प्रभुता का मद

May 1943

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उस पद को प्राप्त करने के लिए उष्णन हृदय की आवश्यकता है। जिनका हृदय महान् है वे ही महान् कर्तव्यों को पूरा भी कर सकते हैं। नीच वृत्तियों के स्वामी मनुष्यों के हाथ में यदि कभी उत्तरदायित्वपूर्ण कार्यों को पा जावें या उस सत्ता को किसी प्रकार प्राप्त कर ले तो वे उसका सदुपयोग ही करेंगे।

राजा नहुष ने एक बार बड़ा प्रयत्न करके इन्द्र पद प्राप्त कर लिया था और वह शासक के दायित्वपूर्ण पद पर बैठ गया था। निश्चय ही नीच स्वभाव के मनुष्य उच्च पद को पाकर आपे से बाहर हो जाते हैं और उन्हें एक प्रकार का उन्मादकारी नशा चड़ जाता है जिसे प्रभुता का मद कहते हैं। इन्द्र पद को पाकर नहुष को हुआ। उसने शक्ति के घमंड में उचित अनुचित के भेद का परित्याग कर दिया।

नहुष की इच्छा हुई की भूतपूर्व इन्द्र की सती को उसकी इच्छा के विरुद्ध अपनी पत्नी बना ले। उसने यह प्रस्ताव इन्द्राणी के पास भेजा पर उसने उसकी इच्छा पूर्ण करने से साफ इनकार कर दिया। पर नहुष ने उसके रूप लावण्य पर मुग्ध हो रहा था वह सत्ता के रथ पर अपनी मनो इच्छा पूरी करने पर उतारू हो गया।

इन्द्राणी ने देखा कि यों काम न चलेगा। काँटे से काँटा निकालना चाहिये। जो दुष्ट अपने बल से न हटाया जा सके उसे अन्य उपायों से ही नष्ट करा देना नीति है। इन्द्राणी ने इसी नीति से काम लिया और कहलवा भेजा कि राजा नहुष मेरे अन्तःपुर में ऋषियों की कहार बनाकर उनकी पालकी में बैठकर आ सकते हैं। कहते हैं कि कामातुर के भय और लज्जा नहीं रहती। नहुष ने निर्लज्जता पूर्वक अपनी तृप्ति के लिए ऋषियों को पालकी में जुतवा दिया और उनके ऊपर सवार होकर इन्द्राणी के अन्तःपुर के लिए चल दिया।

बाद इन्द्रियाँ बेकाबू हो जाय तो मनुष्य को अन्धा बना देती है, आँखें रखते हुए भी उसे भला बुरा कुछ नहीं सूझ पड़ता। वह पागल की तरह चाहे जो कहने और करने लगता है। दुर्बल शरीर वाले ऋषि पालकी और राजा का भार लेकर कड़ी कठिनाई से चल रहे थे। पर राजा को इतना चैन कहाँ था, वह तो आधे पल के अन्दर इन्द्राणी के महल में पहुँचना चाहता था। ऋषियों का धीरे-धीरे चलना उसे सहन न हो सका और उसने उतावला एवं क्रोध के साथ ‘सर्प’ ‘सर्प’ अर्थात् जल्दी चलो, जल्दी चलो कहने लगा।

कोई कितना ही सहनशील क्यों न हो अन्याय के विरुद्ध एक दिन उसकी आत्मा विद्रोह करती ही है। जो निरन्तर अन्याय सहन करता रहे और उसके प्रतिकार का गरम या ठंडा कोई उपाय न करे यह यथार्थ में मनुष्य कहा ही नहीं जा सकता। ऋषि लोग अन्याय सह रहे थे इसलिए कि इसका पाप घड़ा भर जाने दिया जाय तो अपने आप फूट जायगा। पर वह तो मर ही चुका था। ऋषियों की आत्मा विद्रोह कर उठी। उन्होंने समझा ऐसे समय पर भी चुप रहना क्षमा नहीं कायरता होगी।

उन्होंने पालकी को नीचे पटक दिया और शाप दिया कि—’मदान्ध’ तू उचित अनुचित कुछ नहीं देखता और ‘सर्प’ सर्प ही चिल्लाता जाता है, जा तू सर्प ही हो जायगा, पवित्र आत्माओं का वचन मिथ्या नहीं होता, ऋषियों के श्राप से राज सचमुच सर्प होकर भूमि पर लोटने लगा।


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