(श्री. राजकुमारी भारतीय)
तू अनादि, अनन्त, शाश्वत, सत्य-चित्-आनन्द दाता।
तू सनातन, मुक्त, चेतन, विश्व का-विधि का-विधाता।
तू अजर, अविनाश, अविचल, मेदिनी की दिव्य आशा।
तू अगम्य, अलिप्त, निश्चल, दिव्यता की भव्य भाषा।
है निरंजन रूप तू ही, है अभय, अक्षय, अमर तू। है पुरुष, पुरुषार्थ कर तू!!
तू अगर चाहे पलक में रेणु को पर्वत बना दे।
तू अगर चाहे क्षणिक में, बिन्दु में सागर समा दे।
तू अगर चाहे हिला दे विश्व को निज आत्म बल से।
तू अगर चाहे मिला दे भूमि को आकाश तल से।
है अगाध, असीम, अतुलित शक्ति तेरी, वीरवर तू। है पुरुष, पुरुषार्थ कर तू!!
राम में है तू रमा और कृष्ण का भी रूप पाया।
जिन, मोहम्मद, बुद्ध, ईसा इन सबों में तू समाया।
वेद, गीता, धम्मपद, श्रुति, शास्त्र सब तेरे बनाये।
है कुरान, पुरान में तेरे हृदय के भाव छाये।
तू नियन्ता है नियति का, कौन कहता शुद्र नर तू। है पुरुष, पुरुषार्थ कर तू!!
फिर बना मूर्छित, गलित सा आज क्यों निष्प्राण तू रे।
सिंह-शावक हो बना क्यों स्वार्थ लोलुप श्वान तू रे।
रे! युगों की चेतना का क्या यही उपहार लाया?
धिक् तुझे, तूने वृथा ही है पुरुष का जन्म पाया।
ज्ञान से जी-जी अगर तू, शान से मर-मर अगर तू। है पुरुष, पुरुषार्थ कर तू!!
रे, जरा पहचान तू है कौन? तेरा कर्म क्या है?
किस लिये आया जगत में और तेरा धर्म क्या है?
है प्रभु का अति दुलारा, प्राण प्यारा पुत्र तू रे।
जो बंधा जग से, विभु से, वह सुमंगल सूत्र तू रे।
इसलिये निष्काम हो, प्रभु ध्यान धर जग ताप हर तू। है पुरुष, पुरुषार्थ कर तू!!
है जगत के मंच पर अपना तुझे अभिनय दिखाना।
रे! पुरुष से है तुझे भगवान पुरुषोत्तम कहलाना।
जान ले निज-तत्व को पहचान ले निज सत्व को रे।
मूर्छना से जाग, कर्मठ बन, दिखा अपनत्व को रे।
छोड़ दे भय भीरुता, निर्द्वन्द्व हो निर्भय विचर तू। है पुरुष, पुरुषार्थ कर तू!!
*समाप्त*