कृपा कर अधिक बाल बच्चे उत्पन्न न कीजिए।

December 1949

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(श्री गोरी शंकर महता)

राष्ट्र के स्वास्थ्य को यदि दुर्बल नहीं बनाना है- भावी सन्तान को यदि अपने पूर्वजों की भाँति हृष्ट-पुष्ट और शक्तिशाली बनाना अभीष्ट है तो वर्तमान पारिवारिक जीवन पर नियंत्रण रखकर, दिन प्रतिदिन होने वाली जनसंख्या की वृद्धि को रोकना आवश्यक है। जिनकी आमदनी बहुत थोड़ी है वे शादी ही क्यों करें? जिस जिम्मेदारी को निभाने की उनमें शक्ति नहीं उसे वे अपने दुर्बल कंधों पर लें ही क्यों? पर यहाँ तो बहुत छोटी उम्र में ही शादी कर दी जाती है और जिस उम्र में यूरोप तथा अमेरिका आदि उन्नत देशों के लोग शादी का नाम ही नहीं लेते, उसी उम्र में हमारे यहाँ के नौजवान कई बच्चों के पिता बन जाते हैं। इसका परिणाम आँखों के सामने चारों ओर दिखाई पड़ रहा है। हजारों गृह देवियाँ जवानी में ही बुढ़ापे का अनुभव करती हैं, अनेक प्रकार के भयंकर रोगों का शिकार बन जाती हैं। इनसे जो बच्चे उत्पन्न होते हैं उनकी भी दशा देखिए। किसी का पेट निकला हुआ है तो किसी के गाल पिचके हुए हैं और किसी का सिर ही सिर दिखाई पड़ता है। इसमें इन बेचारों का क्या कसूर? दुर्बल माता-पिता से हृष्ट-पुष्ट बच्चे की आशा कैसे की जा सकती है? फलतः हमारी भावी पीढ़ी और भी कमजोर होती जा रही है- शारीरिक और बौद्धिक दोनों ही दृष्टियों से देखा तो आज लाखों रोगियों की मृत्यु इसलिए होती है कि वे अपनी गरीबी के कारण चिकित्सा की समुचित व्यवस्था नहीं कर सकते। कोई आदमी किसी दफ्तर में नौकरी करता है, उसी पर परिवार के भरण-पोषण का भार है। वह बीमार पड़ता है और यदि किसी प्रकार अच्छा हुआ तो भी नौकरी चले जाने के भय से पूरे समय तक विश्राम नहीं कर सकता। स्वास्थ्य अच्छी तरह सुधरा नहीं कि दफ्तर की ओर चल पड़े। परन्तु शरीर तो नौकरी की परवा नहीं करता और न रोग ही किसी की नौकरी छूट जाने से डर सकता है। परिणाम वही होता है जो ऐसी अवस्था में हो सकता है-अकाल मृत्यु, सारा परिवार दुख सागर में डूब जाता है। बहुधा कोई उनकी खोज-खबर लेने वाला भी नहीं रह जाता। यह कोरी कल्पना नहीं है, नित्य हजारों ऐसी घटनाएं हो रही हैं। जितनी आमदनी में सिर्फ दो आदमियों का गुजारा मुश्किल से हो सकता है, उतने से ही अगर आधे दर्जन संतान सहित गुजारा करना पड़े, तो इसके सिवा और दूसरा परिणाम क्या हो सकता है? अतएव वर्तमान परिस्थिति में चाहे जिस दृष्टि से देखा जाय, सन्तान निग्रह नितान्त आवश्यक हो गया है-बल्कि यह कहना चाहिये कि वर्तमान कष्टों को कम करने और दिन पर दिन बढ़ने वाली भयंकर मृत्यु संख्या को घटाने का यही एकमात्र उपाय है।

तीन सौ वर्ष पहले भारत की आबादी सिर्फ 10 करोड़ थी और आज कितनी है- 47 करोड़ से अधिक। अट्ठारहवीं सदी में भी भारत की आबादी 15 करोड़ से अधिक नहीं रही थी, लेकिन अब तो घनघोर बढ़ाव छिड़ा हुआ है। चाहे लोग मर जायें, पच्चीस वर्ष में ही, लेकिन तीन-चार बालबच्चे छोड़ ही जायेंगे। कुछ ऐसा आबादी बढ़ाने का चस्का, इस मुल्क के लोगों को पड़ गया है कि दुनिया को हैरत होती है। 1931 में आबादी 35 करोड़ 3 लाख थी और अब 47 करोड़ से अधिक है। यह बढ़ती सब जगह हुई है। यू.पी. में जनसंख्या 2 करोड़ से 5 करोड़, बिहार में 50 लाख से 2 करोड़, बंगाल में 1 करोड़ से 5 करोड़, 1 लाख हो गई है। इस तरह आप देखेंगे कि 3 करोड़ से आबादी बढ़ते-बढ़ते 12 करोड़ 50 लाख हो गई है। इतनी सब बढ़ती गंगा नदी के कछार वाले प्रदेश में ही हुई है।

और इसी के साथ-साथ नहरों और सिंचाई के नये-नये साधनों के उपलब्ध हो जाने से गंगा के कछार में खेती का रकबा और भी बढ़ गया है। पहले 75 फीसदी जमीन में ही गंगा के कछार में आबादी होती थी, लेकिन अब 95 फीसदी रकबे में खेती हो रही है। अब आप सोच लीजिये कि आखिर अगर आबादी बढ़ती गई, तो क्या होगा? सिर्फ 5 फीसदी जमीन और बाकी है, जिसमें खेती हो सकती है।

और इस 95 फीसदी जमीन को खेती के लिए कैसे प्राप्त किया गया है। जंगल काट डाले गये हैं, दलदल सुखा डाले गये हैं और जो भी तरीके हो सकते हैं, उन सब से काम लेकर खेती की गई है। लेकिन आबादी बढ़ती गई। आबादी इतना बढ़ गई है और जमीन के इतने छोटे-छोटे खण्ड हो गये हैं कि ठिकाना नहीं। इस हालत में किसान ने पेट पालने के लिये खेत में थोड़ी जमीन में ज्यादा फसल हासिल करने का बन्दोबस्त कर लिया है और ऐसा ही हो रहा है। 1924-25 से आज तक यू.पी. में 4 लाख एकड़ अधिक जमीन में दो फसल बोई जा रही हैं। हर तरह की जमीन खेती के काम में आ रही है और आसाम और बर्मा को छोड़कर शेष भारत में 95 फीसदी जमीन हल के नीचे है।

यह बतलाने की जरूरत नहीं कि गंगा के कछार के प्रदेशों में कोई गुँजाइश तो अब ऐसी नहीं दीखती कि वहाँ खेती के लिए और जगह हो, क्योंकि जब 95 फीसदी जमीन में खेती हो रही है तो फिर 5 फीसदी सड़कों और मकान, नाले, झाड़ झंखाड़ के लिए तो छोड़ना ही पड़ेगा, चाहे आप पसंद करें अथवा नहीं।

अब जरा, भारत की उपज की ओर नजर डालिये। पिछले 3 वर्षों में चावल की उपज 6 प्रतिशत बढ़ गई है। गेहूँ की फसल कम होती है, भारत में 60001 लाख टन (27 मन का एक टन) गल्ला पैदा होता है। इसके सिवाय 7 लाख टन मछली वगैरह और 11,30,000 पौण्ड (2 पौण्ड का एक सेर) दूध होता है। हिसाब लगाने से हर आदमी को दिन भर में आधसेर ही खाने को दिया जाय, तो भारत के 4 करोड़ 80 लाख व्यक्तियों को खाने का कुछ नहीं मिलेगा। इस तरह मौजूदा हिसाब से भारत की 12 फीसदी आबादी भूखों मरती है।

इसलिए हमें देखना है कि, हम अगर अपनी आबादी को खाना देना चाहते हैं, तो कहाँ पर फसल उगायें? हिन्दुस्तान में 1620 लाख एकड़ जमीन बंजर पड़ी है। अगर इस बंजर जमीन पर भी खेती करने की सोची जाए तो, 290 लाख टन फसल पैदा हो सकेगी। लेकिन यह भी न भूलना चाहिए कि आबादी भी तो बढ़ रही है। अगर पिछले 150 सालों का उन्नति का सिलसिला आगे भी चलता गया, तो इस सदी के खत्म होने तक करीब 44 करोड़ 70 लाख और नये मनुष्य इस भारतभूमि की छाती रौंदने को तैयार मिलेंगे- चाहे वे भूखे नंगे ही क्यों न मरें।

कुछ लोग कृत्रिम उपायों को घृणा की दृष्टि से देखते हैं और उसे समाज के लिए हानिकर समझते हैं, परन्तु यहाँ तक तो वे भी मानने के लिए तैयार हैं कि वर्तमान समय में जनसंख्या वृद्धि को रोकना आवश्यक है। यों तो जनसंख्या की वृद्धि और उससे होने वाले कुपरिणामों की ओर अरस्तू और प्लेटो का भी ध्यान गया था परन्तु इस ओर सबसे अधिक ध्यान देने वाला पुरुष माल्थस था। गंभीर अध्ययन के पश्चात वह इस नतीजे पर पहुँचा कि यदि जनसंख्या की वृद्धि नहीं रोकी गयी तो इसका परिणाम महामारी, युद्ध और अकाल होगा। वास्तव में माल्थस की भविष्यवाणी आज सार्थक हुई दिखलाई पड़ रही है। 11 नवम्बर 1921 को प्रथम सन्तान निग्रह-सम्मेलन के प्लेटफार्म से मिस मारगरेटि सैंगर ने संसार को चेतावनी देते हुए कहा था कि यदि तुम्हें स्वस्थ राष्ट्र का निर्माण करना है, अपनी सभ्यता का विकास करना है और संसार को दरिद्रता तथा परिवार के बोझ से बचाना है। बढ़ती हुई अयोग्य और अस्वस्थ जनसंख्या, जो संसार की योग्य और स्वस्थ सन्तान को मिटा रही है, उनसे राष्ट्र की स्वस्थ और योग्य शक्ति को बचाना है। और व्याधि, दरिद्रता, अपराध इत्यादि को संसार से मिटाना है तो वर्तमान समय में इसका एकमात्र उपचार सन्तान निग्रह ही है। इसी से विश्व को शाँति मिल सकती है।

संतान निग्रह का अर्थ है- उच्च अभिप्राय से गर्भ निरोध के साथ दाम्पत्य कार्यों का सुधार। सन्तान-निग्रह के मुख्यतः तीन उद्देश्य हैं-

1. मातृत्व रक्षा 2. बढ़ती हुई जनसंख्या को रोकना 3. और औसतन गरीबों की बहुसंख्यक बच्चों से रक्षा करना। इन्हीं तीन बातों पर विचार कर देखना है कि वास्तव में इसके लिए सन्तान-निग्रह अत्यावश्यक है या नहीं?

1- मातृत्व की रक्षा- भारतवर्ष की माताओं की दशा सबसे गयी गुजरी है। वर्तमान समय में तो बहुत थोड़ी-सी ही माताएं हैं जो स्वस्थ संतान पैदा कर सकती हैं, अधिकतर अपरिपक्व अवस्था में ही वे माता बन जाती हैं। इसका परिणाम भी बुरा ही होता है। बच्चों की मृत्यु संख्या दिनों दिन बढ़ रही है। अयोग्य और अस्वस्थ सन्तान ही देखने में आ रही हैं। बिहार को ही लीजिये, जहाँ प्रतिवर्ष बच्चों की मृत्यु संख्या प्रति सहस्र 135 थी वहाँ इस समय बढ़कर 150 हो गई। देश भर की यही दशा है। सहवास-वयस्क समिति की रिपोर्टों को देखने से पता चल जाता है कि यहाँ की अधिकतर स्त्रियाँ 13 से 15 वर्ष की अवस्था में ही संतान उत्पन्न करती हैं। 18 वर्ष की अवस्था तक तो वे चार बच्चों की माँ बन जाती हैं। ऐसी दशा में मातृत्व की रक्षा कहाँ तक हो सकती है, यह प्रत्येक आदमी विचार कर सकता है। हमारे घर की स्त्रियाँ सदा किसी न किसी रोग से पीड़ित रहती हैं परन्तु समाज की उदासीनता के कारण उनकी खोज खबर लेने वाला कोई नहीं है। वे सन्तान उत्पन्न करते-करते तंग आ जाती हैं। सिरदर्द अपच तथा प्रसूत तो साधारण रोग हैं। इससे शायद ही कोई स्त्री बचती है। यह दुर्भाग्य की बात है कि बहुत सी स्त्रियाँ प्रसव के लिये अस्पतालों में लाई जाती हैं और बहुत सी वहीं पर काल के गाल में चली जाती हैं। इनसे जो संतान उत्पन्न होती हैं उनमें से अधिकतर तो मर ही जाती हैं और बाकी राजयक्ष्मा, मृगी, मस्तिष्क की कमजोरी इत्यादि से पीड़ित रहती हैं। साराँश यह कि मातृत्व की रक्षा नहीं होने के कारण वैश्याओं, रोगग्रस्त और अयोग्य सन्तानों, खानदानी बीमारियों, बच्चों की मृत्यु-संख्या, गृह कलह और भिखमंगों की संख्या दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए मातृत्व की रक्षा के लिये सन्तान-निग्रह आवश्यक हो जाता है।

2- जनसंख्या- यों तो संसार की जनसंख्या कुछ न कुछ बढ़ ही रही है परन्तु भारत की जनसंख्या जिस तीव्र गति से बढ़ रही है उसे देखकर विचार शील लोग घबरा उठे हैं। इस देश का जीवन कृषि के ऊपर ही निर्भर करता है। पर यहाँ प्रति मनुष्य कुछ ही एकड़ भूमि पड़ती है। उसको दृष्टि में रखते हुए यहाँ की बढ़ती हुई जनसंख्या की आवश्यकताओं की पूर्ति की समस्या दिनों दिन गंभीर होती जा रही है।

भारत की जनसंख्या की समस्या को हल करने के लिए हमारे पास दो ही साधन हैं। या तो नये-नये उपनिवेशों पर अधिकार जमायें या जनसंख्या की वृद्धि रोकी जाय। इसके अतिरिक्त तीसरा संसाधन ही दृष्टिगोचर नहीं होता। इसमें पहला साधन तो वर्तमान समय में एक स्वप्न ही है। इसकी तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। आज की अवस्था में दूसरा साधन ही संभव है। जनसंख्या की इस तीव्र वृद्धि को रोकने के लिए संतान निग्रह के सिवा कोई भी साधन हमारे सामने नहीं है।

3- बहुसंख्यक बच्चे- वर्तमान समय में हिन्दुस्तान के प्रत्येक मनुष्य की औसत आमदनी इतनी कम है कि अधिकाँश लोग अपनी संतान के जीवन की रक्षा का प्रबंध नहीं कर सकते? उन्हें तो स्वयं ही भरपेट भोजन नहीं मिलता। अनेकों व्यक्ति अपने बच्चों को भूख से तड़पते देख कर आत्म-हत्या करते रहते हैं। बच्चों के लिए दवादारु, शिक्षा इत्यादि का उचित प्रबंध नहीं होने के कारण वे अपने पिता तथा राष्ट्र के लिए एक बोझ बन जाते हैं। इस बोझ को ढोने की उनमें ताकत नहीं होती। ऐसी अवस्था में गरीबों को इस भार से बचाने के लिए संतान निग्रह ही अमोघ अस्त्र है। इससे वे अपनी जीवन-रक्षा कर सकते हैं।

इन बातों से पता चल जाता है कि वर्तमान समय में हमारे समाज के लिए सन्तान-निग्रह अत्यावश्यक है। वह ब्रह्मचर्य के द्वारा हो तो सोने में सुगंध है। यदि न हो तो कृत्रिम उपायों का सहारा लेना भी स्थिति की भयंकरता की तुलना में अधिक बुरा नहीं है। अविवाहित जीवन व्यतीत करना, विवाहित होने पर कम से कम सन्तान उत्पन्न करना, यह दोनों कार्य आज की स्थिति में उत्कृष्ट देशभक्ति और धर्म धारणा के समान पुण्य कार्य हैं।


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