ब्रह्मचर्य का तत्व-ज्ञान

May 1943

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

चैतन्य प्राणियों की उत्पत्ति पर प्रकाश डालते हुए प्रश्ननोपनिषद् में बताया गया है कि सर्वप्रथम दो शक्तियों का आविर्भाव हुआ एक रति दूसरा प्राण। कात्यायन कबन्धी के प्रश्न का उत्तर देते हुए महर्षि पिप्पलाद ने बताया है, कि इन्हीं दो शक्तियों के संमिश्रण से चैतन्य जीवन विभिन्न आकार-प्रकार में निर्मित हुए। विद्युत विज्ञानवादी रति और प्राण शक्ति को “नेगेटिव” और “पाजेटिव’ कहते हैं। अध्यात्म वादी प्रकृति, पुरुष नाम देते हैं, मनोविज्ञान के अनुसार यह इच्छा और क्रिया कहे जाते हैं, योग शास्त्र में इन्हीं को ज्ञान, भक्ति कह कर पुकारा गया है, सारे जगत में सूर्य और चन्द्रमा इनकी प्रतिमूर्तियाँ हैं।

क्रम यह है कि रति द्वारा प्राण का आकर्षण होना चाहिए। जिस क्रम से रति शक्ति विकसित होती हो उसी क्रम से प्राण की धारणा होती है। घड़े में जितना स्थान है, उतना ही पानी भरना चाहिए, यदि घड़े के स्थान की परवाह न करके अन्धाधुन्ध पानी भरा जायगा, तो उससे विकृति उत्पन्न होगी और परिणाम हानिकर होगा। भक्ति की अपेक्षा ज्ञान अधिक होगा तो नास्तिकता बढ़ेगी, जितनी इच्छा है उससे अधिक क्रिया करनी पड़ेगी, तो करने वाला थक जायगा और कष्ट अनुभव करेगा। सृष्टि के सभी जीव इस नियम से परिचित हैं और उसका यथाविधि पालन करते हैं। रति संयोग के सम्पन्न में समस्त पशु पक्षी मादा की इच्छा का पालन करते हैं। सृष्टि का कोई प्राणी मादा की सम्भोग इच्छा के अतिरिक्त उस पर किसी प्रकार का दबाव नहीं डालता।

मादा की सम्भोगेच्छा बहुत ही स्वल्प और एक विशेष आवश्यकता होने पर प्रकट होती है। रा और विकास (Contraction & Expansion) के नियमों से मादा बंधी हुई है। फूलों की कलियाँ बन्द रहती हैं, अपनी सामर्थ्य बढ़ाने तक चुप रहती हैं, जब उनके भीतर संकोच की मर्यादा पूरी हो जाती है और रति का पर्याप्त संचय हो जाता है, तो वे अपनी रूप शक्ति का विकास करने के निमित्त खुलती हैं और प्राण रूप क्रिया शक्ति का संयोग होने पर फल पैदा करने के लिए फिर से संकोच कर लेती है। रति का उत्तेजन प्रकृत स्वभाव में उचित अवसर पर होता है और प्राण प्राप्त होते ही तुरन्त शान्त हो जाता है और अपना उद्देश्य पूरा करके पुनः शक्ति संचय करे वैसा ही अवसर आये बिना फिर जागृत नहीं होता। स्त्री की सम्भोगच्छा स्वाभाविक रूप से ऋतु काल में होते है, सो भी हर ऋतु में नहीं, यदि कोई शारीरिक या मानसिक कष्ट हो तो ऋतु होने पर भी रति का उत्तेजन नहीं होता।

मैथुन केवल स्त्री की रति उत्तेजन की आवश्यकता की पूर्ति के लिए होना चाहिए। चटोरी लालसा द्वारा जैसे भूख न रहने पर भी सुस्वाद भोजनों के लिए मन चलता है, वैसे ही स्त्रियों को चटोरी काम वासना भी हो सकती है। इसकी सूक्ष्म दृष्टि से विवेचना करनी चाहिए और मानसिक विकार का निरोध करते हुए केवल स्वाभाविक आवश्यकता का ही आदर करना चाहिए। चटोरी भूख को पूरा करते रहने से शरीर रोगों का घर बन जाता है, वैसे ही जीवन की मूल भूत चेतना रति का दुरुपयोग होने से स्त्रियों का जीवन तत्व नष्ट होता है और मानव शरीर की अनेकानेक महत्ता से उन्हें सर्वथा वंचित रहना पड़ता है।

पुरुषों का अपना दृष्टिकोण पूर्ण ब्रह्मचारी रहने का होना चाहिए। उन्हें स्वेच्छा से वीर्य नष्ट करने का कोई अधिकार नहीं है। रति की तृप्ति के लिए प्राण प्रदान करने की उन्हें अनुमति मिली हुई है, इसका उपयोग दूसरे पक्ष की आवश्यकता पर निर्भर है। पुरुष का अपना निजी विचार दूर समय कठोर ब्रह्मचर्य के लिए रहना चाहिए, क्योंकि उसका यही कर्तव्य है।

यह समझना बड़ी भारी भूल है, कि यह शरीर का एक मल है और उसे निकालना ही चाहिए। यदि ऐसी बात होती तो मलमूत्र की तरह वीर्य के लिए भी कोई विशेष प्रक्रिया होती, किन्तु देखा जाता है कि शरीर में भी वीर्य के भण्डार नहीं भरे हैं। यह अमूल्य पदार्थ एक ने अदृश्य रूप से इस प्रकार छिपा हुआ है, कि बिना अत्यन्त आवश्यकता के इसका उपयोग न हो सके। उपनिषदों में रेतस शब्द ‘तज’ के अर्थ में उपयोग किया गया है। वीर्य एक चिकनी रसदार वस्तु नहीं है, वरन् जीवन का प्रत्यक्ष तेज है। आत्मा, आत्मा से उत्पन्न होता है, न कि शरीरस्थ मल मूत्रों से। रक्त, माँस हड्डी आदि धातुओं से यदि आप सन्तान उत्पन्न करना चाहते हैं तो यह नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें वीर्य तत्व नहीं है। वीर्य में आत्मा का तेजस है, प्राण है, चैतन्य है, इसीलिए तो वह सन्तान उत्पन्न कर सकता है। विचार तत्व को प्रकट करने के लिए मस्तिष्क एक साधन है। इस प्रकार आत्मा के चैतन्य तत्व का प्रत्यक्ष दर्शन वीर्य रूप में होता है।

वीर्य शरीर का एक भाग है, इसका खण्डन उन उदाहरणों से हो जाता है, जिनमें कि अन्धे पिता के नेत्रों वाली और अंग-भंग पिताओं के पूर्ण अंगों वाली सन्तान उत्पन्न होती है यदि वीर्य शरीर का ही एक भाग होता तो जो अंग पिता के शरीर में नहीं है वह बालक में भी न होने चाहिए थे। अंगों के नष्ट होने से आत्मा से वे भाग चले नहीं जाते, इसलिये वीर्य का तेज, पूर्ण अंग वाली सन्तान उत्पन्न करने में समर्थ रहता है, मरे हुए व्यक्ति का वीर्य क्या किसी को गर्भ धारण करा सकता है? लसदार पदार्थ लकड़ी समान है आत्मा तेज की अग्नि जब उसमें सम्मिलित रहती है तब उसे प्रज्ज्वलित होने से क्रियाशीलता आती है।

आत्मतेज एक नेक शक्ति है, वह मानव जीवन को विकसित करने के लिए उत्तेजना देती है। हमें अनेक दिशाओं में प्रगति करनी होती है और उस सब के लिए शक्ति का प्रवाह वीर्य द्वारा होता है।

पर उद्गम केन्द्र “बिजली घर” में ही है। मनुष्य के सामने एक बड़ी यात्रा पड़ी हुई है, उसे ठीक तरह पूरा करने के लिए शरीर की मोटर में पेट्रोल भरा गया है, किन्तु हाय! कितने दुख की बात है कि हम लोग ऐसे बहुमूल्य पदार्थ को क्षण भर में तुच्छ स्पर्श सुख के लिये बर्बाद कर रहे हैं। मोटर के पेट्रोल को आतिशबाजी का तमाशा करने में फूँक रहे हैं। जो शक्ति हमें सर्वथा सुरक्षित रखनी चाहिये और स्वेच्छा से जिसकी एक बूँद भी स्पर्श सुख के लिए खर्च नहीं करनी चाहिये, उस बहुमूल्य पदार्थ को मानसिक विचारों की दियासलाई से जला कर नष्ट कर रहे हैं। हाय! हम अपने पाँव में अपने आप कुल्हाड़ी मारने का यह भयानक खेल क्यों खेल रहे हैं? अपनी चिंता के लिये अपने आप लकड़ियाँ क्यों इकट्ठी कर रहे हैं?


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118