मानुष तन को पाय के, करे नहीं सत संग।
ज्यों पारस को पाय के, दाग रहे मति भंग॥
पढ़ि पढ़ि के पंडित भये, भये न किया बान।
ज्यों गंगा, तट जायके, प्यासा रहे जबान॥
पढ़ पढ़ कै ज्ञानी भये, मिटवों नहीं तन ताप।
राम राम तोता रटें, कटै न बन्धन पाप॥
वेद शास्त्र सर्व कंठ कर, बग बहुत बाचाल।
बिना कर्म के गति नहीं, घूम रही सिरकाल॥
केवल मन्थन के पढ़े, आवागमन न जाय।
षट्रस भोजन , बिन ना थ न ।
बढ़ बढ़ के बाते करें, नहीं किया के ज्ञान।
लाखों परे खजानची, करे न कोड़ी दान॥
(श्री किशनवी अग्रवाल ‘प्रसाद’ हरदा)