(श्री सच्चिदानन्द तिवारी, रीठी)
भगवान की प्राप्ति के लिए, गीता जी में मुख्य दो मार्ग बताये हैं। एक तो साँख्ययोग और दूसरा कर्मयोग।
1. साँख्ययोग का साधन तो यह है कि संपूर्ण संसारी पदार्थ को मृगतृष्णा के जल की भाँति अथवा स्वप्न की सृष्टि सदृश, मायामय होने से माया के कार्यरूप संपूर्ण गुण ही गुणों में बर्तते हैं, यह समझ कर मन, इन्द्रियों और शरीर द्वारा होने वाले संपूर्ण कर्मों में कर्त्तापन के अभिमान से रहित होना तथा सर्वव्यापी सच्चिदानन्द घन परमेश्वर के स्वरूप में एकीभाव से नित्य स्थित रहते हुए श्री भगवान कृष्ण सत्-चित् आनन्द घन वासुदेव के अतिरिक्त किसी के होनेपन का भाव किंचित्मात्र अपने में न रहने देना। यह साँख्य योग साधन है।
सब कुछ भगवान श्री कृष्णचन्द्र का समझते हुए दुःख, सुख, भला, बुरा, सिद्धि, असिद्धि, हानि, लाभ में समत्वभाव रखते हुए, आसक्ति और फल की इच्छा त्याग कर भगवत् आज्ञानुसार केवल भगवान के लिए ही सब कर्मों का आचरण करना तथा भक्ति पूर्वक मन वाणी अथवा शरीर से सर्व प्रकार भगवान के शरण होकर नाम, गुण और प्रभाव सहित उनके स्वरूप का निरन्तर चिन्तन ही निष्काम कर्मयोग का साधन है।
साँख्ययोग, अ. 5 श्लोक 8, 9 तथा कर्मयोग अ. 6 श्लोक 47, अ. 5 श्लोक 10 और अ. 2 श्लोक 48 में देखने चाहिए।
उपरोक्त दोनों साधनों का परिणाम एक होने के कारण वास्तव में अभिन्न माने गये हैं। परन्तु साधन काल में अधिकारी भेद से दोनों का भेद होने के कारण दोनों मार्ग भिन्न-भिन्न बताये गये हैं इसलिए एक पुरुष एक काल में दोनों मार्गों पर उसी प्रकार नहीं चल सकता, जिस प्रकार मथुराजी के दो मार्गों से होकर एक पुरुष एक ही काल में मथुरा में नहीं पहुँच सकता। उक्त साधनों में कर्मयोग का साधन संन्यास आश्रम में नहीं बन सकता, कारण कि, संन्यास आश्रम में कर्मों के स्वरूप तक का भी त्याग बताया है और साँख्ययोग का साधन सभी आश्रमों में बन सकता है।
यदि कोई कहे कि भगवान ने साँख्य योग को संन्यास के नाम से कहा है इसलिए उसका अधिकार केवल संन्यास आश्रम में ही है, गृहस्थ में नहीं तो यह कहना उचित नहीं। इस शंका का समाधान अध्याय दो में श्लोक 11 से 30 तक, साँख्य निष्ठा के उपदेश पढ़ने से हो सकता है।
यदि गृहस्थाश्रम में साँख्ययोग का अधिकार नहीं होता तो समय-समय पर भगवान ने अर्जुन को युद्ध करने की योग्यता किस प्रकार दिखाई होती? हाँ इतनी विशेषता इसमें अवश्य है कि साँख्य मार्ग का अधिकारी देहाभिमान से रहित होना चाहिए, क्योंकि शरीर में अहंभाव के रहते हुए साँख्ययोग का साधन भली प्रकार समझना कठिन है। इसी लिए साँख्ययोग कठिन है (गीता अ. 5 श्लोक 6) और इसी कारण भगवान ने जगह-जगह अर्जुन को सदैव निरंतर अपना चिन्तन तथा निष्काम कर्मयोग का आचरण करते रहने को बताया है क्योंकि यह निष्काम कर्मयोग साधन, सांख्ययोग साधन से सुगम है।