(रचयिता- श्री महावीर प्रसाद विद्यार्थी, टेढ़ा- उन्नाव)
मानव! ये मंजुल मणियों की-टूटी लड़ियाँ अब तो जोड़ो!
नादान! अरे! गलते कब से,
अपने ही अश्रु-प्रवाहों में।
जीवन का कण-कण जला रहे,
इस चिन्ता में, इन आहों में।
तुम मृग-तृष्णा में भटक रहे,
कब से इन दुर्गम राहों में॥
किस हाव-भाव से मुसकाती-यह माया, इससे मुँह मोड़ो!
सुख-शान्ति मिलेगी क्या तुमको,
पर-पीड़न में,इस छल-बल में?
शीतल छाया हैं यहाँ कहाँ,
विष-बल्लरियों के अंचल में!
अविरल आनन्द-सुधा-धारा,
बहती निश्छल-अन्तस्तल में!
जागो, जागो, आँखें खोलो, स्वप्नों की ये कड़ियाँ तोड़ो!
मानव! ये मंजुल मणियों की, टूटी लड़ियाँ अब तो जोड़ो!