शाँति-किरण (kavita)

May 1943

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नम विशीघ्र के ही विराम पर,

तो जग ने बालारुण देखा ॥

दुख का अनुभव ही तो बढ़कर,

बन जाता है सुख का लेखा॥

खण्डहरों पर ही तो इक दिन,

होता है वैभव का नर्तन ॥

जीवन की अन्तिम सीमा ही,

तो है नव जीवन की रेखा॥

मृग मरीचिका में ही तो,

मा ..! विनाश का है आराधन॥

पा न सके यदि पूर्ण खण्ड तू,

प्राप्त खण्ड को ही सुख से खा॥

(रचयिता—दिनकर प्रसाद शुक्ल “दिनकर” विशारद गोहद)


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