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December 1949

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जो मनुष्य युद्ध में दस लाख सैनिकों को जीत लेता है उससे अधिक विजय का पात्र तो वह है जो अपनी आत्मा के विकारों के साथ युद्ध करके अपने मन को काबू में कर लेता है।

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अपनी आत्मा से ही युद्ध कर, दूसरों के साथ युद्ध करने से तुझको क्या प्रयोजन? अपनी आत्मा द्वारा अपने मन को जीत लेने पर उसे सुख प्राप्त होता है।

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इस संसार रूपी समुद्र को पार करने के लिए यह मानव शरीर नाव के समान है जिसमें बैठ कर आत्मा रूपी नाविक भव सागर को पार कर सकता है।

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जो ममता व आसक्ति रहित है, जिसे अहंकार नहीं है, जिसे बड़प्पन का मान नहीं है, जो छोटे-बड़े, चल-अचल सभी जीवों पर समभाव रखता है। जो लाभ-हानि में, सुख-दुख में, जीवन-मरण में, निंदा-स्तुति में व मान-अपमान में समान रूप से अविचलित है वही महापुरुष है।

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सिर मुंड़ाने से कोई साधु नहीं होता-न ओंकार शब्द जप लेने से ब्राह्मण होता है न वन में निवास करने से मुनि होता है न वल्कल वस्त्र पहनने से तपस्वी होता है।

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समभाव रखने से साधु होता है, ब्रह्मचर्य व्रत पालन करने से ब्राह्मण बनता है-ज्ञानोपार्जन करने से मुनि होता है और स्वार्थ त्याग करने से तपस्वी होता है। संक्षेप में कर्म से व्यक्ति ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्री व शूद्र होता है केवल जन्म से, वेश-भूषा के आडम्बर से नहीं।

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गृहस्थाश्रम में रहता हुआ जो व्यक्ति सुन्दर और प्रिय भोगों की प्राप्ति होने पर भी उनसे उदासीन अलिप्त रहता है व उन्हें पीठ देता है-यही नहीं स्वाधीन होते हुए उन भोगों का परित्याग करता है वही निश्चय रूप से सच्चा त्यागी है।

=कोटेशन===========================

अच्छी शिक्षा और सच्ची सभ्यता का यह एक प्रमाण है कि हम प्राचीनता की प्रतिष्ठा करते हैं।

-सिडनी

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जब समाज में स्त्री का स्थान बहुत नीचा हो जाता है तब उसके साथ ही शिशुओं का स्थान भी बहुत नीचे उतर आता है। -शरद बाबू

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स्त्रियाँ माता की प्रतिमा हैं। जब तक उनका उद्धार न होगा, हमारे देश का उद्धार होना असंभव है।

-स्वामी विवेकानन्द


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