नम विशीघ्र के ही विराम पर,
तो जग ने बालारुण देखा ॥
दुख का अनुभव ही तो बढ़कर,
बन जाता है सुख का लेखा॥
खण्डहरों पर ही तो इक दिन,
होता है वैभव का नर्तन ॥
जीवन की अन्तिम सीमा ही,
तो है नव जीवन की रेखा॥
मृग मरीचिका में ही तो,
मा ..! विनाश का है आराधन॥
पा न सके यदि पूर्ण खण्ड तू,
प्राप्त खण्ड को ही सुख से खा॥
(रचयिता—दिनकर प्रसाद शुक्ल “दिनकर” विशारद गोहद)