(श्रीमती जानकी देवी बजाज)
अत्यन्त प्राचीन काल में स्त्रियों का भी उपनयन होता था और उन्हें भी ब्रह्मचर्य व्रत लेकर गुरुकुलों में विद्याध्ययन के लिए भेजा जाता था। ऋषियों का ऋण अदा करने का दायित्व जितना लड़कों पर था, उतना ही लड़कियों पर भी माना जाता था। उसके बाद एक काल ऐसा आया, जब समाज में स्त्री जीवन को गौड़ स्थान प्राप्त हुआ और केवल पुरुष की सहधर्मिणी बनकर उसके जीवन के ध्येय को सिद्ध करने में सहायक होना, नहीं यह भी नहीं, बल्कि वीर पुरुषों को जन्म देना ही स्त्रियों के जीवन का एक मात्र कर्त्तव्य माना जाने लगा। फलतः स्त्रियों का विवाह ही उनका उपनयन, ससुराल ही गुरुकुल और पति की गुरु माना गया। लड़कों का उपनयन आठ वर्ष की अवस्था में होता था। बस आठ साल की दुधमुँही बालिकायें भी ससुराल भेजी जाने लगीं। यहाँ से नारी-जीवन के अधःपतन का सूत्रपात हुआ। हमारे सुदैव से जमाने ने फिर पलटा खाया। राजाराम मोहन राय, पण्डित ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, स्वामी दयानन्द, महादेव गोविन्द रानाडे आदि श्रेष्ठ व्यक्ति इस देश में उत्पन्न हुए, जो नारी-जागरण के आद्य प्रवर्तक थे। इन्हीं महानुभावों के प्रयत्नों से देश में स्त्री-शिक्षा का आरंभ हुआ और फिर से स्त्रियों में स्वतंत्र जीवन की लालसा और अपने आत्मविकास की इच्छा जागृत हुई।
जब तक हमारी शिक्षा प्रणाली हमारे सामाजिक और पारिवारिक जीवन के आदर्शों के अनुकूल नहीं होगी, तब तक वह उपयोगी नहीं हो सकती। जीर्ण मतवादियों के आदर्शों के अनुसार स्त्री केवल पुरुष की मददगार मानी जाती है। पुरुष चाहे कितना ही मूर्ख, निकम्मा और दुष्ट क्यों न हो, स्त्री का धर्म उसकी सेवा करना और उसकी आज्ञा मानना ही था। उसके जीवन का श्रेष्ठ-से-श्रेष्ठ आदर माना जाता था, वीर पुरुषों को जन्म देना ही। मैं मातृत्व की अवहेलना नहीं करना चाहती। भारतीय सभ्यता के उच्चतम आदर्श का मातृत्व एक अनूठा प्रतीक है। लेकिन यह कहना कि मातृत्व नारी-जीवन का एक मात्र या सर्वोपरि ध्येय है, मेरी राय में स्त्री की आत्मा के सम्पूर्ण विकास में बाधक होगा। वीर संतान उत्पन्न करना जितना पुरुष का धर्म है, उतना ही स्त्री का भी है। परमात्मा ने गर्भधारण का और बालकों की परवरिश का भार स्त्री जाति पर सौंपकर उनके प्रति अपना विशेष विश्वास प्रकट किया है, यह भी उनके लिए गौरव का विषय है। परन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं हो सकता कि स्त्री-जीवन की सफलता इसी एक कार्य में है।
पुरुष समाज का एक अंश है और स्त्री दूसरा अंश है। समाज के प्रति यदि पुरुष के कुछ कर्त्तव्य हैं, तो स्त्री के भी हैं। अपने पारिवारिक हित को समाज हित के लिए आहुति दे देना अगर पुरुष का परम धर्म है, तो स्त्री का भी है। स्त्री केवल माता ही नहीं, वह समाज की एक समस्या भी है। जो लोग यह कहते हैं कि लड़की की गुड्डी और लड़के की काठ की तलवार उन की मनोवृत्ति के द्योतक हैं, उनकी राय में शायद स्त्रियों का काम केवल पुरुषों को जन्म देना और पुरुषों का उन्हें काट डालना भले ही हो। परन्तु हमें अपनी शिक्षाप्रणाली में ऐसे आसुरी सिद्धान्तों को हरगिज दाखिल नहीं करना चाहिए। स्त्री और पुरुष की शरीर रचना और प्रकृति में भेद अवश्य है। लेकिन इसलिए यह कहना कि स्त्रियों का कार्यक्षेत्र केवल प्रसूतिगृह और पुरुषों का केवल रणभूमि है, निरी जड़ता है। स्त्रियाँ केवल सूतिकाएं नहीं और न पुरुष केवल हत्यारा है। यद्यपि दोनों में कुछ प्राकृतिक भेद है, तथापि धर्म के प्रति दोनों का उत्तरदायित्व समान है। दोनों ही मनुष्य हैं। दोनों की जाति एक है। इसलिए हर एक पुरुष किसी न किसी स्त्री की कोख से जन्म लेता है और हर एक स्त्री का जनक कोई न कोई पुरुष होता है।
स्त्री और पुरुष के प्राकृतिक भेदों पर विशेष जोर देकर उनकी इस मूलभूत एकता को भूल जाना हमारे लिए अनर्थकारी साबित होगा। स्त्री और पुरुष का आत्यन्तिक भेद काल्पनिक और कृत्रिम है। इसलिए हमें अपनी स्त्री-शिक्षा की योजना में स्त्रियों की मनुष्यता का विशेष ध्यान रखना होगा। हमारी शिक्षा ऐसी हो, जो स्त्रियों में आत्म-विश्वास पैदा करे। जिस प्रकार पुरुष का समाजसेवा का अपना आदर्श और प्रणाली हो सकती है, उसी प्रकार हर एक स्त्री की भी हो सकती है। उन आदर्शों को अपनी सारी शक्तियाँ अर्पण कर देने का और उसके लिए पारिवारिक जीवन को तिलाँजलि देने का ब्रह्मचर्य पालन का, उसे भी उतना ही अधिकार है, जितना पुरुष को है। यदि सहायता की आवश्यकता है, तो दोनों को है, अकेली स्त्री को नहीं। जब तक हमारी शिक्षा का आधार यह सिद्धाँत नहीं होगा, तब तक स्त्री को यमुना नदी का ही अभिनय करना पड़ेगा और उसका आत्मविकास शेख चिल्ली का मनोराज्य ही बना रहेगा।
स्त्री शिक्षा और स्त्री स्वतंत्रता के साथ-साथ हमारे सामाजिक और पारिवारिक जीवन में स्त्री पुरुषों के सहयोग का बढ़ता जाना उचित ही नहीं, किन्तु आवश्यक भी है। लेकिन इस सहयोग के साथ-साथ विषयशक्ति बढ़ने का डर भी तो है। मेरी अपनी यह राय है कि जब तक स्त्रियों की रक्षा का भार पुरुषों पर ही रहेगा, तब तक उनका चरित्र उज्ज्वल हो ही नहीं सकता। आत्म-रक्षा का मूल सिद्धाँत है, अपनी इज्जत के लिए अपने प्राण देने की तैयारी इसका नाम है आत्मबल। पूर्व काल में जब स्त्रियाँ परतंत्र थीं तब उनका पुरुष से संबंध दो ही प्रकार होता था, खून का या विवाह का। पुरुष उनके चरित्र का मालिक भी था। भारतीय दन्तकथाओं में और आज भी शायद कोई विरला ही ऐसा राजा हो सकता है, जिसके एक से अधिक रानियाँ नहीं। कोई इसे सामाजिक जीवन की पवित्रता भले ही माने, मैं तो उसे वैध अपवित्रता कहने के लिए तैयार हूँ। मेरा ख्याल है कि स्त्रियों की कमजोरी की जड़ उनकी आत्मा की दुर्बलता है। हमारी स्त्री जाति में इस घृणित भ्रम ने घर कर लिया है कि विवाह के बिना स्त्री-जीवन चरितार्थ ही नहीं हो सकता। इससे बढ़कर विनाशकारी दूसरा कोई भ्रम शायद ही हो सकता हो। यह स्त्रियों की परवशता का और हमारी सामाजिक अपवित्रता का मूल है।
आत्म-रक्षा दो प्रकार की होती है-प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष। आहार बनाना, आघात और आक्रमणों का प्रतिकार करना, रोग और व्याधियों का उपचार आदि बातें प्रत्यक्ष आत्म रक्षा में आती हैं। जीविका का उपार्जन करना, अपने परिश्रम से कमाना अप्रत्यक्ष आत्म-रक्षा है। इस क्षेत्र में स्त्रियों को अपनी योग्यता साबित करनी चाहिए। कोमलता और विनय हृदय के गुण हैं, न कि शरीर के वे पुरुषों को भी शोभा देते हैं और स्त्रियों के तो खास आभूषण हैं। लेकिन नजाकत एक बड़ा भारी दुर्गुण है, जो स्त्रियों को भी नहीं शोभा देता। हमारी स्त्री-शिक्षा ऐसी होनी चाहिए, जो स्त्रियों को केवल हस्त कौशल के कामों में ही निष्णात न बनावे बल्कि उनमें शारीरिक श्रम करने की क्षमता भी प्रदान करे। अंग्रेजी शिक्षा ने पुरुषों में जिस प्रकार एक बाबू दल पैदा कर दिया, उसी प्रकार यदि स्त्रियों में भी पढ़ी लिखी सफेदपोश मेम साहबों का एक निकम्मा दल निर्माण होने वाला हो तो भगवान बचावे।
स्वतंत्रता का मूल है संयम। विलासिता और भोग-लालसा गुलामी की जननी है। निरंकुशता स्वतंत्रता की विमाता है, जिसके साथ ब्रह्मचर्य असंभव है। आज तक यह ध्येय सिर्फ पुरुषों के जीवन में होता था इसलिए ब्रह्मचर्य उनका अपना खास क्षेत्र माना जाता था। स्त्री के जीवन की सफलता विवाह में ही मानी जाती थी, क्योंकि वह केवल सहधर्मिणी थी, उसका अपना कोई ध्येय या धर्म नहीं था। अब यदि स्त्रियाँ उस क्षेत्र में उनकी बराबरी करना चाहती हैं तो उनको अपने जीवन का आदर्श निश्चित करना होगा और उसी के अनुसार अपने सारे जीवन को मोड़ना होगा। स्त्रियों को चाहिए कि वे ऐसा साथी पसन्द करें, जिसके सिद्धाँत और ध्येय उसके अनुकूल हों, तभी उनका गृह-जीवन सुखी और पवित्र होगा। समाज में गृह-जीवन जितना पवित्र होगा उतना ही वह ब्रह्मचर्य के आदर्श की ओर अग्रसर होगा। महात्मा गाँधी जी के सार्वजनिक जीवन का अब ऐसा कोई क्षेत्र नहीं रहा है जिसमें महिलाओं का प्रवेश न हो। उन सारे क्षेत्रों में जाकर अपने त्यागमय प्रेम से और फलाशा-रहित सेवा से उन्हें अधिक सुन्दर, सम्पन्न और मंगलमय बनाने की जिम्मेवारी भारत की सुशिक्षित युवतियों पर है।