(परमहंस श्री 1008 महात्मा केवलानंदजी महाराज)
साधु दो प्रकार के होते हैं, एक आत्मार्थी दूसरे परमार्थी। प्राचीन काल में परमार्थी साधु ही थे। व्यास, बाल्मीक, धन्वन्तरि, परशुराम, चर, सुश्रुत, नारद, वशिष्ठ, कपिल, कणाद, पातंजलि, शंकराचार्य, चाणक्य आदि संत अपने अपने ढंग से परमार्थ में प्रवृत्त रहते थे। अपने बहुमूल्य परमार्थ के बदले दान रूप में जनता से अन्न वस्त्र ग्रहण करने का उन्हें अधिकार था, उनके लिये यह उचित भी था। अब भी जो संत परमार्थी हों, लोक सेवा के लिए अपना जीवनदान जिन्होंने किया हो उन्हें बदले में भिक्षा या दान लेने का अधिकार है। किन्तु जो लोग आत्मार्थी हैं, अपने स्वर्ग, मुक्ति, आनन्द के लिए कोई साधना उपासना, पूजा पुरुषार्थ करते हैं तो यह उनका एक आध्यात्मिक व्यापार हैं। इसके लिए किसी दूसरे से न तो भिक्षा माँगनी चाहिए और न स्वीकार करनी चाहिए।
यदि कोई साधु जप तप द्वारा स्वर्ग या मुक्ति की कमाई कर रहे हैं तो यह उनका निजी व्यापार हैं आत्मार्थी साधु को अपने भोजन वस्त्र का स्वयं प्रबंध करना चाहिए, क्योंकि यदि उन्हें स्वर्ग मिलता है तो किसी दूसरे को क्या लाभ? और बिना बदला दिये किसी से लेना उचित नहीं यह तो एक प्रकार का कर्ज हैं जिसे चुकाये बिना छुटकारा नहीं मिल सकता। आत्मार्थी साधु को अपनी कमाई पर ही निर्भर रहना चाहिए। जो साधु परमार्थ मार्गी हैं, संसार की भलाई के लिए कोई कार्य करते हैं, वे दीन पर निर्वाह कर सकते हैं।
हम अपने साधु वेशधारी या दान-भिक्षा पर निर्वाह करने वाले अन्य व्यक्तियों को स्पष्ट रूप से बता देना चाहते हैं कि समय के बदलते हुए प्रवाह को आँख खोलकर देखें और अपने आचरणों को दुरुस्त कर लें अन्यथा उन्हें पीछे बहुत पछताना पड़ेगा।
अच्छी आदतें डालने का अभ्यास
गायक जब बाजा बजाने का भली भाँति अभ्यास कर लेता है तो उसे इस बात की जरूरत नहीं पड़ती कि बाजे के स्वर स्थानों पर दृष्टि रखे या उंगलियों को देख कर चलावे। वह गाने पर अपना चित्त लगाता है और दर्शकों की ओर देखता जाता है किन्तु बाजे पर उसका हाथ जहाँ का तहाँ पड़ता है, कहीं जरा भी त्रुटि नहीं होती। जप करने वाले मुँह से मन्त्रोच्चारण करते रहते हैं पर उनका मन दूर दूर उड़ता रहता है। कुम्हार, लुहार, सुनार आदि के हाथ ऐसे सध जाते हैं कि उनका मन उस काम में न लगा हो तो भी उनका शरीर निश्चित कार्य को ठीक प्रकार पूरा करता रहता है। इस प्रकार बिना अधिक सोच विचार किये भी जो कार्य होते रहते हैं उन्हें अभ्यस्त किया या अनैच्छिक क्रिया कहते हैं। हमारे शरीर में इसी शक्ति का सब से अधिक बोलबाला है। हमें मालूम भी नहीं होता के साँस चलती रहती है, दिल धड़कता रहता हैं, खून दौड़ता रहता हैं। लोग समझते हैं कि यह कार्य किसी अदृष्ट शक्ति की कृपा से होते हैं यह अदृष्ट शक्ति और कुछ नहीं हमारे मन का एक गहरा भाग हैं जिसे गुप्त मन-गुप्त मन या (Subconscsnes) कहते हैं।
अपने पूर्व संस्कारों में जकड़ा हुआ मनुष्य जब अपनी इच्छाओं के वशीभूत होकर जन्म लेना चाहता है और गर्भ में प्रवेश करता हैं तब भी यह सुप्त मन क्रिया शील रहता हैं, गर्भ में जैसे ही अनुकूल अंग बने कि गुप्त मन के अभ्यास के कारण रक्त संसार आदि की अनैच्छिक क्रियाएं आरम्भ हुई। घड़ी में चाबी दे देने पर जैसे वह बहुत समय तक चलती रहती है या लट्टू को एक बार फिरा देने से यह बहुत देर अपने आप घूमता रहता हैं उसी प्रकार शरीर की क्रियाएं आरम्भ हो जाती है और जब तक उस यन्त्र में शक्ति रहती हैं कार्य चलता रहता हैं। एक बार साइकिल के पहिये को जोर से घुमा देने पर वह बहुत दूर तक अपने आप दौड़ती चली जाती हैं फिर भी उसका संचालक वही है जो उसकी गद्दी पर बैठा हुआ हैं। उसमें योग्यता हो तो लुढ़कती हुई साइकिल की गति में प्रयत्न पूर्वक परिवर्तन भी कर सकता हैं। कई योगाभ्यासी प्राणायाम द्वारा साँस का चलना और इच्छा द्वारा रक्त का दौड़ना रोक देते हैं। समाधि की अवस्था में यह दोनों या शरीर की अन्य क्रियाएं पूर्ण रूप से बन्द हो जाती हैं और जब योगी चाहता हैं तो फिर चलने लगती हैं।
मन की संकल्प शक्ति में चेतना तो है पर उससे कुछ करते धरते नहीं बन पड़ता। जैसे तुम सोचो कि मेरी आँख आज रात को तीन बजे खुल जाय तो अच्छा हैं परन्तु यह सोच विचार यदि गुप्त मन तक न पहुँचा तो वह विचार हवा में उड़ जायगा और कुछ भी प्रयोजन सिद्ध न होगा किन्तु शरीर की अनैच्छिक क्रिया का अधिपति गुप्त मन यदि अच्छी तरह इस बात को स्वीकार करले कि हाँ, मुझे रात को तीन बजे जागना हैं तो जरूर ही नियत समय पर निद्रा भंग हो जायगी। शरीर के संचालन में अनैच्छिक क्रिया का अत्यन्त महत्व पूर्ण स्थान हैं। बुरी या भली आदतें शरीर और मन दोनों में ही पड़ जाती हैं हम उन्हें छोड़ना चाहते हैं पर छूटती रही कारण यह है संकल्प करने वाला बाहरी मन एक चेतना हैं और भीतरी मन के हाथ में सारी कुँजी हैं। इसलिए इन दोनों मनों के साथ जस्य से जो कार्य होता हैं उसी में सफलता मिलती हैं। हम चाहें तो प्रयत्न पूर्वक इन क्रियाओं में एकता उत्पन्न करके बहुत कुछ लाभ उठा सकते हैं।
जब हम कुछ दिन दिन में दो बार खाते रहते हैं तो नियत समय पर भूख लगती हैं। इसी प्रकार सोने, जागने, शौच जाने आदि के नियम के संबंध अनैच्छिक क्रिया को सूचना दे दी जाती हैं तो नियत समय पर वह काम होने की आदत पड़ जाती हैं। किन्तु यदि उसे कोई सूचना न दी जाय तो भूख आदि की कुछ ठीक व्यवस्था न रहेगी। यदि भोजन का कोई समय निर्धारित न करो और चाहे जब खाते रहो तो कभी सच्ची भूख न लगेगी। देखा गया कि भोज्य पदार्थों में यदि कुछ अपवित्र वस्तु हो या किसी अन्य कारण से घृणा हो जाय तो भूख मर जायगी। बाह्य मन में भले बुरे विचार आते रहते हैं उनका कोई विशेष प्रभाव नहीं होता किन्तु यदि कोई भाव तीव्र होने के कारण गहरे उतर जावे तो उनका प्रभाव तुरन्त ही होता हैं। भय लगने पर बालक गश खाकर गिर पड़ते हैं, क्रोध में एक प्रकार का उन्माद आ जाता हैं और नाड़ियों की चेतनता जाती रहती हैं, धर्म या युद्ध के जोश में लोग सिर तक कटा देते हैं और मरते दम तक दुखी नहीं होते।
हमारा विचार करने वाला बाहरी मन जब बार-बार और गंभीरता पूर्वक किसी बात को स्वीकार करता हैं या नित्य प्रति उस काम को दुहराता हैं तो गुप्त मन उस बात को मान लेता हैं और शरीर को प्रायः उसी साँचे में ढाल देता हैं। यदि शौच जाने के नियत समय का ध्यान रखें तो ठीक वक्त पर मल त्याग की इच्छा होगी। यदि विशेष रुप से कुछ समय पूर्व नियत समय पर साफ दस्त होने का विशेष चिन्तन किया जाय तो निश्चय ही पेट साफ हो जायगा इसी प्रकार यदि उसकी उपेक्षा की जाय और समय को बिलकुल भुला दिया जाय तो अक्सर वह क्रिया निर्बल और शिथिल पड़ जाती हैं और उपरोक्त दोनों बातों में से जिसे भी कुछ काल तक निरंतर किया जाय वहीं स्वभाव में आ जाती हैं।
गुप्त मन को प्रभावित करके उसे सूचना देकर शरीर को स्वस्थ रखा जा सकता है और रोगों से छुटकारा मिल सकता हैं। यदि गुप्त मन को इस प्रकार की सूचनाएं बराबर दी जायें कि “अब मैं निरोग हो गया हूँ और मेरे सब भीतरी अंग ठीक प्रकार काम कर रहें हैं।” तो उस सूचना को वह ग्रहण कर लेगा और ऐसे ही जीवन कोषों की रचना करने लगेगा जो निरोग स्वस्थ तथा सक्षम हों। इसी प्रकार जो लोग बीमारी या रोग का चिन्तन कर करके दुखी होते रहते हैं उनके शरीर में कोष उसी साँचे में ढल जाते हैं। यदि तुम अपने शरीर और मन में अच्छी उपयोगी आदतें उत्पन्न करना चाहते हो तो उचित हैं कि बार बार अपने मन में स्वास्थ्य और आनन्द के विचार करो। अपने को समर्थ समझो और उच्च सत्ता-परमात्मा से प्रेम करके उसके उच्च गुणों को आकर्षित करके अपने अन्दर धारण करो। ऐसा करने से गुप्त मन शरीर और मस्तिष्क में सद्गुण उत्पन्न करेगा।