(श्री वटेश्वर दयालजी शास्त्री, भिण्ड)
क्रोध और आतुरता के मूल में क्या अहंकार नहीं हैं? क्रोध प्रायः तभी आता हैं, जब कोई हमारी इच्छा की पूर्ति नहीं करता। क्या दूसरा मनुष्य इसके लिये बाध्य है? उसे ऐसा समझ लेना क्या अहंकार नहीं हैं? और क्या आतुरता इस बात को नहीं सूचित करती कि मनुष्य समाज को तथा प्रकृति को वश में रखने की सत्ता मुझे प्राप्त हैं? वह सत्ता वास्तव में जिसके पास होती है, उसे आप अधीर और आतुर न पायेंगे। सत्ता शासन के लिए नहीं, कार्य की सुव्यवस्था और सुचारुता के लिए मिलती हैं। सत्ता जहाँ सुव्यवस्था में असफल होती हैं, वहाँ प्रेम की जीत अवश्यमेव होती हैं।
जो अपने प्रति कठोर और साथियों के प्रति सहृदय होता हैं, वह बिना सत्ता के ही शासक हो जाता हैं। उसकी आज्ञाएं प्रेम के संदेश होते हैं और साथी उनके लिए उत्सुक रहते हैं। पर जहाँ अपने प्रति रियायत के विशेषाधिकार का भाव हो और साथियों के प्रति कठोरता का, तो वहाँ सत्ता का शासन भी बेकार होता हैं। उसका पुरस्कार हैं-अप्रतिष्ठा। कड़ाई के साथ नियमों का पालन कार्य का सुचारुता और सुव्यवस्था के लिये अनिवार्य हैं। जो सेवक इसकी उपेक्षा करता है, वह दूसरों के आराम को अपनी सुविधा पर बलिदान कर देना चाहता है।