जीवन का सद्व्यय

April 1944

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(श्री मंगलचन्द भण्डारी हि.सा. विशारद, अजमेर)

मनुष्य जीवन का अधिकाँश भाग आहार, निद्रा, भय और मैथुन में व्यतीत हो जाता है। शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति में समय और शक्तियों का अधिकाँश भाग लग जाता है। विचार करना चाहिए कि क्या इतने छोटे कार्यक्रम में लगा रहना ही मानव जीवन का लक्ष्य है? यह सब तो पशु भी करते हैं यदि मनुष्य भी इसी मर्यादा के अंतर्गत घूमता रहे तो उसमें और पशु में क्या अन्तर रह जाएगा? सृष्टि के समस्त जीवों में सर्वश्रेष्ठ स्थान पाने कारण मनुष्य का उत्तरदायित्व भी ऊँचा है, जो अपने महान कर्त्तव्य की ओर ध्यान नहीं देता निश्चय ही वह मनुष्यता का महान गौरव प्राप्त करने का अधिकारी नहीं है।

दुख और अधर्म को हटाकर सुख और धर्म की स्थापना करना मनुष्य जीवन का लाभ होना चाहिए। ईश्वर ने जो योग्यताएं और शक्तियाँ मानव प्राणी को दी हैं उनका सदुपयोग वही हो सकता है कि दूसरों की सहायता की जाए, उन्हें सुखी और उत्तम जीवन बिताने में सहयोग दिया जाए। बेशक, शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए श्रम करना आवश्यक है, परन्तु यह भी ध्यान रखना चाहिए की जीवन निर्वाह की साधारण समस्या को हल करने के उपरान्त जो समय और शक्ति बचती है उसे परमार्थ में संसार की भलाई में लगाना चाहिए।

जीवन एक सार्वजनिक वस्तु है। दूसरों की सहायता से ही हम किसी प्रकार की योग्यता प्राप्त कर पाते हैं इसलिए उस कर्ज को अदा करने के लिए हमें चाहिए कि दूसरों की सुख शान्ति में वृद्धि करें। जो मनुष्य स्वार्थ पर से दृष्टि हटाकर परमार्थ में जितना ध्यान देता है, समझना चाहिए कि वह उतना ही जीवन का सद्व्यय कर रहा है।


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