चार मित्रों से बातचीत

April 1944

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(श्री प्रकाशजी, एम. एल. ए.)

सबको ही कुछ न कुछ खब्त हैं। मुझे भी कई बातों का खब्त है। उनमें एक यह है कि जब किसी विदेशी से मित्रता हो जाती हैं, उन्हें सहृदय पाता हूँ, साथ ही यह समझता हूँ कि हमारे देश में बहुत दिनों से रहने के कारण वे पर्याप्त अनुभव भी प्राप्त कर चुके हैं, तो मैं उनसे किसी सुअवसर पर यह पूछता हूँ-’आप कृपा कर यह बतलावें कि क्या कारण हैं कि हमारे देश में इतने विशेष पुरुषों के रहते हुये, इतने बड़े-बड़े आन्दोलनों के होते हुए भी देश कुछ उन्नति नहीं कर रहा हैं। ऐसा मालूम होता हैं कि हम ज्यों के त्यों पड़े हुए हैं।” अवश्य ही हमारे मित्र इससे चकित होते हैं, उत्तर देते संकोच करते हैं और शिष्टता के नाते क्षमा चाहते हैं, पर मैं उन्हें छोड़ता नहीं और उनको उत्तर देने के लिये बाध्य करता हूँ। मैं नहीं कह सकता पर सम्भव है कि विशाल हृदय और विशाल मस्तिष्क के पाठक विशाल विषयों को एक क्षण के लिये छोड़ कर मेरी छोटी-सी बात सुन लें और इन मित्रों के उत्तर पर ध्यान दें। विषय संकुचित मालूम पड़ता हो पर इसका परिणाम व्यापक रहा है और इसी कारण मेरी बुद्धि में इसका बड़ा भारी महत्व हैं।

मेरे पहले मित्र एक वृद्ध ईसाई पादरी हैं। 36 वर्षों से भारत में ईसाई मत के प्रचार में तो उतना नहीं, पर सपत्नीक देश के दरिद्र नर नारियों की सामाजिक सेवा में वे लगे रहे हैं। मेरे हृदय में उनके लिये बड़ा सत्कार और प्रेम हैं उनका उत्तर थोड़े में यह हैं कि ‘तुम लोग अपने काम में गर्व नहीं लेते।’ विस्तार से उन्होंने यह बतलाया कि यहाँ पर जब किसी को कोई नौकरी चाहिये, तो अतिशयोक्ति पूर्ण शब्दों में वह दरख्वास्त देता हैं। बहुत ही ‘विनय’ और ‘सम्मान’ के साथ वह आरम्भ करता हैं। अन्त में वह प्रतिज्ञा करता हैं कि यदि स्थान मिल जावेगा तो वह सदा अपने मालिक की शुभ कामना करेगा, पर स्थान मिलते ही वह अपने काम अर्थात् अपनी जीविका के साधन को ही खराब समझने लगता हैं। अन्य साथियों से मिल कर काम खराब करने के लिये षडयन्त्र रचता हैं और मालिक की नाकों में दम कर डालता है और देशों में भी लोग नौकरी की दरख्वास्त देते हैं। साधारण शब्दों में प्रार्थना-पत्र लिखते हैं और जब स्थान मिल जाता हैं, तो इस तरह काम करते हैं जैसे संसार की गति उन्हीं पर निर्भर करती हैं और वे यदि काम छोड़ दें, तो संसार डूब जाय। बात इस पादरी मित्र ने बहुत ठीक कही। हमें अपने काम का गर्व नहीं। दुख तो इसका हैं कि इस मुल्क की परम्परा में अपने काम का गर्व करने का आदेश हैं। जाति-भेज इसी पर निर्भर करता हैं। एक जाति का आदमी दूसरी जाति के आदमी द्वारा अपनी मान-मर्यादा नहीं चाहता। वह अपनी जाति वालों के ही बीच अपना उपयुक्त पद और स्थान चाहता हैं। वह अपनी जीविका के साधनों का बड़ा आदर सत्कार करता हैं। बढ़ई अपने औजार की और दुकानदार अपने बहियों की निश्चित तिथियों पर पूजा करता हैं। पर आज दासता के कारण हमारे यहाँ वर्ण शंकर हो गया है। इस अपनी परम्परा भूल गये हैं। हम अपना काम छोड़ दूसरों का काम उठाते हैं। एक काम छोड़ दूसरा काम लेते रहते हैं। अपनी असफलता का दोष दूसरों को देते रहते हैं। स्वयं दुखी रहते और दूसरों को दुखी करते हैं। कोई काम ठीक कर न सकने के कारण अपने को खराब करते हैं। काम को खराब करते हैं “स्वधर्में निर्धन श्रेय” यह आदेश हम भूल गये। हम अपने काम में गर्व नहीं लेते।

दूसरे मित्र एक वृद्ध सरकारी कर्मचारी आई. पी. एस. के सदस्य हैं। 30 वर्षों से अधिक भारत में गवर्नमेंट नौकरी कर हाल में पेन्शन लेकर वापस स्वदेश गये। न जाने कैसे मुझसे उनसे बड़ी मैत्री हो गई। वही सवाल मैंने पेश किया। उत्तर मिला-’तुम लोग जिम्मेदारी नहीं समझते’ विस्तार में इसका अर्थ यह है कि व्यक्ति का समष्टि की तरफ जो कर्तव्य होता हैं, उसे हम नहीं जानते। जो काम उठाया, उसे करना चाहिए, जो वादा किया उसे पूरा करना चाहिए-यह सब गुण हम भूल गये। किसी का किसी पर विश्वास नहीं रह गया। खाने की दावत हो तो न मेजबान को यह विश्वास कि मेहमान समय से आवेंगे, न मेहमान को विश्वास कि समय से जाने पर खाना मिल जायगा। न गृहस्थ को विश्वास कि धोबी और दरजी वादे पर कपड़ा दे जायेंगे। न धोबी दरजी को विश्वास कि समय पर दाम मिल जायगा। रेलगाड़ी पर चढ़ने वाले को यह विश्वास नहीं कि पहले से बैठे मुसाफिर उन्हें स्थान देंगे, पहले से बैठने वाले को यह विश्वास नहीं कि नया मुसाफिर धीरे से आकर उचित स्थान लेगा और व्यर्थ का शोर न करेगा न और प्रकार से तंग करेगा। सड़क पर चलने वालों को यह विश्वास नहीं कि आगे चलने वाला अपना छाता इस तरह ले चलेगा कि उसकी नोक से मेरी आँख न फूट जायगी या पीछे चलने वाला मुझे व्यर्थ धक्का न देगा। किसी को किसी पर यह विश्वास नहीं कि केले नारंगी का छिलका या सूई पिन आदि इस तरह वह न छोड़ेगा, जिससे दूसरे को कष्ट पहुँचेगा। माँगी गई चीज समय पर वापस करेगा इत्यादि इत्यादि हम केवल अपनी तात्कालिक सुविधा देखते हैं। हम सारे संसार को अपने आराम के लिए बना समझते हैं-दूसरों के प्रति-अपने कर्त्तव्य का अनुभव नहीं करते। इसी कारण हम सब एक दूसरे के प्रति अविश्वसनीय और अस्पृश्य हो गये हैँ। अपना धार्मिक आदेश भूल गये- ‘आत्मनः प्रतिकूलानि परेषाँ न समाचरेत’। ‘हम अपनी जिम्मेदारी नहीं समझते।

तीसरी व्यक्ति एक स्त्री हैं। सात-आठ वर्षों से अपने को भारतीय बना कर बड़े प्रेम और श्रद्धा बड़ी तत्परता से भारत की सेवा कर रही हैं असहयोग आन्दोलन में जेल भी जा चुकी है। कई कारण से भारतीयों का निकट तक अनुभव इन कार्य-क्षेत्र में हुआ हैं। इनको भी मैंने घेरा। उनका उत्तर था-’तुम लोग बड़े आलसी हो, अर्थात् लोगों ने श्रम का महत्व ही नहीं पहचाना हैं। मेहनत करना तो हमने मरभुक्खों का काम समझ रखा हैं। बड़े लोगों का काम तो केवल बैठे रहना हैं हम भूल गये कि संसार में जो बड़े हुए हैं, वे सब अथक परिश्रमी रहे हैं। जब हम परिश्रम ही न करेंगे, तो हम सफलता कैसे पावेंगे। आरम्भ शूर तो हम हैं, पर हम में लगन नहीं है। इसी कारण हम अपने रोजगार में, अपनी न गृहस्थी सार्वजनिक जीवन में ही सफल होते हैं। रोने, पीटने झींकने में जितना समय हम बिताते हैं, उतना काम में बिताते, तो हम देश की और अपनी काया पलट कर सकते हैं।

चौथी व्यक्ति एक बड़ी वृद्धा स्त्री थी। संसार प्रसिद्ध थी। मेरे कुल से उनका बड़ा प्रेम था। पितामही तुल्य थीं। उनको भी मैंने तंग किया- ‘आपने अपना 40 वर्ष हमारे देश की विविध सेवाओं में लगा दिया। आपको बतलाना ही होगा कि हमारा क्या दोष हैं, जिससे हमारी उन्नति नहीं होती’ थोड़े में उनका उत्तर था ‘तुम लोगों में उदारता नहीं हैं। विस्तार से उदाहरण दे दे कर उन्होंने बतलाया कि भारत में लोग दूसरों को आगे बढ़ाते। अपने ही आगे रहना चाहते हैं। गुणी नव-युवकों को अपनी योग्यता दिखलाने को नहीं देते। उनके मरने के बाद उनका काम खराब हो जाता हैं। वास्तव में वृद्धा की बातें थी। अन्त तक पिता पुत्र को घर का काम बतलाता, कितने ही कुटुम्ब इसके कारण नष्ट हो गए। बड़े गणी अपनी विद्या लेकर मर गये। इस कारण कितने ही वैज्ञानिक आविष्कार, औषधि आदि लुप्त हो गई। पेशों में इतनी प्रतिद्वन्दिता हो गई हैं कि बड़ा छोटे को काम नहीं सिखलाता। सार्वजनिक जीवन में तो इतनी वीभत्सता दीख पड़ती हैं कि चित्त व्याकुल हो जाता हैं। कितना काम बिगड़ता हैं, इसकी तरफ ध्यान नहीं दिया जाता।

साराँश यह कि ठीक समय से उपयुक्त काम न उठा कर और अपने काम में गर्व न रख कर, उसके करने में दूसरों के प्रति अपनी जिम्मेदारी को न अनुभव कर, अपने काम की एक तफसील को समझ कर, उसमें दत्त चित्त होकर परिश्रम के साथ उसे स्वयं न कर और उदारता के साथ उसे दूसरों को न सिखा कर हम अपना नाश कर रहे हैं। चारों मित्रों ने एक एक अक्षर हमारे दोष का बतलाया, उन सबको मिलाकर मैंने ऊपर पूर्ण कर दिया। यदि और भी कोई सूत्रवत सत्य जानना चाहे, तो मैं कहूँगा कि हम नागरिक कर्तव्यों और अधिकारों को भूल गये हैं। बड़े से बड़े नेता के होते हुए भी हम साधारण जन उनसे कोई लाभ नहीं उठा रहे हैं। हम उनकी मूर्ति की स्थापना करते हैं, उनका जय जयकार पुकारते हैं और इसी में अपने धर्म और कर्तव्य की इति श्री समझते हैं। हम उनके कहे अनुसार चलते नहीं। उनके आदेशों के अनुरूप अपने जीवन का संघटन नहीं करते यही कारण है कि हम वहीं के वहीं हैं। संसार वेग के अनुरूप अपने जीवन का संघटन नहीं करते यही कारण हैं कि हम वहीं के वहीं हैं। संसार वेग से चला जा रहा हैं, हम तटस्थ हैं, सामने सब कुछ हैं पर हम हाथ पर हाथ दिये किंकर्तव्यविमूढ़ की तरह बैठे हुये हैं। हम किसी दूसरे की खोज में हैं, जो आकर हमारा काम कर दे। दूसरा क्या कर सकता हैं-जब कि हम खुद नहीं कुछ करना चाहतें?

-गृहस्थ गीता


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