(जे.-श्री भीकमचन्द कपुरचन्द्रजी पेरवावाला शिवगंज)
आप उसी बात को सोचिए उसी बात को अपनी जबान से निकालिए जिसे चाहते हैं कि वह सत्य हो। बहुत से मनुष्य कहा करते हैं कि भाई! अब हम थक गये, बेकाम हो गये, अब परमात्मा हमें सँभाल ले तो अच्छा हो। वे इस रोने को रोते रहते हैं कि हम बड़े ही अभागे, कम नसीब हैं, हमारा भाग्य फूट गया हैं, दैव हमारे विरुद्ध हैं, हम दीन हैं, गरीब हैं। हमने सिर तोड़ परिश्रम किया, उन्नत होना चाहा, पर भाग्य ने हमें सहायता न दी। पर वे बेचारे इस बात को नहीं जानते कि इस तरह का रोना रोने से, अन्धकारमय, निराशा जनक विचार रखने से, हम अपने हाथ अपने भाग्य को फोड़ते हैं, उन्नति रूपी कौमुदी को काले बादलों से ढ़क देते हैं।
वे यह नहीं जानते हैं कि इस तरह के कुविचार हमारी शान्ति, सुख और विजय के घोर शत्रु हैं। वे यह बात भूले हुए हैं कि इस तरह के विचारों को मन से देश निकाला देने ही में मंगल हैं। ऐसे विचारों को मन में स्थान देना अपने हाथ अपने पैरों पर कुठाराघात करना हैं। कभी एक क्षण के लिए भी अपने मनमें इस विचार को स्थान मत दो के हम बीमार हैं-कमजोर हैं। इस तरह के विचार शरीर पर इनके आक्रमण होने में सहायता देते हैं। हम सब अपने विचारों ही के फल हैं। उच्चता, महानता पवित्रता के विचारों से हमें आत्म-विश्वास प्राप्त होता हैं। ऊँचा उठाने वाली शक्ति मिलती हैं और ऊँचे दरजे का साहस प्राप्त होता हैं।
यदि आप किसी खास विषय में अपनी अपूर्वता कट करना चाहते हैं तो आप अपने अभिलषित विषय में उच्च आदर्श को लिए हुए प्रवेश हो जाइये और तब तक आप अपने अन्तःकरण को वहाँ से तिलमात्र भी मत हटाइये, जब तक आपको यह न मालूम हो जाये कि सफल होने में अब कुछ भी सन्देह नहीं है।
हमारे आदर्श ही हमारे चरित्र के संगठनकर्ता हैं और उन्हीं में यह प्रभाव हैं जो जीवन को वास्तविक जीवन में परिणत करता हैं। जैसे हमारे आदर्श होते, जैसी हमारी मानसिक अभिलाषायें होती हैं, जैसे हमारे हार्दिक भाव होते हैं ठीक उन्हीं की झलक हमारे मुखमण्डल पर दिखाई देने लगती हैं। हो नहीं सकता कि इनका भाव हमारे चेहरे पर न झलके, इनका प्रतिबिम्ब आँखों में न दीखे। अतएव हमें अपने आदर्श को अपने मनो-भाव को अपने विचार प्रवाह को श्रेष्ठता और दिव्यता की ओर झुका हुआ रखना चाहिये। हमें निश्चय पूर्ण विश्वास कर लेना चाहिये कि निकृष्टता, दीनता, निर्बलता, आधि-व्याधि, दरिद्रता और अज्ञान से हमारा कोई सरोकार नहीं। हमें इस बात का दृढ़ विश्वास होना चाहिए कि हमारे हाथ से हमेशा उत्तम ही कार्य होगा, बुरा कभी न होगा।
हमें अपने जीवनोद्देश्य को सफल करने में श्रद्धा की-आस्था की भी बड़ी आवश्यकता होती है। यदि यों कहा जाय कि मनो-वाँछित पदार्थ का मूल श्रद्धा ही होती है तो कुछ भी अतिशयोक्ति न होगी। यदि यों कहा जाय कि श्रद्धा-आस्था ही हमारे आदर्श की बाह्य रेखा हैं, तो कुछ भी अनुचित न होगा। पर हमें श्रद्धा ही तक न ठहर जाना चाहिये वरन् देखना चाहिए कि श्रद्धा के परे भी कोई पदार्थ रहा हुआ हैं या नहीं? विचार करने से गहरी दृष्टि डालने से मालूम होता हैं कि श्रद्धा, आशा, हार्दिक लालसा आदि मनोवृत्तियों के पीछे एक अलौकिक दिव्य पदार्थ-सत्य-रहा हुआ हैं। यह वह सत्य हैं जो हमारी प्रकृत अभिलाषाओं को सु-स्वरूप प्रदान करता है।
उत्पादक शक्ति का यह एक नियम हैं कि जिसका हम दृढ़ता पूर्वक विश्वास करते हैं, वह हमें अवश्य प्राप्त होता हैं यदि आप इस बात का पक्का विश्वास करें कि हम समृद्धिशाली होंगे, हम प्रभावशाली होंगे, समाज में हम वजनदार गिने जावेंगे, आप में एक प्रकार की विलक्षण उत्पादक शक्ति का उदय होगा और वह आपके मनोरथों पर सफलता का प्रकाश डालेगी।
यदि आप अपने जीवनोद्देश्य को सफल करना चाहते हैं, यदि आप अपने आदर्श को कार्य रूप में परिणत करना चाहते हैं तो आप अपने सम्पूर्ण विचार प्रवाह को अपने उद्देश्य की ओर लगा लीजिये। एक ही उद्देश्य की ओर अपने मन, वचन, काया को लगा देने से संसार में बड़ी-2 सफलतायें प्राप्त होती दीख पड़ती हैं। आप उन पदार्थों की आशा कीजिये जो दिव्य हों, आप यह विश्वास कर लीजिये कि हमारे प्रयत्न उत्साह पूर्वक होने से कोई उच्च दिव्य और महान पदार्थ प्राप्त होने वाला है और हम अपने जीवनोद्देश्य पर पहुँच रहे हैं। आप इस विचार में तल्लीन हो जाइये कि हमारी शाश्वत उन्नति हो रही है और हमारी आत्मा का एक एक परमाणु दिव्यता की ओर बढ़ रहा हैं।