मनुष्य का जन्म किसलिए?

December 1949

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(जोसेफ मेजिनी)

पृथ्वी पापों का प्रायश्चित करने के लिए कुछ दिन विश्राम करने की जगह नहीं है। यह वह घर है, जिसमें रहकर हमें सत्य, न्याय और दया के उस अंकुर को परिपुष्ट करना चाहिए, जिसका बीज प्रत्येक मनुष्य के हृदय क्षेत्र में बोया गया है। यह पूर्णता के उस शिखर पर पहुँचने की सीढ़ी है जिसको हम तभी प्राप्त हो सकते हैं जब कि अपने मन, वचन और कर्म से ईश्वर के प्रकाश को संसार में फैलावें और अपने आपको इस पवित्र काम के लिए समर्पित कर दें कि जहाँ तक हमारे सामर्थ्य में है, उस प्रभु की इच्छा पूर्ण करेंगे। जिस समय हमारा न्याय होगा और हमको यह व्यवस्था दी जायेगी कि हम या तो आगे बढ़ें या पीछे हटें, उस समय केवल यही देखा जायेगा कि हमने अपने भाइयों के साथ भलाई की है या बुराई? उनको अपने जीवन संग्राम में सहायता पहुँचाई है या हानि?

जितनी अधिक सहानुभूति और जितना अधिक निष्कपट प्रेम हम अपने सजातीय बाँधवों के साथ रखेंगे, उतने ही अधिक हमारी शक्ति बढ़ेंगी। हमें यह प्रयत्न करना चाहिए कि मनुष्य जाति एक कुटुम्ब बन जावे, जिसका प्रत्येक अंग प्रज्वलित अणु के समान धार्मिक प्रकाश की किरण बनकर दूसरों के लिए उन पर चमके। जिस प्रकार जातिगत पूर्णता पीढ़ी दर पीढ़ी अर्थात् युग−युगांतर में उन्नति करती जाती है। उसी प्रकार व्यक्तिगत पूर्णता भी जन्म जन्मान्तर में उन्नति कर रही है और करेगी।

मनुष्य जाति के सब अंगों में अधिक गहरा और अधिक फैला हुआ मेल-जोल उत्पन्न करके अपने आपको तथा दूसरों को धार्मिक उच्चभावों की सीमा तक पहुँचाना ही हमारे जीवन का उद्देश्य है, बिना इसको पूरा किये हम कभी विश्राम न लेंगे।

इस पृथ्वी पर तुम इसलिए भेजे गये हो कि ईश्वर का एक नगर बसाओ। उसमें सार्वजनिक कुटुम्ब की स्थापना करो। इस महान कार्य के सम्पादन करने के लिए तुमको लगातार परिश्रम और उद्योग करने की आवश्यकता है।

जब तुममें से प्रत्येक मनुष्य मात्र को भ्रातृ दृष्टि से देखने लगेगा और सब आपस में एक कुटुम्ब लगेगा और सब आपस में एक कुटुम्ब का सा आचरण करने लगेंगे, हर एक मनुष्य दूसरों की भलाई में ही अपनी भलाई समझेगा, अपने जीवन को सबके जीवन के साथ और अपने लाभ को सबके लाभ के साथ मिलायेगा, जब हर एक मनुष्य इस संयुक्त कुटुम्ब के लिए स्वार्थ त्याग करने पर उद्यत होगा और वह कुटुम्ब किसी एक व्यक्ति को भी अपने से पृथक न समझेगा। उस समय वे बहुत सी बुराइयां जो अब मनुष्य जाति के दुःख और उद्वेग के कारण हो रही हैं, उसी प्रकार शाँत हो जावेंगी जिस प्रकार सूर्योदय के उदय होते ही निविड़ तमोराशि छिन्न-भिन्न हो जाती है। तभी ईश्वर की इच्छा पूर्ण होगी, क्योंकि उसकी यह इच्छा है कि मनुष्य जाति के बिखरे हुए अंग प्रेम के द्वारा आपस में मिलजुल कर धीरे-धीरे एक हो जायें और जिस प्रकार वह आप एक है, उसी प्रकार उसकी सन्तान भी एक ही हो जाये।


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