बुद्धिमान किन्तु अनाड़ी चौकीदार

December 1977

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किसी मंदिर में एक बहुमूल्य वाद्य था। उसके स्वर असाधारण मधुर थे। मंदिर का चौकीदार बहुत सतर्क था। उसने बाजे को बहुत सँभाल कर रखा था और इस बात की खबर रखता था कि कोई उस तक जाने न पावे।

एक दिन एक फटे वस्त्रों वाला अजनबी वहाँ पहुँचा और उस वाद्य यंत्र का उपयोग करने के लिये आग्रह करने लगा। चौकीदार ने तिरस्कारपूर्वक उसे प्रांगण से बाहर खदेड़ दिया।

अजनबी अवसर ढूँढ़ता रहा और रोज ही उधर आता रहा। एक दिन दाव लगा। वह बाजे तक पहुँचा और तन्मयतापूर्वक बजाने लगा। इस दिन का वादन इतना मधुर था कि सुनने वाले सभी तरंगित और भाव- विभोर हो उठे। वादन बंद हुआ तो श्रोताओं ने पुलकित होकर वादक से पूछा आप हैं कौन? कहाँ से आये हैं? और वादन कला में इतने प्रवीण क्यों कर हैं?

अजनबी की आँखें बरस पड़ी। वह बोला-मैं ही इस अलौकिक बाजे का निर्माता हूँ।’ मैंने ही साधनापूर्वक इसे बनाया था और सोचा था मंदिर में बजाकर दर्शकों को रस पिलाया करूँगा। पर स्थापना के दिन से लेकर आज तक वैसा अवसर ही न मिला। दूसरे ही दिन उस पर भौंड़े राग गाते रहे।

जीवन मंदिर के भाव सम्वेदनाओं का वाद्य बजाने का अवसर यदि उसके निर्माता को मिल सके तो इस पुण्य क्षेत्र में अमृतमयी स्वर लहरी गूँज उठे। वादक को अपना वाद्य बजाने का अवसर न मिलने देने वाला चौकीदार बुद्धिमान होते हुए भी अनाड़ीपन का ही परिचय देता है।

-स्वामी रामतीर्थ


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