मनुष्य की आयु कल्पना

December 1949

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(ले. श्री सदानन्दजी ब्रह्मचारी)

एक समय आनन्द वन के उत्तर वरुण तट पर मनुष्य, बैल, कुत्ता, बगुला और ऊंट ये पाँचों महाशय एकत्र हो गये। वार्तालाप होने लगा। बातचीत में वे अपनी-अपनी आयु के विषय में चर्चा करने लगे। क्रमशः चारों के पूछने पर एक-एक ने कहना प्रारंभ किया। पहले मनुष्य ने अपनी आयु बीस वर्ष की बताई और फिर उन चारों ने अपनी उम्र चालीस-चालीस वर्ष की कही। अपनी कम आयु होने के कारण चिंतातुर मनुष्य से अन्य जीवों ने कहा- हे मनुष्य, तुम्हारी उम्र बहुत कम है, पर तुम इसके लिए चिंता मत करो। हम अपनी आयु के बीस-बीस वर्ष तुम को देते हैं, इससे तुम्हारी अवस्था सौ वर्ष की हो जायेगी।

मनुष्य ने कहा- आप लोगों की उदारता के लिए धन्यवाद है, आयु जैसी अमूल्य वस्तु देकर आप लोगों ने अपने आत्म-त्याग का परिचय दिया है। मैं सधन्यवाद आप लोगों की आयु को वापिस लौटाता हूँ, क्योंकि जैसे अपना जीवन मुझे प्रिय है, ऐसे ही आप लोगों को भी है। यह सुनकर उनमें से बैल और ऊंट बोले- प्रियवर, हम खुशी से यह काम कर रहे हैं, हमारी तो बीस वर्ष की आयु भी काफी है, क्योंकि हम चालीस वर्ष भी जीवित रहे तो क्या होगा? हमें तो वे आजीवन गुलामी में बिताने हैं, जब तक जीवित रहेंगे बोझा ही ढोते रहेंगे। ऐसी दशा में हमारा हजार वर्ष जीना भी खुशी की बात नहीं है। बोझा ढोना, मार खाना, भूखे प्यासे बंधे पड़े रहना ही हमारे भाग्य में लिखा है। फिर तुम ही बताओ हम लंबी आयु लेकर क्या करेंगे? तुम मनुष्य ठहरे, स्वतंत्रता से विचरते हो, चाहोगे तो अपनी बुद्धि से स्वयं सुखी रहते हुए दूसरों को भी आराम पहुँचा सकते हो। तुम्हारे पास जाकर निष्फलीभूत हमारी आयु भी सफल हो जायेगी।

कुत्ते और बगुले ने भी उक्त कथन का समर्थन करते हुए कहा कि हम अज्ञानान्धकार में पड़े हुए यदि सहस्र वर्ष पर्यन्त जीवित अवस्था भोगते रहे तो किस पुरुषार्थ की सिद्धि कर लेंगे? फिर कुत्ते और बगुले की तो लोक में कोई प्रतिष्ठा भी नहीं है। मैं (कुत्ता) रात भर जागकर नगर की रखवाली करता हूँ पर डण्डों तथा कुवाच्यों से पुरस्कृत होता हूँ। यह बगुला किसी तरह अपनी गुजर करता है, पर लोगों ने इसे ठग की उपाधि दे रखी है। अतः हम लोग भी आप को अपनी आधी आयु देकर उसे सफल बनाना चाहते हैं।

सब की हार्दिक इच्छा देखकर मनुष्य ने उनकी आयु ले ली और सौ वर्ष जीने वाला बन गया। उस आयु का उपयोग किस प्रकार होता है अब यह देखिए-

(1) जब तक उस की अपनी आयु रही यानी वह बीस वर्ष का रहा, तब तक तो विषय-वासना से रहित हो ब्रह्मचर्यादि व्रत धारण पूर्वक विद्याध्ययनादि उत्तमोत्तम कार्य करता रहा। इससे सभी को यह आशा हो गई कि महाशय मनुष्य कुछ ही दिनों में सोने के हो जायेंगे और जगत का कल्याण सम्पादन करते हुए सुवर्ण से सुगंध का सुयोग कर देंगे।

(2) अनन्तर बीस वर्ष के बाद बैल की दी हुई आयु आरंभ हुई। मनुष्य विवाहित हो गया, द्विपद के चतुष्पद, चौपाया हो खूब कमाने, खाने और पशुवत् क्रीड़ा में मस्त हो गया। ‘मनुष्यरूपेण मृगाच्छरान्त’ के अनुसार मनुष्य बैल की तरह जीवन बिताने लगा। जैसे बैल अपना हिताहित विचारने में असमर्थ है, उसी तरह मनुष्य भी विवाहित जीवन प्राप्त करके खाने कमाने को ही सब कुछ समझ कर गृहस्थी का भार ढोने में व्यग्र रहता है। वह परमार्थ को भूल जाता है, उसे यह याद नहीं रहता कि जैसे मनुष्य के लिए खाना, सो जाना आदि व्यवहार आवश्यक है, उसी तरह प्रभु चिन्तन, तथा धर्मकृत्य भी कम जरूरी नहीं हैं। इसी तरह से बीस वर्ष भी बीत गये।

(3) फिर चालीस वर्ष के बाद कुत्ते की दी हुई आयु प्रारंभ हो गई। दो चार बाल-बच्चे पैदा हो गये। बहुएँ आ गई, परिवार बढ़ गया, साथ ही अशाँति भी बढ़ गई और आवश्यकताएं भी बढ़नी ही चाहिए थीं। सभी की आय के साधन सीमित ही होते हैं, सभी कुटुम्ब के लोगों की जरूरतें पूरी करने का जिम्मा इसी के सिर पड़ गया। इससे कोई कुछ माँगता है और कोई कुछ चाहता है। जिस का कहना मान लिया या जिस की आवश्यकता पूरी कर दी तो वह पूत पतोहू आदि उसे इसलिए धन्यवाद तक नहीं देते कि इसे तो हमारा कहना करना उचित ही था, बाबा या दादा ने किया क्या? सिर्फ अपना फर्ज अदा किया है। और जिस की बात न मानी, वह नाराज होकर मुँह फुलाये बैठ जाता है। अभिप्राय यह है कि हो तो भी कुछ गिनती में नहीं, न हो तो भी वैसा ही। इससे गृहाध्यक्ष की वृत्ति झुँझलाने की हो जाती है, स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है।

वह फिर कुत्ते की तरह कभी लड़कों पर खिसिया उठता है कभी स्त्री पर। कभी बहुओं को काटने दौड़ता है और कभी अन्य नौकर आदि से उलझ जाता है। ज्यादे बेटे और बहुओं के सामने इसके किये तो कुछ होता नहीं, झूठ-झूठ इन्तजामअली (प्रबंधक) बना रहता है। विलक्षणता यह है कि कुत्ते की तरह उसी देहली पर लात डण्डे खाता रहता है। उसे यह विचार नहीं होता कि कुटुम्ब में तभी तक हस्तक्षेप करना चाहिए जब तक उसके संभालने वाले जिम्मेदार लोग न तैयार हो जायं। उसे यह याद करना चाहिए कि जैसे मैंने आज तक प्रभु की विभूति समझ कर कुटुम्ब की सेवा की, अब मुझे उस की विभूति की चाहना नहीं, प्रत्युत खुद उसकी सेवा (भजन-यज्ञ-पूजन-ध्यान) करनी चाहिए। मनुष्य सारी शक्ति लगाकर लोक सेवा करे तो सर्वोत्तम काम है, पर समय पाकर उसे अपना भी उद्धार करना उचित है। समय-समय के काम सुहावने होते हैं।

(4) इसके बाद जब बगुले वाले बीस वर्ष प्रारंभ हुए, यानी आयु की गाड़ी साठ वर्ष से ऊपर की सड़क पर चलने लगी तो हाथ में माला लेकर पूरे भक्तराज बनने का यत्न होने लगा। माला हाथ में लेते ही सारी दुनिया का जंजाल सामने आ गया। जन्म भर जो पापड़ बेले थे, वे मूर्तिमान हो एक के बाद दूसरे सामने खड़े होने लगे। परमात्मा का ध्यान तो कहीं रह गया जगत की बला दृष्टिगोचर होने लगी। फिर माला हाथ में पकड़ते ही नींद नहीं तो झपकी लगने से माला हाथ से गिर पड़ी। लगे थे भजनों का ढेर लगाने, पर खुद मायाजाल के फेर में पड़ गये। जब कि जन्म भर प्रतिदिन दस मिनट भी शाँति में बैठकर राम का नाम नहीं लिया, फिर एक दम इस जर्जरीभूत अवस्था में आराम कैसे मिल सकता है? बल्कि इस आयु में कामनाएं और अधिक बढ़ जाती हैं। बगुला एक पाँव से जल में जो तप करता है, उससे वह योगिराज नहीं कहा जा सकता। अब वकवृत्ति से उद्धार होना कठिन है। इसका तो पहले से ही अभ्यास करना था।

(5) इसके बाद यह ऊंट की जिन्दगी यानी अस्सी वर्ष की आयु के ऊपर पहुँचता है तथा इसकी नाक में नकेल पड़ जाती है, यानी इस को एक आदमी आगे होकर ले चलता है। पीठ अकड़ जाती है, टाँगे सूख कर लकड़ी बन जाती हैं। ऊंची गर्दन करके रास्ता ताकता है कि प्रपोत्ररत्न पानी लेकर आता होगा। पीठ पर बोझा नहीं ढोया जाता, पर मन पर, हृदय पर इस भावना का भार अभी भी लदा रहता है कि मुन्नी की शादी अच्छे घर में मेरे सामने हो जाती तो मुझे संतोष होता।

यही मनुष्य की आयु का लेखा है। मनुष्य के लिए यह दुःख की बात होगी कि वह मनुष्य होकर पशु धर्म का अनुसरण करे। उसे तो मानवोचित कर्त्तव्य कर्मों में अपनी आयु का सदुपयोग करते हुए वास्तविक मनुष्य जीवन जीना उचित है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118