गृह मन्दिर

April 1944

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(स्वर्गीय श्री मनोरमा देवी उपाध्याय की डायरी से)

जहाँ स्वच्छता हैं, कूड़ा कचरा न पड़ा हो, छत पर जाले न लगे हों, दरवाजे और खिड़कियाँ हों, सफाई हो, चीजें सब अच्छी व साफ हो, जहाँ व्यवस्था हो, जगह के लिये चीज हो, चीज के लिये जगह हो, कहीं कुछ इधर उधर न पड़ा हो, हर वस्तु व्यवस्थित हो उसे कहना चाहिये-’गृह मन्दिर!’

जहाँ शान्ति हो, स्त्री पुरुष में प्रेम हो, सेवा और संस्कार हो, स्वच्छता और सौंदर्य व्यापक हो, तथा वातावरण में सर्वत्र स्नेह प्रतीत हो, वही-गृह मन्दिर हैं।

गृह मन्दिर वहीं हो सकता हैं जहाँ स्त्री जाति को हर प्रकार की छूट हो, जैसे घूमने, फिरने, बोलने, हृदय के भाव प्रगट करने, दिल का दर्द सुनाने, बीमार हो तो आराम करने और गर्भिणी हो तो चिन्ता भार से छूट हो।

हम उसे गृह मन्दिर कह सकते हैं जहाँ स्त्री का सम्मान हो, स्त्री जाति को जीवन सहचरी के सब हक हो, जहाँ बालकोँ में प्रेम और शिक्षा हो, जहाँ रूढ़ीवाद न हो, माताओं के लिये मातृत्व का स्थान हो और नारी जाति ईश्वर की शक्ति क्रिया शक्ति के प्रतिनिधि के रूप में समझ कर स्वीकार की गई हों।

गृह मन्दिर में बाल मन्दिर भी समाया हुआ हैं बालक स्वतन्त्र होना चाहिये यानी उन्हें खेलने कूदने की छूट रहना चाहिये, बालक भूत, प्रेत, हौवा के डर से डरपोक न हों। गृह मन्दिर तो वही है जहाँ बालकों को ईश्वर का प्रतिनिधि समझ प्रेम किया जाता हो।

गृह मन्दिर प्रेम का विश्वविद्यालय हो और सृष्टि-सौंदर्य का भाग हो।


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