(ले.-पं. राधेश्याम द्विवेदी, वकील करेश ग्वालियर)
आधुनिक समय में स्वार्थपरायणता का दुरुपयोग अत्यधिक व्याप्त है, परिणामतः सामाजिक असाधारण हानि हो रही है स्वयं को तो हानिप्रद है ही।
कारण इसका यही प्रतीत होता है, कि आवश्यकता का अर्थ अभाव है। स्वार्थ ‘शब्द’ वस्तुतः क्या है? इसका भली भाँति ज्ञान नहीं है, दूसरे मनुष्य वह कर्त्तव्य अच्छा समझते हैं, जिसके आरम्भ करते ही उन्हें भ्राँति मूलक आनन्द का आभास जान पड़े। फिर भले ही वह पीछे दुखदायी हो, ऐसा आनन्द क्षण न्यायी अनित्य है।
स्वार्थ (स्व+अर्थ) = अपना अर्थ, विचार की बात है कि अपना अर्थ का क्या स्वरूप है। अपना अर्थ है आध्यात्मिक उन्नति करना। अनासक्त भाव से कर्तव्य परायण रहना। मोह का आश्रय लेकर कर्तव्य करने से ही स्व-अर्थ का दुरुपयोग होता है।
‘स्व-अर्थ’ ‘स्व’ शब्द का सम्बन्ध आत्मा से है स्व अर्थ का सदुपयोग आत्मोन्नति है और वह जब ही हो सकेगी, जब कि हम जीव मात्र को एक ही आत्मस्वरूप होने का अनुभव करे।
एक ही आत्मस्वरूप होने से अपने पराये का भेद भाव मिटावें। एक वस्तु से यदि किसी को साथ होता है अथवा उसका उपकार होता है, तो हमें यही उचित है कि वह लाभ या उपकार अपना ही समझे इस नाते उस लाभ या होने वाले उपकार में ठेस न पहुँचायें। देह पृथक होने से उस नित्य चिर-सम्बन्धी-आत्मा को न भूलो आत्मा संबन्ध एक ही है, माया ही अपना एवं पराये को बनाती है, अतएव नित्यरुपायी आत्मोन्नति के कर्त्तव्य को निश्चित करके “स्वार्थ” का सदुपयोग करो।
पराये के साथ हानि पहुँचाने वाला रख कर अपने को अवैध लाभ पहुँचाने का जो प्रयास करते हो। वास्तव में वह “स्वार्थ” का दुरुपयोग है। तुम्हारे ही कर्तव्य अन्त में निर्णय देते हैं कि तुमको अवैध लाभ प्राप्त करने के उद्देश्य के बदले हानि पहुँचेगी एवं जिसको प्रति हानि पहुँचाने का उद्देश्य के बदले है, वह हानि पहुँचाते से सुरक्षित रहेगा।
अनुभव करो कि अपने हाथों ही अपनी उन्नति हो रही हैं स्वार्थ का सदुपयोग हो रहा है।
यथा शक्ति परोपकार करना, आत्मा के हित में रत रहना ही स्वार्थ के दुरुपयोग-जनित पतन से त्रास पाना है।