मनुष्य कहाँ हैं?

June 1943

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(पूज्यपाद श्री स्वामी सत्यभक्त जी महाराज)

सन् 41 की जनगणना हो गई। सम्भवतः हिन्दुस्तान की जनसंख्या चालीस करोड़ तक पहुँच जायगी और दुनिया की जनसंख्या तो करीब दो अरब है। इसने मनुष्यों के होते हुए भी मन में यह सवाल उठा ही करता है कि “मनुष्य कहाँ है?” हिन्दू हैं, मुसलमान हैं, ईसाई हैं, जैन हैं, पारसी हैं, पर मनुष्य धर्म के मानने वाले मनुष्य कहाँ हैं, ब्राह्मण हैं। क्षत्रिय हैं, वैश्य हैं, शूद्र हैं, या अग्रवाल, माहेश्वरी, खंडेलवाल, परवार, पंवार, भंगी, चमार आदि हज़ारों हैं पर मनुष्य जाति को अपनी जाति मानने वाले मनुष्य कहाँ हैं। हिन्दुस्तानी जापानी, चीनी, अंग्रेजी, जर्मन, इटालियन, आदि, अथवा बंगाली, पंजाबी, गुजराती, महाराष्ट्री, कर्नाटकी आदि सैकड़ों हैं पर मनुष्य कहाँ हैं।

जहाज इसलिये बनाये गये थे कि मनुष्य समुद्र पर विजय पाकर सब द्वीपों और महाद्वीपों में मनुष्यता का एक छत्र शासन स्थापित करे पर आज वे जहाज मनुष्यता के संहार में लगे हैं, जीवन-निर्वाह की सामग्री समुद्र के पेट में पहुँचाई जा रही है, सुविधा और महत्ता में शहरों को चुनौती देने वाले समुद्र विजयी जहाज, समुद्र के पेट में जा रहे हैं। यह सब क्यों हो रहा है। क्योंकि मनुष्य नहीं है।

हवाई जहाज बनाने में सफलता मिलने पर सब ने अनुभव किया था कि अब हम आकाश पर विजय पा रहे हैं, मनुष्य-मनुष्य में एकता लाने के लिये जहाजों की अपेक्षा दस गुणा प्रयत्न कर रहे हैं। पर आज क्या हो रहा है ? देवत्व लाने वाली चीज आज शैतानियत ला रही है। इन हवाई जहाजों ने, विमानों ने, संहार करने में जो सफलता पाई है, शैतान को उसका मुश्किल से स्वप्न ही आया होगा। यह सब क्यों हो रहा है! क्योंकि आज दुनिया में मनुष्य नहीं हैं।

रेडियो का आविष्कार कितना भला है। हजारों कोस के सन्देश इस तरह सुने जाते हैं मानो रंग मंच की आवाज दर्शक सुन रहे हों, इससे मनुष्य-मनुष्य के कितने पास आ जाता है, पर अब क्या हो रहा है! रेडियो का काम परस्पर निन्दा और झूठा प्रचार कर एक-दूसरे को लड़ाने का रह गया है वरदान अभिशाप बन रहा है। क्यों। क्योंकि मनुष्य नहीं हैं।

विज्ञान के प्रत्येक आविष्कार की यही दुर्दशा हो रही है विज्ञान ने जितना अमृत दिया है उससे अधिक विष-संहारक अस्त्र शास्त्रादि-दिया है, मानो कामधेनु के स्तनों में से हलाहल निकल रहा है। यह सब इसलिये कि आज दुनिया में मनुष्य नहीं हैं।

भारतवर्ष के ऊपर अब नज़र जाती है तब और भी निराशा होती है। एक दिन भारतवर्ष मनुष्यता का कारखाना रहा होगा पर आज क्या है। आज यहाँ की मनुष्यता नहीं, मनुष्यता का अभाव बेजोड़ है।

भारतवर्ष अभी गुलाम है इसलिये इसका राष्ट्रीयता मनुष्यता के विरुद्ध नहीं है, इसका कारण हमारी उदारता नहीं है, परन्तु मनुष्यता के एक अंग रूप अभाव है। हम में मनुष्यता तो है ही नहीं किन्तु उसके रंग रूप मैं राष्ट्रीयता भी नहीं है हिन्दी महाराष्ट्री, अब्राह्मण, बंगाली बिहारी आदि हर, जगह इसमें द्वंद है कि मनुष्यता का दर्शन करना भी हमें मुश्किल है, उसका पाना तो दूर की बात है।

सोचा था भारत की राष्ट्रीय संस्थाओं में मनुष्यता के दर्शन होंगे, परन्तु वहाँ भी गहरे तक सम्प्रदायवाद और जातिवाद जड़ जमाए बैठा है। कुछ संस्थाएं तो जाति या सम्प्रदाय के नाम से ही खड़ी है और राष्ट्रीयता का दावा करती हैं पर को नाम से राष्ट्रीय हैं उनमें भी हजार में नौ सौ निन्यानवे आदमी ऐसे हैं जो सम्प्रदाय या जाति से ऊँचे नहीं उठ पाते हैं, मनुष्यता का परिचय नहीं दे पाये हैं।

कहने को प्रजातंत्र के रूप दिखाई देते हैं पर मनुष्यता के अभाव में वे सिर्फ बने हुए हैं।

अगर आज दुनिया में मनुष्य को तो मनुष्याकार प्राणी मनुष्याकार प्राणियों का भक्ष क्यों बने! अंग्रेजों का स्वार्थ और हिन्दुस्तानियों का स्वार्थ अलग-अलग क्यों हो? एक कुटुम्ब की तरह सभी मिलकर भरपेट रोटी क्यों न खायें। अगर मनुष्य हो तो जापान अपने गुरु चीन पर बम क्यों बरसावे! एक ही नस्ल के हिन्दुस्तानी- वे चाहे हिन्दू रहे हों या मुसलमान बन गये हों-भिन्न जाति के दो प्राणियों से अधिक दूर क्यों हो जायं, पाकिस्तान की समस्या क्यों खड़ी हो!

मनुष्य के सिर पर एक से एक बढ़कर कठिनाइयाँ हैं, उन कठिनाइयों से लड़ने में मनुष्य को शताब्दियाँ लग जायेंगी। दुःख की आज कुछ कमी नहीं है- प्राकृतिक दुःख, शारीरिक दुःख आध्यात्मिक दुःख सैकड़ों हजारों हैं, इन्हीं के मारे मनुष्याकार प्राणी कराह रहा है फिर समझ में नहीं आता कि लड़ झगड़कर और दुःखों को निमंत्रण क्यों दिया जाता है। मीठा खाते खाते जब कोई ऊब जाता है तब खट्टा या चिपरा चाहता है, हम सुख भोगते भोगते ऊब जाय तो दुःख ढूँढ़े उसके लिये लड़े, झगड़े पर जब सुख का काम मिलना मुश्किल है तब उससे ऊबने की मूर्खता क्यों कर रहे हैं इसलिये कि हम मनुष्य नहीं बने हैं।

अगर हम मनुष्य बन जायं तो हमें यह चिन्ता न हो कि दुनिया के किस कौने पर कौन मनुष्याकार प्राणी ऐसा है जो लूटा जा सकता है, पर यह चिन्ता हो कि जगत के किस कौने पर कौनसा मनुष्याकार प्राणी भूखा पड़ा है उसके पेट में अन्न कैसे पहुँचाया जा सकता है ! जरा हम उस युग की कल्पना तो करें जब प्रत्येक मनुष्य यह अनुभव करता है कि मेरा रक्षक सारी दुनिया है, जब प्रत्येक राष्ट्र यह अनुभव करता है कि मैं नव-राष्ट्र का एक नगर हूँ मेरा दुःख-सुख मानव-राष्ट्र के दुःख से अलग नहीं है किसी को किसी का भय नहीं है, सब को सभी का भरोसा है। जिस दिन मनुष्याकार प्राणी यह अनुभव कर सकेंगे उस दिन पर सहस्राब्दियों की वैज्ञानिक या भौतिक उन्नति न्यौछावर की जा सकेगी।

आज की दुर्दशा देखकर तो यही बारबार मुँह से निकलता है कि “ए खुदा! ए गाँड! हे ईश्वर तूने मनुष्याकार जन्तु पैदा करने में जितनी मेहनत की उससे आधी या चौथाई मनुष्य पैदा करने में क्यों न की?

ओह, आज दुनिया में सब कुछ है, जल थल आकाश पर राज्य है, कला कौशल विज्ञान हाथ में है, पाँचों भूत वश में हैं वेद कुरान पुरान मन्दिर मस्जिद गिरजा भी है। क्या नहीं हैं। नहीं हैं तो सिर्फ मनुष्य नहीं हैं, इसलिये यह सब र्व्यथ है।

आज है कोई माई का लाल जो दुनिया कोमनुष्य बनावे, और कोई माई का लाल जो मनुष्य बने। -नई दुनिया


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118