मर्त्यलोक भवसागर नहीं है।

April 1944

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संसार तीन गुणों के संमिश्रण से बना है इसलिए इसमें निवास करने वाले प्राणी भी तीन प्रकार की प्रकृति के देखे जाते हैं। बेशक, संसार में अन्धकार की अपेक्षा प्रकाश अधिक है, बुराई से भलाई अधिक है, पाप से पुण्य अधिक है, फिर भी तम तत्व की इतनी न्यूनता नहीं है कि उसकी सहसा उपेक्षा की जा सके। पाश्चात्य देशों से भौतिकवाद की जो प्रचण्ड हवाएं चली हैं उसने इस शताब्दी में तमोगुण को और भी अधिक बढ़ा दिया है।

सात्विक विचार और कार्य मृदुल, सुन्दर एवं हलके होते हैं उनका बाहुल्य सुख, शान्ति की स्वाभाविक स्थिति उत्पन्न करता है, इस लिए यदि संसार में सतोगुण बढ़े, अधिक रहे तो इसमें कोई अस्वाभाविकता, कटुता और कठिनाई नहीं होती। आनन्द कितना ही बढ़ जाए उससे मनुष्य ऊबता नहीं किन्तु दुख, कष्ट और विघ्नों से मनुष्य थोड़े में ही घबरा जाता है। तामसिक कार्य बड़े कटु कठोर भी चित्त में विक्षोभ पैदा करता है। अस्वाभाविक स्थिति थोड़ी होने पर भी असह्य प्रतीत होती है।

यों तो सदा से ही तमोगुण, पाप, अकर्म, दुर्व्यवहार, संसार में मौजूद है, परन्तु वर्तमान समय में उसकी वृद्धि और भी अधिक हो गई है। यह अधिकता अपनी कठोरता, भयंकरता और अस्वाभाविकता के कारण बहुत ही असह्य एवं क्षोभ उत्पन्न करने वाली प्रतीत होती हैं। ऐसी स्थिति में ऐसा लगता हैं मानों धर्म का नाश हो गया है और चारों ओर अधर्म ही अधर्म का शासन स्थापित हो गया हैं। परिस्थिति को बढ़ा चढ़ाकर नमक-मिर्च लगा कर कहने की आदत मनुष्य जाति में बहुत पुरानी हैं। सेर को सवासेर कहने और अनुभव करने की वृत्ति मनुष्य स्वभाव में रहती हैं, उससे प्रेरित होकर लोगों में पाप अधिक है। कोई कोई भावुक गणितज्ञ तो यहाँ तक घोषित करते हैं कि संसार में पाप 90 प्रतिशत, पुण्य 7। 1/2 प्रतिशत और सत्य 2। 1/2 प्रतिशत वर्तमान हैं।

हम सदा से ऐसा मानते रहे हैं कि पुण्य से पाप अधिक नहीं हो सकता, प्रकाश से अन्धकार की मात्रा बढ़ नहीं सकती, सफेदी से कालिमा ज्यादा नहीं होती। बेशक पाप की भावनाएं आज दुनिया में अधिक हैं तो भी वे इतनी नहीं है कि पुण्य से बढ़ी चढ़ी हों, आज क्या ऐसी स्थिति कभी भी नहीं आ सकती जिस दिन इस पृथ्वी पर धर्म से अधर्म बढ़ जायगा, उस दिन वह मनुष्यों के रहने योग्य न रहेगी। कोई मानव प्राणी इस भूतल पर अवतीर्ण होना और रहना पसंद न करेगा। पुण्य में ही रस हैं। रस ही परमात्मा है। जब यह संसार नीरस हो जाय, जीवन के प्रति कोई दिलचस्पी न रहे, संसार में प्रिय वस्तुओं को अभाव हो जाय तब यह कहा जा सकता है कि संसार पाप मय हो गया, परन्तु ऐसा आज तो क्या, शायद कभी भी न हो सकेगा। परमात्मा ने सृष्टि की रचना इस प्रकार की है कि इसमें पुण्य ही सदा अधिक रहेगा।

आनन्द का जहाँ कहीं भी दिग्दर्शन होता हैं वहाँ भलाई की अधिकता हैं। स्वास्थ्य, सौंदर्य, प्रयत्न, खोज, क्रियाशीलता, उत्साह, उपार्जन, निर्माण, उल्लास, भावतरंग, सहयोग, सेवा आदि के गुणों और कार्यों का उद्भव, पुण्य, धर्म और सतोगुणी वृत्तियों की प्रधानता से होता है, जब तक इस प्रकार के विचार और कार्यों की अधिकता है तब तक पुण्य का सतोगुण का अभाव नहीं समझना चाहिए। आजकल मुलम्मा साजी की बुद्धि बढ़ गई है, हानिकारक कार्यों को आनन्द दायक बनाया जा रहा है, तामसिकता के ऊपर सतोगुण की कलई की जा रही हैं, फिर भी इतना तो मानना ही पड़ेगा कि उसमें जितना आनन्द का अंश है, जितना आकर्षण है, वह सतोगुण के ही कारण हैं। तमोगुण के पाप के चिन्ह हैं-आलस्य, प्रमाद, अकर्मण्यता, गंदगी, कुरूपता, निराशा, दुर्बलता, जड़ता, अज्ञान, हिंसा, कठोरता, निष्ठुरता, पेटूपन आदि। हम देखते हैं कि संसार में आलस्य से कर्म अधिक है। निष्ठुरता से दया, पेटूपन से सहयोग, जड़ता से सतर्कता, गंदगी से सफाई, कुरूपता से सौंदर्य, निराशा से आशा, दुर्बलता से सशक्ता, अज्ञान से विवेक, अविश्वास से विश्वास, द्वेष से प्रेम, कठोरता से मधुरता, अधिक है। ऐसी दशा में नहीं कहा जा सकता कि संसार में पाप की प्रभुता है, अधर्म का शासन है।

अनात्मवान लोग जिन्हें आत्मबोध नहीं होता, जो आत्म सम्मान और आत्म गौरव को भूले हुए हैं, वे अपने को सदा हीन, नीच, पतित तथा दुर्भाग्यग्रस्त ही अनुभव करते हैं। अपनी सभी बातें उन्हें निकृष्ट, तुच्छ प्रतीत होती हैं। इस प्रकार के अनात्मवान व्यक्ति अपने आत्मा को कुटिल खल कामी, अपने शरीर को नरककुण्ड, अपने संसार को भवसागर, अपने समय को कलिकाल, अपने समाज को सबसे गिरा हुआ मानते हैं और निराशा के अन्धकार को ही सर्वत्र देखते हैं। अपना सब कुछ बुरा प्रतीत होना दीनता और दासता की हीन मनोवृत्ति हैं। अपने देश में उत्पन्न हुई महान आत्माओं का हम तिरस्कार करते हैं, परन्तु दूसरे देश का मामूली हमारी दृष्टि में बहुत ऊंचा जँचता हैं। यह हीनता की भावना हमारी नस नस में समा गई हैं, अपनी हर चीज़ को हीनता के रंगीन चश्मे में होकर ही देखते हैं। जब कोई व्यक्ति इस लोक को मृत्युलोक को, अपनी दुनिया को, तिरस्कार की दृष्टि से देखता हुआ उसे भवसागर, कहता हैं और उससे उदासीन होकर, उपेक्षा भाव रखकर एक कल्पित स्वर्ग के स्वप्न में झोंके लेता है तब उस हीनता की भावना का एक शर्मनाक चित्र सामने उपस्थित होता है।

ऊपर आकाश में लाखों योजन ऊँचा कोई काश्मीर सा सुरम्य सोने चाँदी का नगर बसा हुआ हैं, उसमें भगवान जी राज करते हैं, देवी देवता राजकर्मचारी हैं, खूब नाच गान होता रहता है, बढ़िया खाने मिलते हैं, ऐश आराम के सब साधन हैं, ऐसी कल्पनाओं के साथ एक स्वर्ग का स्वप्न देखना और उसके लिए अपनी कर्तव्य भूमि के उत्तरदायित्वों की ओर से उदासीनता, उपेक्षा एवं तिरस्कार की भावनाएं धारण करना, वैसा ही है जैसा कि शेखचिल्ली ने कल्पित बीबी और बाल बच्चों के स्वप्न में शिर पर रखा हुआ घड़ा फोड़ डाला था और मजूरी पाने के स्थान पर मार खाने का परिणाम भुगता था।

जो इस लोक का सुख नहीं पा सकता, वह स्वर्ग का भी सुख नहीं पा सकेगा। जिसे यह लोक भवसागर प्रतीत होता है उसे परलोक भी नरक सा लगेगा। जिसे यहाँ के लोग कपटी, कुचाली, धूर्त स्वार्थी, पापी दिखाई पड़ते हैं उसे स्वर्ग में देवता भी ऐसे ही लगेंगे। इन्द्र को व्यभिचारी, बृहस्पति को नास्तिक, चन्द्रमा को गुरुपत्नी गामी, बुध को पिता द्रोही, यम को हत्यारा, शंकर को नशेबाज वाराह का अभक्ष भोज, दुर्गा को माँसाहारी, आदि समझेंगे। भगवान पर भी अनेक दोषों के आरोप की गुंजाइश हैं। जिन्हें इस लोक में सर्वत्र पाप ही पाप दिखाई पड़ता है उन्हें वैसी ही सामग्री स्वर्ग में भी मिल जायगी। इस प्रकार के पापी वहाँ भी दीख पड़ेंगे और अन्ततः भवसागर और स्वर्ग में कुछ विशेष अन्तर न रहेगा।

अपने पाठकों को उपरोक्त पंक्तियों में हमने यह बताने का प्रयत्न किया है कि ईश्वर ने हमें जिस पुण्य भूमि में कर्तव्य करने के लिए, जीवन का सद्व्यय करने के लिए भेजा है वह तीर्थभूमि भवसागर नहीं हैं। उसमें पापों और कष्टों की अधिकता दिखाई पड़ती हैं तो भी यथार्थ में यहाँ पुण्य, और सत्य ही अधिक है। तत्वदर्शी ऋषियों ने इस वास्तविकता को अपनी सूक्ष्म दृष्टि से भली भाँति समझा था और निस्संदेह होकर मुक्त कंठ से घोषणा की थी “जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी” निश्चय ही कल्पित स्वर्ग की अपेक्षा यह वसुधा वसुन्धरा जिस पर हमने जन्म धारण किया है अनेक गुनी श्रेष्ठ हैं। दुख और पाप यहाँ हैं परन्तु पुण्य और सत्य उनसे भी अधिक यहाँ हैं। इस लोक से हमें उदासीन या निराश होने की नहीं वरन् इस बात की आवश्यकता है कि इस लोक की समस्याओं में पूरी दिलचस्पी लें इसे अधिक सुन्दर और सुसम्पन्न बनावें।

हम मर्त्यों के लिए परमात्मा ने यह मृत्युलोक ही क्रीड़ा भूमि बनाई है, हमें उसमें पुण्य, पवित्रता और महानता की दृष्टि रखनी चाहिए, इसे ही अपना स्वर्ग समझना चाहिए, यहाँ जो बाधा तथा व्यथाएं हैं उन्हें अपने लिए एक चुनौती समझना चाहिए और उन्हें दूर करने के लिए प्रयत्न पूर्वक जुट जाना चाहिए। स्मरण रखिए मनुष्य शरीर देवताओं को भी दुर्लभ है, स्मरण रखिए जन्म भूमि स्वर्ग से भी गरीयसी है काल्पनिक स्वर्ग स्वप्न में विचरण करने की अपेक्षा यह अच्छा हैं कि आप इस पुण्य भूमि में आध्यात्मिकता का सात्विक आनन्द उपलब्ध करें और सत्कर्मों द्वारा आजीवन को धन्य बताते हुए परमपद प्राप्त करें।


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