(श्री स्वामी सत्यभक्तजी वर्धा)
जीवन एक संग्राम है।
जैसे संग्राम में थोड़ी सी असावधानी घातक होती है उसी प्रकार जीवन में भी, थोड़ी सी भी असावधानी घातक होती है।
संग्राम में जैसे बहादुरी की आवश्यकता है उसी प्रकार जीवन में भी बहादुरी की आवश्यकता है।
संग्राम में जैसे विपक्षी धोखा देने की कोशिश करता है उसी प्रकार दुनिया में भी लोग धोखा देने की कोशिश करते हैं। इसलिए संग्राम में और जीवन में चौकन्ना रहने की जरूरत है।
संग्राम में जैसे संगठन और अनुशासन जरूरी है उसी प्रकार जीवन में भी संगठन और अनुशासन बहुत जरूरी है।
इन या ऐसी ही बातों के कारण जीवन संग्राम है पर जीवन की संग्रामता का यह मतलब नहीं है, कि यह मनुष्य मनुष्य का युद्ध है, वास्तव में यह मनुष्य और शैतान का युद्ध है।
जीवन एक कला है।
जैसे कलाकार थोड़ी ही सामग्री से वस्तु को सुन्दर स्वादिष्ट बना लेता है उसी प्रकार जीवन के कलाकार थोड़ी-सी ही सामग्री से जीवन को सुन्दर सफल बना लेते हैं। सफल जीवन के नाम से जिनकी ख्याति हुई है उनके जीवन में महत्ता जितनी थी कला उससे कम न थी।
बहुत-से प्राणी मोह और अहंकार के वश में होकर जीवनभर और दिन-रात कष्ट उठाते हैं सर्वस्व लगा देते हैं फिर भी सफल नहीं हो पाते यह कलाहीनता की निशानी है।
जीवन एक यात्रा है।
यह यात्रा सत्य की राह में पिछली मंजिल से आगे की मंजिल तक ले जाती है। हो सकता है कि यही अंतिम मंजिल हो, हो सकता है कि और भी मंजिलें बाकी हों पर यात्री तो आगे ही बढ़ता है।
पापी लोग बड़े अभागी हैं वे इस यात्रा में पीछे की ओर दौड़ते हैं, और इस बुरी तरह से दौड़ते हैं कि उनका जीवन खाई-खंदक में ही चिरकाल के लिये समा जाता है।
इस यात्रा में संकट तो हैं ही, पर संकट से ज्यादा प्रलोभन हैं। सच्चा यात्री न तो संकटों से डरता है न प्रलोभनों के चक्कर में पड़ता है।
स्नान के लिए निर्मल सरोवर की ओर जाने वाला आदमी अगर रास्ते की गटर में स्नान करने लगे, तो उसकी जो दुर्दशा होगी वही दुर्दशा उस जीवन-यात्री की होती है, जो प्रलोभनों में फंस जाता है।
जीवन यात्री दुनिया की चीजों को उसी नजर से देखता है जैसे एक मुसाफिर खाने को मुसाफिर। मुसाफिर को मुसाफिरखाने ही मिल सकते हैं घर मिल जाय तो यात्रा पूरी हो जाय वह मुसाफिर ही न रहे। वे मूर्ख हैं जो मुसाफिरखाने को ही घर समझ बैठते हैं।
हो सकता है कि तुम्हें यात्रा करते-करते इन आँखों से घर न दिखे फिर भी तुम्हें उसी की आशा में उसी की ओर चलना है। उस घर का नाम सत्य-लोक, बैकुण्ठ, मोक्ष, बहिश्त, स्वर्ग, निर्वाण आदि कुछ भी हो सकता है या अज्ञात या अनिर्वचनीय भी रह सकता है।
जीवन एक खेल है।
खेल जय-पराजय के लिए नहीं खेला जाता प्रसन्नता के लिए खेला जाता है, जीवन भी प्रसन्नता के लिए है इसमें हार-जीत का कोई सवाल नहीं है।
खिलाड़ी लड़ते हैं पर प्रेम नहीं तोड़ते, जीवन में लड़ो-पर प्रेम न तोड़ो।
खेल में बेईमानी करने से जो कुछ मिलता है उससे कई गुणा गुम जाता है। खेल का प्राण ही निकल जाता है जीवन में भी यही बात है।
जो जीवन को खेल समझ सकते हैं वे ही मुक्त हैं।
जीवन एक नाटक है।
नाटक के पात्र की महत्ता राजा या रंक बनने में नहीं है। किन्तु जो कुछ बनाया जाय उसका खेल अच्छी तरह कर दिखाने में है। जीवन की महत्ता कुलीनता वैभव उच्च पद आदि में नहीं है परन्तु कर्त्तव्य का खेल अच्छी तरह कर दिखाने में है।
नाटक का खिलाड़ी न विलासी बनता है न कष्ट भोगता है सिर्फ विलास या कष्ट का प्रदर्शन करता है। इसी तरह जीवन के नाटक में भी परा मनोवृत्ति को अक्षुब्ध रखना चाहिए।
जीवन एक लहर है।
जैसे लहर पिछली लहर से पैदा होकर अगली लहर को पैदा करती है उसी प्रकार जीवन भी पिछले जीवन से पैदा होकर अगले जीवन को पैदा करता है।
लहर के समान जीवन भी क्षणिक है, उस पर इतराना वृथा है।
जीवन एक बुदबुदा है।
जैसे बुदबुदे के स्थिर रहने में ही आश्चर्य है उसके फूटने में नहीं, उसी प्रकार जीवन के टिकने में ही आश्चर्य है मिटने में नहीं।
आश्चर्य यह नहीं कि मौत क्यों आती है? आश्चर्य यह है कि मौत के हजारों रूपों से दिन रात घिरा रहने पर भी यह इतने दिन तक टिका कैसा रहता है।
जीवन एक विश्व है।
क्योंकि स्वर्ग और नरक, ईश्वर और शैतान सब इसी में हैं।
भावना या मन इसी के भीतर रहकर भूत, भविष्य, वर्तमान, ऊर्ध्व, मध्य, पाताल देखता है।
जीवन के ज्ञान लेने से ही मनुष्य सर्वज्ञ या विश्रुत बन जाता है।