(पं. रामदयाल शर्मा, तिलहर)
महाराज पाँडव और धृतराष्ट्र के पुत्र जब विद्याध्ययन के योग्य हुए तो उन्हें गुरु के समीप विद्या पढ़ने के लिए भेजा गया। गुरु कुल में पाँडवों और कौरवों की शिक्षा दीक्षा की समुचित व्यवस्था चलने लगी।
एक दिन आचार्य ने बालकों को पाठ दिया ‘लस्यंवद’ दूसरे दिन सबने उसे रट कर ठीक-ठीक सुना दिया, परन्तु युधिष्ठिर ने कहा—गुरु जी! मैं अभी उस पाठकों याद न कर सका। गुरु ने दूसरे दिन याद कर आने के लिए आदेश किया। दूसरे दिन याद कर आने के लिए आदेश किया। दूसरे दिन भी युधिष्ठिर में वही उत्तर दिया—अभी मैं याद नहीं कर सका। रोज उन्हें आचार्य का आदेश मिलता—’कल जरूर याद कर आना।’ दूसरे दिन युधिष्ठिर का भी यही उत्तर होता—याद न कर सका। इस क्रम को चलते हुए कई दिन व्यतीत हो गए।
अनन्तः आचार्य ने, युधिष्ठिर को खूब झिड़का और कहा—जरा सी बात याद करने में तुमने इतने दिन लगा दिये। युधिष्ठिर ने गुरु की पद-रथ शिर पर चढ़ाते हुए विनय पूर्वक निवेदन किया—गुरुवर! वह छोटा सा शब्द तो मुझे उसी क्षण याद हो गया था और अन्य बालकों की भाँति तोते की तरह तो कमी का सुना चुका होता, पर इतने मात्र से वह शिक्षा पूरी नहीं होती। आपका पढ़ाना और मेरा पड़ना तभी सार्थक हो सकता है, अब मैं ‘सत्यवह’ की शिखा को हृदय के गहरे अन्तस्थल तक उतार लूँ और मेरा जीवन उसी से आते प्रोत हो जाय।
आचार्य का हृदय गदगद हो आया। उनने सच्चे विश्व युधिष्ठिर को छाती से लगा कर कहा—बेटा! शिक्षा का सच्चा तत्व तुमने समझ लिया, लाखों पुस्तकें पढ़ने और हजारों गुरुओं के उपदेश श्रवण करने से भी कुछ लाभ नहीं, यदि धर्म का आचरण न किया जाय। आचरण ही मुख्य है, बहुत पढ़ने वाला ज्ञानी नहीं वरन् सच्चा ज्ञानी वह है, जो भले ही कम जानता हो पर कितना जानता है, उसे ठीक तरह अपने जीवन में प्रयोग करता है।