(योगी अरविन्द घोष)
अब पुनः संगठन का युग आ गया है। भारत की उन्नति का आरम्भ हो गया है विपत्ति की काली घटा जो भारत के गगन में मँडरा रही थी, हट रही है। पूर्व आकाश में ऊषा का उज्ज्वल प्रकाश दिखाई पड़ रहा है। प्रकृति के गुप्त मन्दिर में सुन्दर दीपक सज्जित हो गया है, शीघ्र ही भगवान की आरती उतारी जाएगी। नवीनयुग के आरम्भ में धर्म, नीति, विद्या ज्ञान इत्यादि अनेक प्रकार के आन्दोलन मनुष्य समाजों में अवतीर्ण हुए देखे जा रहे हैं, किन्तु यथार्थ सत्य का पता तब भी किसी ने नहीं पाया है। सब से प्रथम भारतवर्ष हो इस सत्य का पता लगाने में समर्थ होगा। आज संसार में जिस नये युग का आविर्भाव होगा, जिस धर्म, सत्य, प्रेम, न्याय तथा एकता की भगवान ने पृथ्वी पर प्रतिष्ठा करने की इच्छा की है, वह वर्तमान मानव चरित्र के आँशिक परिवर्तन में संभव नहीं। आधुनिक मानव जाति के बीच कानूनी-बन्धन-विधान चलाने से काम नहीं चल सकता। एकबार काया पलट करनी होगी, पुराने संस्कारों से यह कार्य सिद्ध नहीं होगा, वाह्य जीवन में थोड़ा सा परिवर्तन लाने से अथवा मनुष्य के कार्य परम्परा की धारा बदल देने से भी यह पूरा नहीं होगा। आवश्यकता इस बात की है कि यह पुनसंगठन भीतर से आरम्भ होना चाहिए। मानव अन्तःकरण को एक दम नया आकार प्रकार धारण करना होगा। मन, प्राण और चिंता को वृत्तियों में पूरा रूप से परिवर्तन करना होगा। इस पार्थिव जीवन में ही देवता की लीला परिपूर्ण होगी। इसी महान संकल्प को लेकर हम साधना के मार्ग में अग्रसर होंगे।