मुझे माँस नहीं चाहिए।

June 1943

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(ले-श्री रोबर्ट चीटले)

‘बेटा। यदि तुम माँस न खाओगे, तो बीमार पड़ जाओगे और मर जाओगे कहती हुई माता की बचपन की याद आ जाती है। जब मैं कहता था-’बस, अब मैं चावल गुलगुले और न लूँगा। लेकिन जब मैं कहता था-’मुझे माँस नहीं चाहिए। तो आश्चर्य और भय में उसके हाथ ऊपर उठ जाते हैं और वह कहती थी- तुम त्रिकाल में भी बलवान और बड़े आदमी न हो सकोगे। इसलिए मैं वयस्क होने तक प्रतिदिन माँस खाता रहा।

कितने लोग माँस-भक्षण को स्वस्थ रहने का उपाय बता कर विवाद करते हैं। कितने लोग नहीं समझते हैं कि वे क्या कह रहे हैं, जब ये माँस को स्वास्थ्यवर्द्धक बताते हैं? क्या उन्होंने माँस के गुण-दोषों का अध्ययन किया है ?

मैं जितना बड़ा होता जा रहा हूँ उतना ही मेरा विश्वास बढ़ता आ रहा है कि करोड़ों लोगों का स्वास्थ्य, उस स्वास्थ्य की छाया भी नहीं होता है, जो वास्तव में होना चाहिए। इसके साथ-साथ मुझे इसमें भी सन्देह नहीं है कि हमारे रोगों के आंधी का कारण अव्यवस्थित भोजन के सिवा कुछ भी नहीं है।

अपने सत्य की खोज करने से मुझे ज्ञात हुआ है कि संसार के सब से बड़े बल शक्तियों में कही निरामिष भोजी है। उदाहरण के लिये संसार प्रसिद्ध विचारक नाटककार जार्ज बर्नार्ड शाह को ही लिए। शा के डाक्टरों ने कहा था, कि माँस बिना तुम मर जाओगे। उसने निर्भीकता पूर्वक उत्तर दिया-अच्छा हमें केवल प्रयोग करके ही देखना चाहिए। यदि में जीवित रहा तो आशा करता हूँ कि आप सब भी निरामिष भोजी हो जायेंगे।

जार्ज बर्नार्ड शा जीवित हैं, तो भी आज 40 वर्ष बाद डॉक्टर पुरानी बात कहते ही हैं। ऐसे ही अवसर पर शा ने कहा था। मेरी स्थिति गम्भीर है। मैं जी सकता हूँ बशर्ते माँस की बोटियाँ खाऊँ। लेकिन राक्षसी वृत्ति से मृत्यु पत्र में अपनी अन्तिम क्रिया की विधि का भी संकेत कर दिया है, जिसमें शाकाहारी लोगों की घोड़ा गाड़ियाँ न जाएंगी, बल्कि मेरे जनाजे के पीछे गाय, बैल, बकरी, मुर्गी, मुर्गा वगैरह पक्षी और जीवित मछली सहित एक छोटा सा बनावटी तालाब चलेगा। यह सब जीव उस व्यक्ति के प्रति आदर प्रकट करने के लिए गत्ते में सफेद रुमाल बाँधे रहेंगे, जिसने उनके बन्धुओं को खाने की अपेक्षा मृत्यु को अधिक पसन्द किया। नींद के आश्रय (महावीर के समक्षशरण) के सिवा यह दृश्य संसार के लिये अभूत पूर्ण होगा।

जार्ज बर्नाड शा अपनी तंदुरुस्ती के लिए मशहूर है। वह कहते हैं कि मैं हमेशा अन्त में एक सन्तरा खाकर अपना भोजन समाप्त करता हूँ। वह लिखते हैं-जब हम उन लोगों का विचार करते हैं, जिनके जीवन गाय, बकरी, और सूअर वगैरह के पालने में बिताते हैं- वे इन पशुओं को चराते हैं, जोतते हैं, रोगों से बचाते हैं और उनके लिये हजारों दिक्कतें उठाते हैं और इस तरह उन्हें उन लोगों सरीखा ही हष्ट-पुष्ट और वयस्क बना देते है, जिनके लिये वह व्यर्थ बलि दिये जाते हैं। अपने अपने से पूछता हूँ कि वह सुदिन कब आयेगा जब मारे जाने के लिए ही पशुपालन अपराध घोषित किया जायगा।

माँस भोजन के विरुद्ध होने वाले आन्दोलन के एक सुअवसर है। जब हम क्रमशः विकास कष्ट के इस बला से छुटकारा पा सकते हैं। आज अनेक बड़े बलवान पुरुष माँस नहीं छूते हैं। मुनि और योगी माँस की छाया से भी दूर रहते हैं, पर उनका व्यक्तित्व आकर्षक होती है। जो उन्हें देखता है, उस पर उनकी मधुर ध्वनि प्रकाशमय नेत्र, निर्मल वर्ण और स्वस्थ सात्विक शरीर का प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता है। तिब्बती साधु बर्फ में नंगे बैठ कर भी ठण्ड से बचे रहते हैं। सैंकड़ों मील बिना ठहरे दौड़ कर भी वे थकान का अनुभव नहीं कर रहे हैं। भारतीय साधु ऐसे ऐसे साहसिक कार्य करते हैं, जिन्हें हम पश्चिमी लोग मानते भी संकुचाते हैं।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118