कलियुग का अन्त करो!

June 1943

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(पं. सूर्यप्रकाश शुक्ल, बढ़ापुर)

आज चारों ओर पाप कर्मों की अधिकता दिखाई पड़ती है। इन पाप कर्मों से बड़ी दुखदायी परिस्थितियाँ उत्पन्न होकर मनुष्य जाति को क्लेश और कलह की अग्नि में जलाती हैं। दुखों में कमी करने के लिए यह आवश्यक है कि पाप कर्मों के प्रति घृणा उत्पन्न की जाय, अनीति और अधर्म के विरुद्ध जोरदार लोकमत तैयार किया जाय। यह निश्चय है कि जनता में जब तक कुकर्मों के प्रति रोष और उन्हें मिटाने के लिए विरोध उत्पन्न न होगा, तब तक उन्हें न तो मिटाया जा सकेगा और न घटाया जा सकेगा।

दुर्भाग्य से हमारे देश में एक बड़ी ही आत्म वासी विचारधारा चल पड़ी है, जो पापों के विरोध को निर्बल बनाती है और पाप तथा पतन को सहायता पहुँचाती है। यह आत्मघाती भावना ‘कलयुग‘ की मान्यता है। दुष्ट कर्म होते देखकर अक्सर लोग कह दिया करते हैं-’भाई, यह कलियुग का जमाना है, इसमें ऐसा ही होने वाला है, युग के प्रभाव को कोई मेट नहीं सकता।” इन विचारों का प्रभाव यह होता है कि लोग यह मान बैठते हैं कि संघर्ष अनीति, दुष्कर्म पाप किसी अदृश्य प्रेरणा के कारण बढ़ रहे हैं। इन्हें रोकना हमारे बस की बात नहीं है। किसान निराई न करे। तो अन्न के पौधे की अपेक्षा घास पात ही खेत में अधिक बलवान हो जावेंगे। हम यदि पाप कर्मों को नष्ट करने के विचार और प्रयत्न शिथिल कर दे तो निश्चय ही धर्म को सुख शान्तिमयी खेती नष्ट हो जायगी और दुष्कर्मों की कटीली झाड़ियाँ चारों और छा जायगी।

कलियुग का आम तौर पर जो अर्थ समझा जाता है, वास्तव में वह मनुष्य में “मनुष्यता की कमी” का दूसरा नाम है। स्वास्थ्य की कमी का नाम रोग है। स्वास्थ्य स्वाभाविक वस्तु है और रोग अस्वाभाविक। इसी प्रकार धर्म आचरण करना, सदाचार का पालन करना, मनुष्य की स्वाभाविक स्थिति है और कुकर्म करना अस्वाभाविक। रोग के उत्पन्न होते ही उसे मार भगाने के प्रयत्न किया जाता है और यह विश्वास किया जाता है कि चिकित्सा द्वारा बीमारी को हटाना सम्भव है। इसी प्रकार हमें यह विश्वास करना चाहिये कि कलियुग अस्वाभाविक है, अस्थायी है और उसे मार भगाया जा सकता है। निर्धन मनुष्य अपनी आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए सदैव प्रयत्नशील रहता है, हमें भी मनुष्य की कमी को दूर करके मनुष्यता को वास्तविक विशुद्ध एवं धर्ममय स्थित में रखने का उद्योग करना चाहिए।

रँगे सियार, दुष्ट कर्म करने वाले, लोग ही अक्सर कलियुग की मान्यता का प्रचार करते हैं, ताकि उनके कुकर्मों का विरोध निर्बल हो जाय और वे अपनी अनीति को आसानी के साथ जारी रख सकें। यह एक बौद्धिक षडयन्त्र है, जिसके पीछे पापात्मा लोगों की कूट नीति छिपी हुई है। अब समय आ गया है कि इस पर्दे को उघाड़ दिया जाय और यह प्रकट कर दिया जाय कि आजकल कलियुग का जो अर्थ किया जा रहा है, वैसी स्थिति तो सतयुग त्रेता द्वापर में भी उत्पन्न हुई थीं और आज भी सतयुगी लोग मौजूद हैं। यदि युग का प्रभाव ही मुख्य है तो एक युग में दो प्रकार के लोग क्यों होने चाहिए ?

पाठकों को “कलियुग“ नामक बौद्धिक षडयन्त्र में फंसने से इन्कार कर देना चाहिए और दुखदायी कुकर्मों को जोरदार विरोध द्वारा नष्ट करके सदाचार का शान्ति दायी सत्युग लाने का सतत प्रयत्न करना चाहिये।


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