता है, उसे पेय नहीं समझना चाहिए।

बल और स्वास्थ्य पर खूब चबाकर खाने का क्या प्रभाव होता है, उसका वर्णन करना व्यर्थ न होगा। इससे यह भी प्रकट हो जायेगा कि यद्यपि यह बहुत साधारण सी बात है, परन्तु उससे फल और लाभ अधिक होता है।

जो कुछ पहले वर्णन किया गया है उससे और सिद्धाँतों से भी यह भली भाँति विदित होता है, कि चबाने से पाचन शक्ति को बहुत सहायता मिलती है और उससे तमाम पाचन अवयवों पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है। हम नित्य ऐसी चीजें बहुत खाते हैं जिनके अन्दर मैदा बहुत होता है। इससे यह आवश्यक प्रतीत होता है कि भोजन को खूब चबाने की आदत डाली जाये, ताकि वह आमाशय में जाकर भलीभाँति हजम हो सके। बल्कि हाजमे के दरवाजे ही पर उसे खूब बारीक कर लेना चाहिये। यह भी ठीक है कि छोटी अन्तड़ी के अन्दर मैदे को हजम करने का उसके उपरान्त एक और वस्तु उत्पन्न हो जाती है, मगर यह अच्छा नहीं है कि मुँह में यह बारीक किये बिना ही उसे आमाशय में डाला जाये, जिससे यह क्रिया सुगमता से होती है। जब ग्रास मुँह में पड़े तो खूब चबाओ, यहाँ तक कि उसके अणु भाग भी पृथक-पृथक हो जायें। इससे हाजमे का काम बहुत सुगम हो जाता है।

जो चीज हम नित्य खाते हैं यदि उन्हें खूब चबाकर मेदे में डाला जाये, यहाँ तक कि वह मुँह के राल से भलीभाँति तर हो जाय, तो वह बड़ी आसानी से हजम हो जाती है। जिन चीजों के अन्दर मैदा अधिकता से होता है, यदि उन्हें खूब बारीक चबा लिया जाये यहाँ तक कि मुखराल से वह भलीभाँति तर हो जाये, तो उनका हजम करना बिल्कुल कठिन नहीं है। इस प्रकार से नई किस्म के आलू भी हजम हो जाते हैं, यद्यपि वह बहुत गरिष्ठ समझे जाते हैं।

जहाँ पाचन क्रिया बहुत अच्छी तरह होती है, वहाँ मल बहुत थोड़ा पैदा होता है और अन्तड़ियों के अन्दर सड़ने वाली गन्दगी बहुत कम पैदा होती है। यह तो कई बार देखा गया है कि गाय के गोबर, भेड़ बकरी की की मेंगनी, और घोड़े की लीद में दुर्गन्ध नहीं होती और मनुष्य के मल में यह दुर्गन्ध उससे कहीं अधिक होती है। उसकी वजह यह है कि उनकी चबाने की आदत हो गई है। जो चीज मेदे के अन्दर जाती है, वह खूब हजम हो जाती है, और गोबर, लीद इत्यादि की मात्रा भी बहुत कम होती है। उसके अन्दर बदबू नहीं होती, वह गरम बिस्कुट की बू की तरह होती है। यह बात अत्यन्त आवश्यक और विचारणीय है, क्योंकि अन्तड़ियों के अन्दर जब खुराक सड़ने लगती है, तो उससे एक प्रकार का विषैला माद्दा उत्पन्न हो जाता है, जो खून के साथ मिलकर स्वास्थ्य और बल के लिए बहुत हानिकारक प्रमाणित होता है।

मल की मात्रा बहुत कम हो जाती है जिसकी वजह से कब्ज या पेचिश होने का बहुत कम भय होता है। जो लोग खूब चबाकर भोजन खाने के अभ्यासी हो गये हैं उनमें एक बात यह देखने में आती है कि उनकी रसना शक्ति बहुत ही उत्तम हो जाती है। इससे लाभ यह है कि उन्हें खाने का विशेष स्वाद मिलता है। उसका सबब यह है कि भोजन का स्वाद मुखराल द्वारा स्वाद के दरों के अन्दर चला जाता है। लेकिन जब तक मुखराल भोजन के साथ नहीं मिलता, उसका स्वाद नहीं होता। और यह क्रिया ग्रास मुँह में जाने के चन्द सेकेंड पश्चात आरंभ हो जाती है। मैदा की खुराक लवाब लगते ही एक विशेष प्रकार की खुराक में परिवर्तित हो जाती है। इसका यही बड़ा काम है और यही सबब है कि सूखी रोटी, आलू और अन्य सादी खुराकें भी किसी-किसी समय मीठी मालूम देती हैं। जो लोग आरंभ में बारीक चबाकर ग्रास खाने का तजुरबा करते हैं उन्हें कुछ और ही स्वाद आता है, जिससे वे पहले वंचित थे। रसना शक्ति में इतनी उन्नति हो जाती है और स्वाद इतना भला मालूम होने लगता है कि मिर्च, मसाला, खटाई आदि की कोई आवश्यकता नहीं रहती। रसना शक्ति को स्वयं ही इन वस्तुओं से घृणा हो जाती है। यहाँ पर यह भी कहना उचित है कि खटाई, मिर्च, मसाले आदि में कोई आन्तरिक गुण नहीं है और न उनमें भोजन तत्व है। उनसे थोड़े देर के लिये स्वाद अधिक तेज हो जाता है, परन्तु इससे पाचन शक्ति भी दुर्बल हो जाती है, इसलिए बाज लोगों को भोजन स्वादिष्ट ही नहीं मालूम होता जब तक कि उसमें खूब मिर्च, मसाला आदि तेज चीजें न हों। इसके अतिरिक्त इन तीक्ष्ण चीजों का मेदा की नम व सुकुमार झिल्लियों पर बहुत हानिकारक प्रभाव पड़ता है, बल्कि कभी-कभी उनके खाने से जलन (दाह) पैदा हो जाती है। जो लोग खूब चबा-चबाकर भोजन खाने का अभ्यास डालते हैं वह शीघ्र मालूम करेंगे कि उन वस्तुओं की खाने की कोई आवश्यकता नहीं है। जब होते-होते रसना शक्ति बहुत सूक्ष्म हो जाती है, तो तम्बाकू, चाय और अल्कोहल इत्यादि भी सहन नहीं हो सकती।

भोजन को चबाकर खाने का एक बहुत बड़ा लाभ यह भी है कि उसके द्वारा पित्त अधिक पैदा होता है। डॉक्टर हेरी कैम्बल साहब लिखते हैं कि खुराक को चबाने का मेदे पर यह असर होता है, कि उसके पित्त बहुत पैदा होता है, इससे वह खुराक हो ग्रहण करने के लिए तैयार हो जाता है। इसका प्रमाण बहुत सुगमता से मिल जाता है। कुत्ते की वह नली काट डालो, जो हलक से मेदा तक जाती है। कुत्ता खुराक जब खाये तो ग्रास मेदा में न जाकर, बाहर गिर पड़े। उस समय यह देखने में आयेगा बावजूद इसके कि खुराक मेद में नहीं जाती, परन्तु मेदा का लवाब अधिकता से पैदा हो जाता है। अतः यदि भलीभाँति चबाकर खुराक मेदे में न जाये तो उससे यह पित्त इतना नहीं पैदा होता। यह भी अनुमान किया जाता है, कि पित्त रसना शक्ति की तेजी के संसर्ग से पैदा होता है, अर्थात् भोजन में स्वाद आने से मन की दशा उसको अधिक उत्पन्न कर देती है, और यह उसी दशा में संभव है कि भोजन खूब चबाकर पेट में डाला जाय। यही नहीं और छोटे-छोटे लाभ भोजन को खूब चबाने से प्राप्त होते हैं। जैसे जबड़ों की गति से चेहरा और मसूड़ों की ओर रक्त का दौरा बहुत अच्छी तरह से होता है। और नाक के हिस्से की ओर भी उसका भ्रमण बहुत अच्छी तरह होने लगता है, जिससे नाक की कई बीमारियाँ आदमी को कष्ट नहीं देती हैं। जैसा कि डॉक्टर कैम्बल साहिब ने लिखा है। वही डॉक्टर साहिब यह भी लिखते हैं। ‘भोजन चबाने से हृदय की गति भी तेज हो जाती है, और उससे रक्त भ्रमण को बहुत उत्तेजना मिलती है। चाहे उसका कोई कारण हो, परन्तु इस बात को कोई अस्वीकार नहीं कर सकता।’ आपका यह भी ख्याल है, कि यदि दाँतों से ग्रास चबाने का खूब से काम लिया जाय तो उससे उनकी दशा बहुत अच्छी हो जाती है, अतः आप लिखते हैं, ‘जो लोग खूब चबाकर खाते हैं उन्हें दन्तकृमि या किसी प्रकार का अन्य दन्त रोग बहुत कम होता है। परन्तु जल्दी-जल्दी रोटी खाने वाले को इन रोगों से बड़ा कष्ट होता है।

जब ग्रास मुँह में आते ही जबड़े चलने लगते हैं तो गद्दों से एक प्रकार का पानी निकलता है, इसलिए यह नियम स्थापित किया गया है कि, प्रयोग से गद्दे बढ़ते हैं और बेकारी से घटते हैं। तजुर्बे से यह प्रगट हो गया है, कि यदि खूब बारीक चबाकर ग्रास खाने की आदत पैदा की जाये तो उससे बहुत शीघ्र मुखराल अधिकता से पैदा होने लगता है और उसके संसर्ग से ग्रास बहुत ही शीघ्र मेदे में पहुँच कर हजम हो जाता है।

बहुत सावधानी से भोजन चबाया जाये तो शीघ्र मालूम हो जायेगा कि पहले की अपेक्षा भोजन की कम मात्रा की आवश्यकता है। इसलिए खूब चबाकर खाने का एक बड़ा लाभ यह है कि थोड़े ही भोजन से संतोष हो जाता है। जिसने नये ढंग से भोजन चबाकर खाने की आदत पैदा की थी। उस मनुष्य के अनुभव में यह बात आ चुकी है।

जो प्रवृत्ति ईश्वर ने मनुष्य हृदय में उत्पन्न कर रखी है, यदि उन्हें प्रकट करने का पूरा अवसर मिले तो शरीर की आहारिक आवश्यकताओं को वह आपसे आप पूरा कर सकते हैं। किस प्रकार की और कितनी खुराक आवश्यक है, इसका निर्णय मनुष्य के स्वभाव से हो सकता है। इसके विषय में अरनिस्ट वेन सोमिरन कहते हैं, ‘जो लोग ग्रास खूब चबाकर खाते हैं, मैं उनको विश्वास दिलाता हूँ, कि वह बहुत शीघ्र शरीर की आहारिक आवश्यकताओं को भलीभाँति अपने-आप मालूम कर सकेंगे।’ इस बात को स्मरण रखो कि भूख इस विषय में भलीभाँति जाती नहीं है। यह इस बात से विदित है कि डॉक्टर लोग बहुत आदमियों को भोजन की मात्रा के विषय में यह उपदेश किया करते हैं कि थोड़ी भूख शेष रहने पर हाथ खींच लो। परन्तु अधिक सम्पत्ति लोगों की ऐसी ही है कि उनमें इतना साहस नहीं, कि एक दो रोटी की भूख छोड़कर चौके से उठ खड़े हों, जिसका परिणाम यह होता है, कि वह अधिक खाने के कष्ट को भोगते रहते हैं। ऐसे अधिक खाने वालों में जिनके मेदे की शक्ति बहुत अधिक है, उनकी चर्बी पैदा होती है, और वही मोटे हो जाते हैं।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118